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----- ॥ उत्तर-काण्ड ॥ -----

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पिया बिरह पर को कर केही । बखत बितावति बन बैदेही ॥ 
दौ सुत सह सिय भइ बनबासी । पल छिनु दिनु दिनु भए मासी ॥
प्रियतम के बिछोह का दुःख किन्तु किससे कहती ? अत वैदेही अपना विरही समय वन ही में बिता रही थी ॥ दो पुत्रों के साथ वन वन की वासी हो गई और पल क्षण में,क्षण दिवस में और दिवस मॉस में परिवर्तित होने लगे ॥ 
  
लइ ललनइ छबि नयनभिरामा । प्रभा बदन प्रति बिम्बित रामा ॥
सुहासन ससी किरन सूचिते । सुधा श्रवाधर  अधार सहिते ॥
दुलारों की छवियाँ नेत्र प्रिय हो गईं । और उनकी मुख की आभा श्री का ही प्रितिबिम्ब देने लगी ॥ मुख की सुन्दर मंद हँसी मानो चंद्रमा की किरणों की ही सूचक हों और अधर अमृत बरसाने वाले चन्द्रमा ही से युक्त हों ॥ 

नक नख सिख सह मुखारविन्दे । दिव्य दरस दृग रतनन निंदे ॥ 
ललित कलित कुंतल घुँघराले । घुटरु  पदोपर चले मराले ॥ 
कमल मुख नासिका सहित नाख़ून से शीर्ष तक अलौकिक दर्शन दे रहे थे और दृष्टि मानो रत्नों की भी निंदा कर रही हों ॥ केश कुन्दलता ग्रहण किये सुशोभित हो रहे थे । और घुटनों पर चलने वाले अब हंस के जैसी मनोरम चाल चलने लगे ॥ 

बट रसरिहि कभु डारि उछंगे । कास कटि केरि लावन लंगे ॥ 
नील मनि सम सरीर सुरंगे । तूल तिलक तल निटिल नियंगे ॥ 
बालक,कटि ऊपर सुन्दर कछनी कसे कभी वट वृक्ष की जटा तथा कभी उसकी डालियाँ पकड़ कर उछलते ॥ शरीर ने नीलम के सदृश्य मोहक नीलवर्ण वरण कर लिया था ॥ और माथे पर लाल तिलक का चिन्ह सुशोभित हो रहा था ॥ 

किलकत कौतुकिय करत, बालक कुञ्ज कुटीर । 
हरि भै भूइ ब्रम्ह बरत पा हरि के दौ हीर ॥ 
लतागृह में दोनों बालक  खिलखिलाते और कौतुहल करते , ब्रम्हा वर्त की वह भूमि, श्री हरी के उन दो रत्नों को प्राप्त कर अत्यंत प्रसन्न चित हो उठी  ॥ 

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