इहाँ एक दिवस जग प्रनेताए । भरत लख्ननन ले निकट बुलाए ।।
अरु कहि रे मम प्रियकर भाई । मोरे मन एक चाह समाई ।।
यहाँ एक दिवस संसार के रचयिता श्री राम चन्द्र ने भारत लक्षमण को निकट बुला कर कहा मेरा हीत करने वाले मेरे प्रिय भाइयों मेरे मन में एक कामना जागृत हुई है ॥
धरम करम के चारन चारे । राज सूय जज्ञ काहु न कारें ।।
पावत एहि जज्ञ जाज्ञिक कारी । राज धरम के परम दुआरी ।।
धर्म कर्म का आचरण पर चलते हुवे क्यों न हम राज सूय यज्ञ का आयोजन करें ।। इस यज्ञ के आयोजन कर्त्ता एवं कारिता राज धर्म के चरम पद को प्राप्त होते हैं ॥
एहि जज्ञ कारज भए अघ नासी । पाएँ कृत फल अक्षय अविनासी ॥
तुम्हहि कहु अब सोच बिचारे । का एहि कृति रहि जग सुभ कारे ॥
यह यज्ञ कार्य पापों का नाशक है एवं यज्ञ सफल होने पर कर्त्ता को अक्षय एवं अविनाशी फल की प्राप्ति होती है ॥ अब तुम ही सोचा विचार कर कहो कि क्या इस यज्ञ का आयोजन संसार के लिए कल्याण कारी होगा?
सुनत बर भ्रात के मृदु भासन । बोले भरत अस सीतल बचन ।।
तुम्हहि जस तुम भए बर धर्मा । एहि महि थित तव कल कर कर्मा॥
बड़े भ्राता के ऐसे कोमल एवं कृपा पूर्ण शब्दों को सुनकर भारत ने ऐसे शीतल वचन कहे : -- हे! नाथ आप स्वयं ही यश हैं और स्वयं ही इस पृथ्वी का श्रेष्ठ धर्म हैं आप ही के हाथों के शुभ कर्मों के कारण ही इस धरा का अस्तित्व है ॥
कहूँ बर बचन लघु मुख धारे । अनभल के छमि भ्रात हमारे ॥
अस जग्य करम को बिधि कारे । जे सब महि कुल सूर संहारे ॥
में अपने इस छोटे मुख से बड़ी बात कहता हूँ और हे! भरता अहितकर वचनों के लिए क्षमा का प्रार्थी हूँ ॥ ऐसा यज्ञ कार्य हम किस हेतुक करें जो पृथ्वी पर स्थित राजवंशों का संहार कर दे ॥
हे जग सूर बंदन तुम, भै तात सकल भूम ।
तवहि कोमल चरन पदुम, गहि रहि पवित पहूम ॥
हे समस्त जनों के पूज्यनीय हे जगराज ! आप तो समस्त पृथ्वी के पितृतुल्य हैं यह पवित्र भूमि आपके इन कमल सदृश्य कोमल चरणों को पकड़ती है ( अत: आप ऐसा यज्ञ कार्य स्थगित कर दीजिए)
श्रुत जुगति जुग भरत के कथना । मुदित नाथ बोले अस बचना ॥
तुम्हरे साँच मत रे भाई । धरम सार तस धरनि रखाई ॥
भरत के ऐसे युक्तियुक्त वचनों को सुनकर, रघुनाथ प्रसन्न चित होते हुवे ऐसे बोले : -- हे! भ्राता तुम्हारा यह परामर्श सत्य, उत्तम,धर्मानुसार एवं धरती की रक्षा करने वाला है ||
तव बर भासन में सिरौधारुँ । जेहि जज्ञ कामन परिहर कारुँ ॥
तत पर लखमन कही रघुनन्दन । अस्व मेध जज्ञहू भै अघधन ॥
तुम्हारे इस श्रेष्ठ व्याख्यान को मैं अंगीकार करता हूँ । तत पश्चात लक्षमण ने कहा हे! रघुनन्दन अश्व मेध यज्ञ भी है जो पापों का नाशक है ।।
जो प्रभु मन जज्ञ कामन धारे । अस्व मेध करि कर्म सुधारें ॥
तेहि बिषय पर भै एक गाथा । ब्रम्ह हनन दूषन धरि माथा ।।
यदि प्रभु के चित्त ने यज्ञ कार्य के आयोजन की अभिलाषा की है तो अश्व मेध यज्ञ भी कर्म सुधारने में समर्थ है(ज्ञात हो की भगवान श्री राम द्वारा रावण का वध करने से उन्हें ब्रम्ह हत्या का दोष लग गया था । रावण के पिता का नाम विश्रवा था जो ब्राम्हण कुल के थे और माता कैकसी राक्षस कुल की थीं रावण एक संकर सन्तति था) । इस विषय पर एक कथा भी प्रचलित है कि ब्रम्ह हत्या का दोष लगने पर:--
निरदूषन हुँते सुरकुल राए । अस्व मेध जज्ञ कारू कराए ।।
श्री रामचंद्र नगर अजोधा । लै सद सम्मति परम पुरौधा ॥
अश्व मेध कर कारज धारे । महा जज्ञ के अयोजन कारे ॥
जोड़ा बिनु जज्ञ होए न भाई। एहुँत मृदा के सिय रच साईँ ॥
किए गठ जुग जज्ञ बेदी बैठे । बिमौट सह लव कुस तँह पैठे ॥
दौनौ बाल पुर पुरौकाई । भँवर भँवर रमायन सुनाईं ॥
मधुर गान रहि अस रस बोरे। पागत श्रवन पुरौकस घोरे॥
आगिन गवाने सुत रघुराई । पाछू सब जन रमतत आईं ॥
मोद मुदित मुख निगदित जाते । जो तिन्ह जनि धन्य सो माते ॥
जन मुख कीर्ति कीरतन, श्रुत दोनौ निज मात ।
भए भावस्थ ग्रहत प्रवन, वंदन चरन अगाध ॥
गुरूवार, २ ७ जून, २ ० १ ३
बिधि पूरनित पूजन बिधाने । सकल द्विज पति बहु सनमाने ॥
बिप्रबधु सुआसिनि जे बुलाईं । चैल चारु भूषन दिए दाईं ॥
आन रहहि जे पहुन दुआरे । भली भाँति सादर सत्कारे ॥
समदि सकल बिधि सबहि उयंगे । ह्रदय भीत भरि मोद तरंगे ॥
प्राग समउ मह राजकि धारे। रहहि न अबाधित अंतर कारे ॥
भारत के लिए कनक स्वेदे । भेद अभेद भेदीहि भेदे ॥
सस्य स्यामलि सुमनस सूमिहि । एक छत्र करतन भारत भूमिहि ॥
सकल राज लघु रेखन बंधे । चिन्ह तंत्र प्रद पाल प्रबंधे ॥
तेहिं कर जज्ञ के कल्प धारे । भारत भूमि एव एकीकारे ॥
एक कौ अश्व मेध जज्ञ कहही । दूजन राज सूय यज्ञ रहहीं ॥
प्रतिक सरुप एक हय तजें, भारत के भू बाट ।
जे राउ तेहिं कर धरहि, जोधहीं सन सम्राट ॥
एहि भाँति एक हय त्याज, जग कारिन जज्ञ कारि ।
अगहुँड़ हय पिछउ वाकी, धारिहि धर किरन धारि ॥
अरु कहि रे मम प्रियकर भाई । मोरे मन एक चाह समाई ।।
यहाँ एक दिवस संसार के रचयिता श्री राम चन्द्र ने भारत लक्षमण को निकट बुला कर कहा मेरा हीत करने वाले मेरे प्रिय भाइयों मेरे मन में एक कामना जागृत हुई है ॥
धरम करम के चारन चारे । राज सूय जज्ञ काहु न कारें ।।
पावत एहि जज्ञ जाज्ञिक कारी । राज धरम के परम दुआरी ।।
धर्म कर्म का आचरण पर चलते हुवे क्यों न हम राज सूय यज्ञ का आयोजन करें ।। इस यज्ञ के आयोजन कर्त्ता एवं कारिता राज धर्म के चरम पद को प्राप्त होते हैं ॥
एहि जज्ञ कारज भए अघ नासी । पाएँ कृत फल अक्षय अविनासी ॥
तुम्हहि कहु अब सोच बिचारे । का एहि कृति रहि जग सुभ कारे ॥
यह यज्ञ कार्य पापों का नाशक है एवं यज्ञ सफल होने पर कर्त्ता को अक्षय एवं अविनाशी फल की प्राप्ति होती है ॥ अब तुम ही सोचा विचार कर कहो कि क्या इस यज्ञ का आयोजन संसार के लिए कल्याण कारी होगा?
सुनत बर भ्रात के मृदु भासन । बोले भरत अस सीतल बचन ।।
तुम्हहि जस तुम भए बर धर्मा । एहि महि थित तव कल कर कर्मा॥
बड़े भ्राता के ऐसे कोमल एवं कृपा पूर्ण शब्दों को सुनकर भारत ने ऐसे शीतल वचन कहे : -- हे! नाथ आप स्वयं ही यश हैं और स्वयं ही इस पृथ्वी का श्रेष्ठ धर्म हैं आप ही के हाथों के शुभ कर्मों के कारण ही इस धरा का अस्तित्व है ॥
कहूँ बर बचन लघु मुख धारे । अनभल के छमि भ्रात हमारे ॥
अस जग्य करम को बिधि कारे । जे सब महि कुल सूर संहारे ॥
में अपने इस छोटे मुख से बड़ी बात कहता हूँ और हे! भरता अहितकर वचनों के लिए क्षमा का प्रार्थी हूँ ॥ ऐसा यज्ञ कार्य हम किस हेतुक करें जो पृथ्वी पर स्थित राजवंशों का संहार कर दे ॥
हे जग सूर बंदन तुम, भै तात सकल भूम ।
तवहि कोमल चरन पदुम, गहि रहि पवित पहूम ॥
हे समस्त जनों के पूज्यनीय हे जगराज ! आप तो समस्त पृथ्वी के पितृतुल्य हैं यह पवित्र भूमि आपके इन कमल सदृश्य कोमल चरणों को पकड़ती है ( अत: आप ऐसा यज्ञ कार्य स्थगित कर दीजिए)
श्रुत जुगति जुग भरत के कथना । मुदित नाथ बोले अस बचना ॥
तुम्हरे साँच मत रे भाई । धरम सार तस धरनि रखाई ॥
भरत के ऐसे युक्तियुक्त वचनों को सुनकर, रघुनाथ प्रसन्न चित होते हुवे ऐसे बोले : -- हे! भ्राता तुम्हारा यह परामर्श सत्य, उत्तम,धर्मानुसार एवं धरती की रक्षा करने वाला है ||
तत पर लखमन कही रघुनन्दन । अस्व मेध जज्ञहू भै अघधन ॥
तुम्हारे इस श्रेष्ठ व्याख्यान को मैं अंगीकार करता हूँ । तत पश्चात लक्षमण ने कहा हे! रघुनन्दन अश्व मेध यज्ञ भी है जो पापों का नाशक है ।।
जो प्रभु मन जज्ञ कामन धारे । अस्व मेध करि कर्म सुधारें ॥
तेहि बिषय पर भै एक गाथा । ब्रम्ह हनन दूषन धरि माथा ।।
यदि प्रभु के चित्त ने यज्ञ कार्य के आयोजन की अभिलाषा की है तो अश्व मेध यज्ञ भी कर्म सुधारने में समर्थ है(ज्ञात हो की भगवान श्री राम द्वारा रावण का वध करने से उन्हें ब्रम्ह हत्या का दोष लग गया था । रावण के पिता का नाम विश्रवा था जो ब्राम्हण कुल के थे और माता कैकसी राक्षस कुल की थीं रावण एक संकर सन्तति था) । इस विषय पर एक कथा भी प्रचलित है कि ब्रम्ह हत्या का दोष लगने पर:--
निरदूषन हुँते सुरकुल राए । अस्व मेध जज्ञ कारू कराए ।।
जो जग जन जे जज्ञ के करिता । भए ब्रम्ह हत ते पवित चरिता ।।
इंद्र ने दोष रहित होने के लिए अश्व मेध यज्ञ का आयोजन करवाया । संसार का जो कोई व्यक्ति यदि इस यज्ञ का आयोजन करता है तो ब्रम्ह ह्त्या के दोष से उसका चरित्र पवित्र हो जाता है ।। श्री रामचंद्र नगर अजोधा । लै सद सम्मति परम पुरौधा ॥
अश्व मेध कर कारज धारे । महा जज्ञ के अयोजन कारे ॥
जोड़ा बिनु जज्ञ होए न भाई। एहुँत मृदा के सिय रच साईँ ॥
किए गठ जुग जज्ञ बेदी बैठे । बिमौट सह लव कुस तँह पैठे ॥
दौनौ बाल पुर पुरौकाई । भँवर भँवर रमायन सुनाईं ॥
मधुर गान रहि अस रस बोरे। पागत श्रवन पुरौकस घोरे॥
आगिन गवाने सुत रघुराई । पाछू सब जन रमतत आईं ॥
मोद मुदित मुख निगदित जाते । जो तिन्ह जनि धन्य सो माते ॥
जन मुख कीर्ति कीरतन, श्रुत दोनौ निज मात ।
भए भावस्थ ग्रहत प्रवन, वंदन चरन अगाध ॥
गुरूवार, २ ७ जून, २ ० १ ३
बिधि पूरनित पूजन बिधाने । सकल द्विज पति बहु सनमाने ॥
बिप्रबधु सुआसिनि जे बुलाईं । चैल चारु भूषन दिए दाईं ॥
आन रहहि जे पहुन दुआरे । भली भाँति सादर सत्कारे ॥
समदि सकल बिधि सबहि उयंगे । ह्रदय भीत भरि मोद तरंगे ॥
प्राग समउ मह राजकि धारे। रहहि न अबाधित अंतर कारे ॥
भारत के लिए कनक स्वेदे । भेद अभेद भेदीहि भेदे ॥
सस्य स्यामलि सुमनस सूमिहि । एक छत्र करतन भारत भूमिहि ॥
सकल राज लघु रेखन बंधे । चिन्ह तंत्र प्रद पाल प्रबंधे ॥
तेहिं कर जज्ञ के कल्प धारे । भारत भूमि एव एकीकारे ॥
एक कौ अश्व मेध जज्ञ कहही । दूजन राज सूय यज्ञ रहहीं ॥
प्रतिक सरुप एक हय तजें, भारत के भू बाट ।
जे राउ तेहिं कर धरहि, जोधहीं सन सम्राट ॥
एहि भाँति एक हय त्याज, जग कारिन जज्ञ कारि ।
अगहुँड़ हय पिछउ वाकी, धारिहि धर किरन धारि ॥