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----- ॥ हर्फ़े-शोशा 7॥ -----

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मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  |
आने वालि नस्ल तिरी होगी फाँकेमार  || १-क ||


जमीं के ज़ेबे तन की दौलतें बेपनाह |
जिसपे एक ज़माने से है बद तिरी निगाह || ख ||


बता के तू है क्या रोज़े हश्र का तलबग़ार |
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार || ग ||


देख तो इस रह में कोई सहरा है न बाग़ |
होगी वो मासूम याँ बेख़ाब बे चराग़ || घ ||


क्या नहीँ है वो इस मलिकियत की हक़दार
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || ड़ ||

ख़ुदा की ये रहे-गुज़र ख़ुदा की बसर-गाह |
करता है तू हकुमते बनता है शहँशाह || च ||

मज़लिम का मुजाहिम ए मुहतरिम का चारागार ||
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || छ ||

ये मालो-मुलम्मा ये रँगीन सुबहो शाम |
ये ज़श्न ये जलसे ये जलवे सर-ओ-बाम || ज  ||


बेलौस हँसी पे तिरी (वो) रोएगी जाऱ जाऱ |
मौज़ूदा वक़्त-ए-तंग तू होजा ख़बरदार  || झ  ||





नज़्म-ओ क़लाम कोई नया
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ले चले क़दम कहाँ इस दौरे-जहाँ से हम..,
सोचे ज़रा ठहर के थे आए कहाँ से हम..,
बनते हैं सुख़नदाँ अब पढ़के ज़बाने-ग़ैर..,
हुवे यूं अज़नबी ख़ुद अपनी ज़बाँ से हम..,

माज़ी को लफ्ज़ दें तो निकले है लब से आह!
हैं दर्द-मंदसपेद चेहरों से सीने-स्याह से हम..,

सरका-ए-बिल्जब्री को वो कहते थे हमवतन..,
हैं रोज़ो सोज़े जाँ अब उनकी सिपाह से हम..,

क़सूर था वो कौन सा किया था हमने क्या..,
गिरते ही गए जहाँ की नज़रे-निगाह से हम..,

मेहृ-ओ-चाँद सितारों के थे शुमारे-कुनिंदा..,
करते थे गुफ़्तगू भी कभीकहकशाँ से हम..,

ग़ैरों का दामन थाम के फिरते हैं दरबदर..,
चलते हैं सब्ज़े-पा अपनी रब्ते-राह से हम.....

सुख़नदाँ = लेखक
माज़ी = अतीत, इतिहास
सीने-स्याह = काले दिलवाले
सरका-ए-बिल्जब्री = डाकू-लुटेरे मोतबर = भरोसेमंद
सिपाह = सेना
मेहृ = सूर्य
शुमारे-कुनिंदा = गणना करने वाला
रब्ते-राह = छूटा हुवा सन्मार्ग, टूटा हुवा सुसम्बन्ध
सब्ज़े-पा= जिसका आना दुर्भाग्य का सूचक हो, मनहूस कदम,सत्यानाशी
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सियासत तेग़ और म्यान जब अख़बार हो गए..,
हम भी इंक़लाबे-क़लम के तलबग़ार हो गए.....

उठती रही तेरे दर से ऱोज एक दीवार क्यूँ..,
होता नहीं ऐ हिन्द तू ख़ुद इख़्तियार क्यूँ..,
चुने हुवे ये मनारो-महल मेरे ख़ूने-ख़िश्त से..,
लगता है याँ अबतलक ग़ैरका दरबार क्यूँ.....

ख़ुद इख़्तियार = स्वतन्त्र
ख़िश्त = ईँट

किश्त ज़ारी इसकी
पर्वते-ए-माहताब = चाँद की किरण 
आल्हा गान = आपबीती का वर्णन 
हक़-रसी = न्याय का अधिकार
बेनज़ीर = अद्वितीय
रेहल = किताब रखने खांचा
बाँगे-दुहल = डंके की चोट
अनख = प्रतिस्पर्द्धा,  होड़
पुरोडास =यज्ञ का अन्न
एकै मूठिका नाज बुए भरे भूरि भण्डार | 

गगन मेह बरखाओ घुमड़ घूम, जीउ जीउ रे तिसनत तरपत, बरखा ऋतु आओ..... तपत धरिती रे दिवस रैना 
हरितप्रभ तन घनोदयात हरिअरी हरियाओ.....


बूँदी बूँदी नदी तरि तरसावै
घट-घट भरि जाओ
मेह = मेघ 
सदरा = सारा 
धरित्रि = पृथ्वी, भूमि 
हरितप्रभ = पीला पड़ा हुवा 
घनोदयात = पावस का उदय करके 

ठहर जाओ ना ऐ रब्ते-क़दम, हों जो हमराह तो होंगे मुकम्मिल हम..,
मगर इससे पहले लो ये क़सम,
मीलों के ये फ़ासले तय करोगे सनम..,

ये तन्हाई के अँधेरे जब सताएंगे,
हम उम्मीदों के चरागों को जलाएंगे,
करो नही तुम अब पलकें यूं नम.....


जब चाहत के सरे-नौ मरहले होंगे
तब हज़ारों ख़ार भी क़दमों तले होंगे
हाँ खुशियों में बदलेंगे सब गम.....

सरे-नौ मरहले = चाहत के सम्मुख नए बसाए घर, सफर में नए नए पड़ाव

ख़ार = कांटे
-----------------------------------------------------------------मिरी ख़्वाहिशों के खुश रंग यूँ बदरंग हो गए..,
ऐ आईने फिर सुरते-तस्वीर पे रो दिए .....


गराँ बार इस बसरे-औकात के सितम से ..,
अच्छे खासे आदमी थे लाचार हो गए .....

इश्क़ में ग़म खुशियों पे फ़िदा हो गया ,
ऐ शम्म लो फिर परवाना फ़ना हो गया .....


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