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----- ॥ उत्तर-काण्ड ॥ -----

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द्रुम दल सकल फूल फल पाखे । खग मृग जीउ जंतु बन साखे ॥
पलत दोउ आश्रम सुर धामा । रघुकुल दीपक नयनभिरामा ॥ 
वृक्षों के दल फूल फल एवं उनकी पत्ते और पक्षी, मृग आदि समस्त जीव जंतु साथी बन गए रघु के ये नेत्रप्रिय कुल के दीपक, देव धाम स्वरूप उस वन आश्रम में पलने लगे ॥ 

काल चाक चर गति कर बाढ़े । हरियर सुतबर बपुधर गाढ़े ॥
बाल्मिकीहि महर्षि मंडिते। मसि पथ के रहि महा पंडिते ॥
समय का चक्र अपनी गति अनुसार बढ़ता चला गया और उन श्रेष्ठपुत्रों की सुन्दर देह आकृति, धीरे धीरे सवरुप लेने लगी ॥ महर्षि उपाधि से विभूषित वाल्मीकि ऋषि,  लेखनी के महा विद्वान पंडित थे ॥ 

धनु बिधा तिन्ह निपुनित किन्ही । जुद्ध कला के दीक्षन दिन्ही॥
स्तुति गीत पद मुख कल नादें । निगमागम बालक वद वादें 
उन्होंने उन युगल पुत्रों को धनुष विद्या में निपुण किया । और युद्ध कला की दीक्षा दी । बालक स्तुति, गीत, पद आदि को मधुर स्वर में गाते, और वेद शास्त्र का कथन करते हुवे शास्त्रार्थ किया करते ॥ 

सिय राम कुँवर कालनुसारे । वेद बिदित बर दिए संस्कारे ॥
द्विज जाति जे शास्त्र बिहिते । बारह मनु सोलह अन्य कृते ।। 
सियाराम के उन कुंवारोंको समयानुसार वेद विधान में विदित श्रेष्ठ संस्कारों दिए गए ॥ द्विजातियों के शास्त्र विहित कृत्य जो मनु अनुसार बारह और कुछ अन्य लोगों के अनुसार सोलह हैं॥ 

यत् गर्भाधान च पुंसवन सीमंतोन्न्यन: जातकर्म: ।
यद नाम कर्माय च निष्क्रमणाय च अन्न्प्राशनम कर्म: ॥ 
चूड़ाकर्मोपनयन केशान्तवं समावर्तन: विवाह: । 
अन्य: कर्णभेदम विद्यारंभ वेदारभ: अंत्येष्टि:॥ 
जो हैं गर्भाधान,और पुंसवन,सीमंतोन्न्यन,जातकर्म तथा नामकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन का कर्म, चूड़ाकर्म, उपनयन, केशांत, समावर्तन, विवाह; अन्य चार हैं कर्णभेद, विद्यारम्भ, वेदारम्भ, अंत्येष्टि ॥  

कबि कोबिद के मुख वाद, दोनौ सुत  बन लोक । 
निगमागम निगदित नाद गावहिं सकल श्लोक ॥ 

मंगलवार, २५ जून, २ ० १ ३                                                                                                  

भोर साँझ साँझी भइ भोरे । दोनौ बालक भयउ किसोरे । 
दिव्य दरस दिए देह अकारे । तन स्याम मन मृदुल कुमारे ॥ 

बिधा निपुन बुध गुन आगारे । सकल ज्ञान गिन चितबन घारे ॥ 
बेद श्रुतिहि अस मधुर बखाने । सारद सेषहु अचरज माने ॥ 

रचे रमायन श्री गिरि बानी । बाल्मिकी कबिबर अभिधानी ॥ 
तेहि मह ग्रंथन दोउ भाई । कंठ कलित कल रव कर गाई ॥ 

मधुर गान अस तान पूरितें । कंठी ताल सकल सुर जीते ॥ 
मंद मधु मुख मंडित मांडे । कल सकल श्री सप्तक कांडे ॥ 

रुप सिन्धु ज्ञान के कुञ्ज, भयउ दूनउ किसोर । 
नयन मुँदत रयन जाके, नयन उघारे भोर ॥ 















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