हरि मेलिते खेवटिया छाँड़ा नहीँ सुभाए |
जीउ हते हिंसा करे दूजे कवन उपाए || १ ||
भावार्थ : - भगवान के दर्शन होने पर भी केवट जाति ने अपने स्वभाव का त्याग नहीं किया वह अब भी जीवों की ह्त्या कर हिंसारत है इसके इस स्वभाव को परिवर्तित करने की इससे बढ़ कर दूसरी कौन सा युक्ति होनी चाहिए |
गुरु मिलते दास कबीर छाड़ें हिंस सुभाए |
भजन करत भए हरि भगत आपहि गुर कहलाए || २ ||
भावार्थ : - गुरु के मिलते ही कबीर दास ने हिंसा का परित्याग कर दिया फिर वह भजन कीर्तन में अनुरक्त हो हरि भक्त हो गए और स्वयं गुरु कहलाए |
चरन साँचे पंथ चलें जुअते नहि धन धाम |
दुनिआ कहत पुकारसी करते नहि कछु काम || ३ ||
भावार्थ : -पहले सन्मार्ग पर चलना मान सम्मान का विषय था और धन-सम्पति भी संकलित हो जाती थी, अब सन्मार्ग पर चलकर धनसम्पति का संकलन कठिन हो गया है ऊपर से लोक-समाज अपमानित कर कहता है अरे ! कुछ कामवाम नहीं करते क्या ?
पाछिन के अनुहार अस चलिया अधुना वाद |
सील गया सनेह गया गई मान मरयाद || ४ ||
भावार्थ : - पाश्चात्य संस्कृति के अनुशरण से ऐसे आधुनिक वाद का चलन हुवा कि लोगों में शीलता रही न परस्पर स्नेह ही रहा और मान और मर्यादा भी जाती रही |
माता पिता गरब करत भेजो लाल बिदेस |
बूढ़ भए तो कोस कहे बहुरत नहि रे देस || ५ ||
भावार्थ : - माता-पिता ही झूठा लोक सम्मान प्राप्त करने हेतु पहले तो गर्व करते अपनी संतान को विदेश भेजते हैं, फिर जब बुढ़ापा आता है तब देस नहीं लौटने पर आधी-व्याधि से घिरे उन्हें कोसते हैं | 'चंदन पड़िया चौंक में ईंधन सों बरि जाए' (संत कबीर ) चंदन होने पर भी वहां उनका उपयोग ईंधन के सदृश्य होता है |
जीउ हते हिंसा करे दूजे कवन उपाए || १ ||
भावार्थ : - भगवान के दर्शन होने पर भी केवट जाति ने अपने स्वभाव का त्याग नहीं किया वह अब भी जीवों की ह्त्या कर हिंसारत है इसके इस स्वभाव को परिवर्तित करने की इससे बढ़ कर दूसरी कौन सा युक्ति होनी चाहिए |
गुरु मिलते दास कबीर छाड़ें हिंस सुभाए |
भजन करत भए हरि भगत आपहि गुर कहलाए || २ ||
भावार्थ : - गुरु के मिलते ही कबीर दास ने हिंसा का परित्याग कर दिया फिर वह भजन कीर्तन में अनुरक्त हो हरि भक्त हो गए और स्वयं गुरु कहलाए |
चरन साँचे पंथ चलें जुअते नहि धन धाम |
दुनिआ कहत पुकारसी करते नहि कछु काम || ३ ||
भावार्थ : -पहले सन्मार्ग पर चलना मान सम्मान का विषय था और धन-सम्पति भी संकलित हो जाती थी, अब सन्मार्ग पर चलकर धनसम्पति का संकलन कठिन हो गया है ऊपर से लोक-समाज अपमानित कर कहता है अरे ! कुछ कामवाम नहीं करते क्या ?
पाछिन के अनुहार अस चलिया अधुना वाद |
सील गया सनेह गया गई मान मरयाद || ४ ||
भावार्थ : - पाश्चात्य संस्कृति के अनुशरण से ऐसे आधुनिक वाद का चलन हुवा कि लोगों में शीलता रही न परस्पर स्नेह ही रहा और मान और मर्यादा भी जाती रही |
माता पिता गरब करत भेजो लाल बिदेस |
बूढ़ भए तो कोस कहे बहुरत नहि रे देस || ५ ||
भावार्थ : - माता-पिता ही झूठा लोक सम्मान प्राप्त करने हेतु पहले तो गर्व करते अपनी संतान को विदेश भेजते हैं, फिर जब बुढ़ापा आता है तब देस नहीं लौटने पर आधी-व्याधि से घिरे उन्हें कोसते हैं | 'चंदन पड़िया चौंक में ईंधन सों बरि जाए' (संत कबीर ) चंदन होने पर भी वहां उनका उपयोग ईंधन के सदृश्य होता है |