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----- ॥ हर्फ़े-शोशा 4॥ -----

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सुपेदो-कोह की हद-बुलंदीसे चश्मे-हैवाँ के आगे..,
सब्ज़े-मैदाँ की मुदाख़िल से ज़र्दे-सहराँ के आगे..,

फ़रिश्ता-ए-ख़सलत के जेरोसाए में है दरीबां मिरा..,
शादाबी सबाओं से शिगुफ़ता पा है ये बागबाँ मिरा..,

मुल्के-दुन्या के कारिंदे ने नफ़ासत से बनाया इसको.., 
दरे-ग़नजीना-ए-गौहर को खोल करसजाया इसको..,

समंदर के फ़राहम से अपने जौहर को नमुदा किया..,
तूफ़ाने-क़यामत में मौजे किश्ती को नाखुदा किया..,



महताबी फ़लक पे अनजुमे-रख़्शन्दा का मंजर है.., 
ये वो हिंद है के जू-ए-गंग से हर ज़र्रा जहाँ तर है..,

सुबहो-बनारसी उफ़क की बंद गिरहे से छूटकर..,
शामे-अवध को शफ़क़ फूल के उड़ती है सर पर..,

शाहाना पोशो-सरापा शब्बे-महताब वो सुरमई..,
तश्ते-चाँद-ओ-सरो-बाम पे हो दूलन कोई नई..,

आसमाँ पे आशनाँ गिर्दे-रक़्स करती कहकशाँ..,
समंदर की किश्तियों से यहाँ होती है शादियाँ..,


देहो-दहक़ाँ की सूरत में फ़रिस्तों की सी सीरत है..,
ख़लक के खुदा-बंद का तज़किरा इसकी ज़ीनत है..,

मह्रो-महताब है रौशन इसके बूत-खाने के चराग़ों से..,
याँ फ़िरदौस की भी हस्ती इसके बागीचों से बागों से..,

इसकी रहनुमाई यारब हर बियाबाँ को चमन कर दे..,
इसकी सर-परस्ती बे-वतन को भी बा-वतन कर दे..,

दरख़्तों के सायबान की तरह याँ पीर-ओ -पारसा..,
हो जो रिंदे-ऱफ्त-ए-राह तो ये रहबर-ओ-रहनुमाँ..,

हर दरो-आम से उठती हुई वो दस्ते-संदल की महक..,
नग़्मे-संग जू की तबक पे वो नर्म-बादल की धनक..,

खुलती है यूं फिर मख़मली रु-ए-मौसम की बंदिशें..,
हलक़े हलक़े पे पुर नूर सी फिर गिरती हैं बारिशें.., 

आता है मस्त बहारों में जब सावन का महीना
तनाबे-तन्न पे तलातुम सी याँ झूलती है परीना

अब्र-ए-शोख़ सदफ़ के शोर पे क़तरों का तरन्नुम
शाख़-दर-शाख़ जरीं दार फ़स्ले-गौहर की तबस्सुम

ख़िरमन की शक्ल में वो ज़रो-ज़वाहर की पैदाइश 
ख़िलक़त के ज़ेब-ओ-तन पे फिर जेवर की नुमाइश 


अमनो-चैन का तलबगार दयानअतका ये घर ..,
दराज़े-दिल का ये दरवाज़ा दरिया वारका ये दर ..,


हिमाला के कोहिस्ताँ से वो ज़न्नत के नज़ारे
बढ़के हैं इसकी दयारे

राह-ए-रवाँ रश्क-ए-जहाँ वो तहज़ीब-ओ-ताज़ीम
ये ताजबख़्श फ़र्द-फ़र्द सेह ज़बानों में तक़सीम

तहे-पेंच-ओ-परदाज़-फ़लक-परवाज़ो-सर-ओ-बंद
लक़दकी लिबास पे क़मर बंद-ओ-तल्ख़-ए -तंग 

शम्मे-रौशन का जशन रौनके-अफ़रोज काजलसा
गुलबहाराँ वो रंगो-पाशी में रंगे-अफ़शानी का जलवा


मौजूदा दुन्या कहती है रहे-गो का गुनाहगार है ये
शरीके दर्द का तरफ़दारो - शराफ़त का पैरोकार है ये


नापाक बेसिताँ जो इस पाकीज़ा फ़र्शे ख़ाक से उठे.., 
नंग-नामूस होकेआफ़रीँ फिर वो याँ पाक हो उठे.., 

हर हाज़रीन के दर-ओ-पेश है ये दास्तान-ए-हिन्द
मुसलमाँ-ओ-फ़िरंगी का गुलाम गुलिस्ताने-हिन्द

इक वक़्त का ये रुस्तम ये हर्ब-ए-शेर-ओ-शमशीर
फिर गर्दन-ओ-गिरेबाँ पे लिए हो वो खंज़र या के तीर

ओ ख़ुशहाल आबेदाना इसका मालो -ज़रियात से लबरेज़ था इक ज़माना इसका

जिसकी जऱ-खेज़ जमीं मिरा सरमाया हुवा करती थी..,
क़हत के कहर में भी जीने का वसीला हुवा करती थी..... 

न इन्साँ न फ़िरक़ा इसने मुल्क दर मुल्क किए पैदा
बे-तअम्मुल फिर इक बार ये बारदारी को है आमदा


सफ़ेद-कोह = अफ़ग़ानिस्तान का एक पहाड़,हिमालय पर्वत
चश्मे-हैवाँ = गंगोत्री 
फ़राहम = :संग्रह, एकत्रीकरण
दरे-ग़नजीना-ए-गौहर = रत्नों के कोष का द्वार 
अनजुमे-रख़्शन्दा = चमकते हुवे तारे 
धनक = इंद्रधनुष


क़हत = अकाल 

बारदारी = गर्भ 

सहराओं के मुरदाख्वांर वाशिंदो जैसा..,
आदमी भी अब हो गया चरिन्दों जैसा.....

मतलब परस्ती की लगाईं कहीं आतिशी आग जले..,
तारीके-शब को सहर किए कहीं चश्मे-चराग़ जले....

>> सब्ज़ सब्ज़ हर ज़मीं हो बाग़ बाग़ हर बाग़ |
ए तारीके हिन्द तिरा बुझे न शबे चराग़ ||

 
>> शोला शोला आसमाँ सुर्ख़ रू आफ़ताब | 
शबे-सिताबा शर्र लगे हयाते आब सराब ||

>> श्याहो-श्याह शबो-सुबहो शफ़क़ शफ़्फ़ाक़ करे कोई.., ऐ जरींगर जमीने-हिन्द तिरा दामन चाक करे कोई..,
के फ़स्ले गुल बहारा से सर- ओ- पा तू सब्ज़े पोश..,
गरज़ अपनी में तुझको ग़र्क़-ओ-ज़र्दो ख़ाक करे कोई.....

मिरी ख़्वाहिशों के खुश रंग यूँ बदरंग हो गए..,
ऐ आईने फिर सुरते-तस्वीर पे रोना आया.....

चराग़े उफ़ताद को दामन से बचाने वाले..,
कहाँ हैं! कहाँ हैं! सरहिंद को सजाने वाले..,
ये आसारे-कदीमा जहाँ कैद आज़ादी मिरी..,
कहाँ हैं! वतन पे दिलो जाँ को लुटाने वाले.....
आसारे क़दीमा = पुराने जमाने की इमारते या खंडहर


हुकुमो-हाक़िम की शहवत में अर्ज़े-इरसाल का देना..,  
इस हक़ूमत में फिर बेसूद है अर्ज़ी-ए-हाल का देना.....

हुकुमो-हाक़िम = शासन-प्रशासन
शहवत = भोग-विलासिता
अर्ज़े-इरसाल = कर, चालान,टैक्स 
बेसूद = व्यर्थ
अर्ज़ी-ए-हाल = निजी अथवा सार्वजनिक विषय हेतु आवेदन

मेरे सरापे को जेहन में जगह दो,
के मुस्कराने की कोई तो वज़ह दो..,

वो मरमरीं चाँद जो शब् को न मयस्सर,
उसे हमराज करो और दामन में गिरह दो..,

ख़म को खोल गेसू-ए-दराज़ को संवार के,
लबे-कनार को सुर्खियाँ नज़रों को सियह दो..,

ज़हीनत के ज़मील-तन पे सीरत के हैं ज़ेवर,
दस्ते-दहल को हिना के रंग की निगह दो..,

हर रब्ते-मंद जाँ ऱगे-जाँ से हो नज़दीक,
रवाज़ी शामो-सहन की वो रस्मी सुबह दो..,

मुबारकें शफ़ाअतें सलामतें हो दम-ब-दम,
हम-क़दम को रुख़सते-रहल की रह दो.....



ये कागज़ों की कश्तियाँ ये आबो-मीन रूबरू, 
सफ़हा-सफ़हा नीमकश सबक़ते-पा कू-ब-कू.....

ग़िर्दाब-ए-सदफ़ो-तंगी-ए-जाँ-हरूफ़-ए-गौहर,
कशाकश में सर-ए-राह पे बिखरे हुए चार सूँ..,

जुज़ बंद न खोल तू ए बादे-रफ़्तो-सफ़े-दर, 
लम्हा-लम्हा सैह पहर शबे-पोशो-सियह गूँ..,




आबोमीन = नीला-पानी 
सबक़ते-पा = बढ़ते कदम 
सैह पहर = तीसरा पहर 
ग़िर्दाब-ए-सदफ़ = सीप का घेरा 
तंगी-ए-जाँ = जगह की तंगी 
हरूफ़-ए-गौहर = अक्षरों के मोती 
जुज़ बंद = किताबों के सीरों पर के सीए हुवे बंद, तलहटी से लगा छोटा खंड (बर्फ, पत्थर आदि का ) 
बादे-रफ़्तो = तेज हवा
सफ़े-दर = तल,पृष्ठ को तोड़ने वाला, लड़ाकू


सोज़े-गुल रहे सदा तेरी उम्मीद के चराग़ 

ऐ मुलहिद ज़रा  हम्दो-सना रखते, 
क़ब्र तक जाने की फिर तमन्ना रखते.., 
 वसीयत न मुसद्दिक़ न कोई मुरब्बी, 
ढोने वाले तिरी मैय्यत को कहाँ रखते.., 

ये वो मज़हब है जो कफ़न देता है, 
बाद मरने के फिर मद्फ़न देता है.., 
जो मर ही गए तो करता है रूहें रफ़ू, 
ग़र जी गए तो जीने का फ़न देता है.., 

 मद्फ़न = श्मशान, कब्र,अंतिम क्रिया 

शहवते-परस्ती में हुवा मुल्हिद मैं इस क़दर..,

अब न ख़ुदा का खौफ़ है न अंजाम की परवाह.....

स्याह गूं-ओ-शब् आँख ना दिखाओ मुझको.., 
शम्मे-कुश्तां हूँ शबिस्ताँ में सजाओ मुझको.., 
फ़ाजिलो-खाना ख़राब तलाशें हैं शबे-गिर्द मुझे.., 
शफ़क रुखसार हूँ शब्बा खैर छूपाओ मुझको.....



मैं नामे-शम्मे स़ाज हूँ समाँ-साद नहीं हूँ.., 
शफ़क की सरहदों में हूँ आज़ाद नहीं हूँ.., 
शामो-शब् तलक है मेरा शबनमी महताब.., 
तारीके-बसर औकात हूँ सहर आबाद नहीं हूँ.....

कला वस्तुत: वह कृतिमयी रचना है जो अंतर व् बाह्य जगत को सौंदर्य पूरित आकृति प्रदान कर साकारित स्वरूप देती है.....


''भारत का अस्तित्व भारतीयों से है भारतीयों का अस्तित्व भारतीयता से है जिस दिन भारतीयता समाप्त हो जाएगी उस दिन भारत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा....."

विद्यमान परिदृश्य में भारत को भारतीयीकरण अथवा राष्ट्रीयीकरण की आवश्यकता है, भारत के अस्तित्व की रक्षा हेतु उसे यह करना ही होगा | 


टिप्पणी : - राष्ट्रीयीकरण का तात्पर्य राष्ट्रविशेष के शासकीय अथवा निजी संस्थानों एवं विभागों में मूल निवासियों की प्रधानता करना..राष्ट्रीयीकरण का अर्थ हम जिस सन्दर्भ लेते है वह वस्तुत: शासकीयीकरण है.....







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