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----- ॥ दोहा-पद॥ -----

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गठ गढ़ो बड़ो सोहनों हार, प्रभो जी थारो पइयाँ धरूँ । 

पइयाँ धरूँ थारी बिनति करूँ । प्रभो जी थारो पइयाँ धरूँ ॥ 
मारो धरन करो स्वीकार । प्रभो जी थारी पइयाँ धरूँ ॥ 

पाँच सबद धुनि मंगल गावै । सुहा सुभग सुभ सगुन सुहावै ॥ 
कहै जनक जनेत जै जुहार । प्रभू जी थारी पइयाँ धरूँ  ॥ 

चुन चुन पतियाँ सकल सँजोई । लग दिनु रतियाँ सूत पिरोई ॥ 
गुंफ गुंफ गच गाँठी सँवार । प्रभो जी थारो पइयाँ धरूँ ॥ 


हाथ कंगनियाँ, करनन फूले । पाँउ पजनियाँ रुर रमझूले ॥ 
सजी सिय सोलहो सिंगार । प्रभू जी थारी पइयाँ धरूँ ॥ 

रुचि रुचि छापन भोग बनायो । पयसन सोरन संग सजायो ॥ 
रची रुचि रसबती जेवनार। प्रभो जी थारो पइयाँ धरूँ ॥ 

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

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पूस रथ हेमन हिमबर, बिदा कियो हेमंत ॥ 
आयो राज बसंत सखि, छायो राज बसंत ।। 

नौ पत फल नवल द्रुमदल भइ रितु अति रतिबंत । 
आयो राज बसंत सखि, छायो राज बसंत ।। 

पील नील नव नारंजी , केसरियो हरि कंत । 
आयो राज बसंत मन भायो राज बसंत ॥ 

नारद सारद सेष श्रुति सुर मुनि संत महंत । 
गायो राग बसंत सखि आयो राज बसंत ।। 

सारंगी संग सिंगार, रुर सुर सात सुबंत । 
गायो राग बसंत सखि छायो राग बसंत ॥ 

कास कोनिका कैसिका , कल बीना के तंत । 
गायो राग बसंत सखि छायो राग बसंत  ॥ 

बेनुर बदन बृंदाबन, बादत बादन यंत । 
गायो राग बसंत सखि छायो राग बसंत ॥ 

जल नुपूर रुर फुर संग, रकत कंठ अलि रंत । 
गायो राग बसंत मन भायो राग बसंत ॥ 

शोख शिफक अबीर अबलक, चिरक फ़लक (तलक )पर्यन्त । 
खेलए फाग बसंत आ हेलए फाग बसंत ॥ 

राग ललित परिपाटलित, छिरक गगन परजंत । 
खेललि फाग बसंत हेललि फाग बसंत ॥ 

लाल ललितक गाल ललित, लै रस लस रसवंत । 
खेलए फाग बसंत सखि मेलए फाग बसंत ॥ 

पूस रथ हेमन हिमबर, बिदा कियो हेमंत ॥ 
आयो राज बसंत सखि, छायो राज बसंत ।। 

भाल ललामिक लाल ललामिक लसत मुख रजत जयंत । 
लायो सौहाग बसंत मन भायो सौहाग बसंत ॥ 







                                               क्रमश: 

----- ॥ मैं दानी हूँ,ज्ञानी नहीं हूँ ॥ -----

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                          ----- ॥ मैं दानी हूँ,ज्ञानी नहीं हूँ ॥ -----

क्रुद्धहृष्टभीतार्तुलुब्धबालस्थविरमूढमत्तोन्मत्तवाक्यान्यनृतान्यपातकानि | 
            ( एक शब्द में कितना बोलती है ये संस्कृत भाषा )  
----- ॥ गौतमधर्मसूत्र ५ /२ ॥ -----

भावार्थ : -- दान तभी करना यथेष्ट है जब उसका अधिकार प्राप्त हो : -- भावावेश में, भयभीत होकर, रुग्णावस्था में, अल्पावस्था में, मदोन्मत्त अवस्था में, विक्षिप्त, अर्ध विक्षिप्त अथवा अमूढ़ अवस्था में दान देना निषेध है ॥ 

 दान देवन जोग कौन, आप धातृ संधानि । 
मात,पिता पालक अन्य, देवन अनुमति दानि ।१३११। 
भावार्थ : -- दान देने का अधिकारी कौन हो जो अपना पालन पोषण करने में आपही सक्षम हो । एवं जो मात-पिता पालक अभिभावक अथवा अन्य द्वारा देने हेतु अनुमति दी गई हो ॥ 

टीका : -- भारतीय संविधान के वयस्कता अधिनियम के अनुसार जो अवयस्क है किन्तु अपना पालन-पोषण करने में सक्षम है वह अपने पालक/अभिभावक की अनुमति से ही दान करना चाहिए । जो वयस्क हैं किन्तु अपना पालन-पोषण करने में असमर्थ हैं क्या उन्हें दान करना चाहिए ? (जब दान शब्द ही सम्मिलित हो उसका तात्पर्य है कोई भी दान ) क्या इन्हें संज्ञान है कि धन कैसे अर्जित किया जाता है ? 

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

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जँह सुमिरन मैं हो मगन, भजमन भगवन नाम । 
भाब भगति में हो लगन, तँह धन के काम ।। 

रचे पद पत पदासीन, सुन्दर सुन्दर ठाम । 
जन जन हो जँह अधिपते, तँह तिनके का काम ।। 

हार अरथ हिय हार, जीतार्थ जन मन जीत ( 'मत'मत जीत)  । 
जग कल्यान अधार, हो जनहित में सब रीत ॥ 
करन जगन उद्धार, सेवापन के कर थाम । 
जँह सुमिरन में हो लगन, भजमन भगवन नाम ॥ 

बर बरासन स्थाप, बिराजे नयन सों दूर । 
धूरे धूरे आप, भगवन भरि धूरिहि धूर ॥ 
प्रभुवन निलयन  ताप,तू सीतल सीतल श्राम । 
भाव भगति मैं हो लगन, तँह तिनके का काम ॥ 

बाहिर घन अँजोर, अंतरतम घन अंधेर । 
बाहिर पलक पछोर, अंतर मह मल के ढेर ।। 
कुल नामावलि छोर, धारे निज सौ उपनाम । 
भाव भगति मैं हो लगन, तँह तिनके का काम ॥ 

पलक पछोर = जिसके धूल के महीन कणों को पलकों से झाड़ा जाए उसे पलक पछोड़ कहते हैं 

----- ॥ दोहा-पद॥ -----

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स्वतंत्रता चिंघाडी, जगि द्रोह की ज्वाल । 
चमक उठी फिर अँधियारि, जले चिता में लाल ।१३६५। 

स्वत्व यहाँ मेरा कह मुखर हुवा जब मौन । 
सत्ता बोलि क्या कहा,  बता कि है तू कौन ।१३६६। 

फिर घूर गरज कर बोलि, यहाँ मेरा नियंत । 
रह भारत मेरा दास तू जीवन पर्यन्त ।१३६७ । 

मंत्रपटु शव साधन किए, मारे ऐसा मंत्र । 
कसी रही पग बेड़ियाँ, मिला नहीं स्वातंत्र ।१३६८। 

हे जन हे जगद्जीवन तू सिंहासन योग । 
व्यवस्था कब तक सहे, तेरा वियुग वियोग ।१३६९। 

----- ॥ उत्तर-काण्ड १५॥ -----

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गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                               

पुनि दूइ दल रन करमन भीरे । भीरत जस दूइ घन गम्भीरे ॥ 
चरत गगन अस सायक सोई । जस धारा धर बाहक होही ॥ 

सौतत सैनिक होवत सोहें । हरीस कुस के सौंमुख होहें ॥
बढ़इ बाहु बल दिए लंगूरे । परइ धरा पद उराइ धूरे ॥ 

एक पल कुस दिसि धुंध धराई । निकसत धनु सर इत उत धाईं ॥ 
कल कोमल करताल मलियाए । निर्झर जर सन परम पद पाए ॥ 

हटबत सुभट कहरत भू गिरे । को इत तिरे कोउ उत तिरे ॥ 
उठइ धरा पुनि धाए  सुभट्टे । दोउ भाइ मुख मारि झपट्टे ॥ 

पुनि कर्नी कारन लौ लग, कुस कास कोदंड । 
चरत तरत सरत सल्लग, करत प्रघोष प्रचंड ॥ 

मंगलवार,२२, अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                            

पुनि तेहि कंठ करकन कैसे । कुलिस कुलीनस घटघन जैसे ॥ 
खैंच करन लग सरित सरासन । ऐंच नयन सर चरित सनासन । 
फिर (संरक्षक हो रन भूमि में उतरते ही) उसका गला कैसे गर्जा जैसे जल युक्त घने बादलों का साथ प्राप्त कर बिजली गरजती है ॥ फिर सुग्रीव ने  धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खिंच कर तिरछे लोचन कर सनासन की ध्वनी करते तीर छोड़े ॥ 

उपार उपल सैल अनेके । धाए कुस सों भुज दंड लेके ॥ 
किए खंडन तिन कुस एक साँसे । खेलत उदयत हाँस बिहाँसे ॥ 
अनेकों शिलाओं और पत्थरों को उखाड़ कर अपनी भुजाओं में लिए कुस की ओर दौड़े ॥ जिन्हें कुश ने हँसी-खेल में  एक ही  स्वांस में खंडित कर दिया ॥  

सुग्रीव बेगि बहुस बिकराला । धरे कर एक परबत बिसाला ॥ 
कुस लखित कर लाखे लिलारे । औरु सबल ता पर दे मारे ॥ 
फिर सुग्रीव ने अत्यधिक भयानक एक विशाल पर्वत लिया, और कुश को लक्ष्य कर उसके मस्तक को लक्ष्य चिन्ह कर पुरे बल के साथ उस पर दे मारा  ॥ 

दरसत परबत निज सों आने ।  कुस कोदंड बान संधाने ॥ 
करत प्रहार कारि पिसूता । भसम सरुप किए बस्मी भूता ॥ 
जब कुश ने उस पर्वत को अपनी ओर आते देखा तो तत्काल ही धनुष में बाण का संधान कर उस पर्वत पर आघात कर उसे चूर्ण कर
उसे  (महारूद्र के शरीर में लगाने योग्य) भस्म के सदृश्य करते हुवे, नष्ट कर दिया ॥ 

देख कुस कौसल सुग्रीव, भयउ भारी अमर्ष । 
बानर राउ मन ही मन, किये बिचार बिमर्ष ॥ 
कुश का ऐसा रन कौशल देख कर वानर राज सुग्रीव को अत्यंत क्रोधित हो गए । तब  वानर राज मन ही मन रन की भावी नीति कैसी हो, इस पर विवेचन करने लगे ॥  

बुधवार, २ ३ अक्तूबर,२ ० १ ३                                                                      

जोइ जान रिपु लघुत अकारी । सोइ मानत भूर भइ भारी ॥ 
किरी कलेबर जिमि लघुकारी । पैठत नासिक गरु गज मारी ॥ 

लघु गुन लछन इत लिखिनि लेखे । नयन पट उत गगन का देखे ॥ 
सुग्रीव के कर क्रोध पताका । प्रहरत बहि सन गहन सलाका ॥ 

एक तरुबर दरसत कर तासू । धावत मारन कुस चर आसू ॥ 
नाम बान लइ बरुनइ धारा । पथ प्रसारित कुस बिपुल अकारा ॥ 

चहूँ पुर दिग सिरु घेर हरीसा । कसा कास के बाँधि कपीसा ॥ 
बलबाल के कमल कर कासे । बँधइ सुग्रीव कोमली पासे ॥ 

होत असहाय नृतू निपाते । दरसत तिन भट भागि छितराते 
बहुरि बटुक सह लव कुस भाई । हर्ष परस्पर कंठ लगाईं ॥ 

लखहन बरखन पर, अंगन रनकर, संस्फाल फेट फुटे । 
बल दुई बर्तिका, जस दीपालिका, तस भाई दुई जुटे ॥ 
संग्राम बिजय कर, सिया के कुँवर, कमलिन कर कलस धरे । 
बाजि दुंदुभ कल, नादत मर्दल, धन्बन ध्वजा प्रहरे ॥ 

----- ॥ हमर राष्ट ॥ -----

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"मतदाता एवं मतग्रहिता की जीवनशैली समान रूप से द्रष्टिगत होना ही 'समानता'की वास्तविक एवं
संवैधानिक परिभाषा है जो की एक उत्तम लोकतंत्र का महत्वपूर्ण लक्षण भी है "

"लोकतंत्र आधुनिक या कलिकाल की परिकल्पना है, जो समानता एवं समदृश्यता के सूत्र पर ही आधारित है, विद्यमान कल में अधिकतम राष्ट्रों ने इस तंत्र को अंगीकार किया है । किन्तु उक्त सूत्र कहीं दृष्टिगत नहीं होता । राष्ट्राध्यक्ष प्रासादों में सुशोभित हो रहे हैं, एवं जनता विपन्नता ( यहां विपन्नता की परिभाषा व्यापक है)  से ग्रसित है"

तात्पर्य है की : -- "श्रेष्ठ उपकरण से ही कार्य सिद्ध नहीं हो जाता, श्रेष्ठ उत्पादन भी होना चाहिए "


"विद्यमान सत्ताधारी दलों का ध्येय केवल  मात्र 'सत्तासुख'अर्जित करना अथवा सत्ता सवारी हेतु अपने अवसर की प्रतीक्षा करना भर है,'मतलोलुपता'के अतिरिक्त इन दलों को आमजन व जनतंत्र से कोई अन्य सरोकार नहीं है"

सभी राष्ट्रों के जनसामान्य को अपने जन संचालनतंत्र  एवं उसके  संवैधानिक स्वरूप का आकलन एवं समुचित समीक्षा की सतत आवश्यकता है.....





----- ॥ जल ही जीवन है ॥ ----

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भारत एक जन एवं जीवसंख्या बाहुल्य देश है, जल ही जीवन है और इस जीवन पर सभी निवासियों का अधिकार है ।  नदियां पेय जल की प्रमुख स्त्रोत हैं । अधुनातन इसकी अनुपलब्धता को दृष्टिपात कर पर्यावरण की रक्षा करते हुवे पारिस्थितिक- तंत्र  का चिंतन कर जल- संरक्षण हेतु एक कठोर नियम का उपबंध करना  परम आवश्यक हो गया है..,

>> नदियां जीवन दायिनी स्वरूप में सभी धर्म एवं वर्गों की आदरणीया रही हैं..,

>> एक ग्राम  में केवल श्याम के लिए  नियन उपबंधित नहीं किया जाना चाहिए, अपितु यह  समस्त ग्रामीणों हेतु होना चाहिए उसी प्रकार केवल माँ गंगा जी के लिए ही नियम उपबंधित नहीं होकर नदियों पर किया गया नियम उपबंध व्यापक अर्थ उत्पन्न  करता है..,

>> सर्वप्रथम उद्यम एवं उपक्रमों के उत्सर्जित मल-मूत्र को  प्रतिबंधित करना चाहिए  यह प्रमुख प्रदूषण-स्त्रोत है उद्यमों एवं उपक्रमों को  अवशिष्ट का  पुनर्चक्रीकरण कर उसमें निहित जल का पुनरोपयोग हेतु परमार्श देना चाहिए जो वाष्पीकरण विधि से संभव है..,

>> इसके अतिरिक्त अन्य प्रदूषण-स्त्रोतों को समाज के  लोगों द्वारा जनजागरण अभियानद्वारा उसकी  रोकथाम करनी चाहिए,

>> शासन को चाहिए कि वह नदियों के प्रदुषण को दंडनीय अपराध घोषित कर उस पर कठोर दंड के सह अर्थदंड का प्रावधान करे 

----- ॥ उत्तर-काण्ड १६ ॥ -----

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शुक्रवार, ०४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                       

चरन सरन एक एक दुग्नाया । सान धरत मुख सधत सवाया ॥ 
ठारि धारि सब दरसत सोई । हलबल कल कोलाहलु होई ॥ 
कसौटी में कसा हुवा उन बाणों का मुख लक्ष्य को सवा गुना साधता और उसके पथ पर चलते हुवे एक एक बाण,दोहरे हो जाते ॥ 
सैनिक स्थिर स्वरुप में बस उन्हें देखते ही रह जाते । उनके चलने से हलचल मच गई, वातावरण में कोलाहल सा भर गया ॥ 

ध्वजन प्रहरत पत पत फड़के । बिटप ह्रदय बहु हहरत धड़के ॥ 
खग मृग मग जे बिपिन बिहारे । धावत डरपत चढ़े पहारे  ॥ 
हावा में प्रहरते हुवे पत्ते फड़फड़ाने लगे । वृक्षों के ह्रदय कांपते हुवे धड़कने लगे । विपिन विहारी पशु-पक्षी भयभीत होकर भागते हुवे पहाड़ियों पर चढ़ बैठे ॥ 

सत्रुहन अब लग मूर्छा छाइ ।  ऐतक बेर मह भई दुराइ ॥ 
रन कारिन दल दसा बिलोके । तब तिन मुख भा लाल भभोके ॥ 
शत्रुध्न के चित्त जो अब तक अचेत था । इतने समय में वह अचेतना दूर हो गई ॥ जब उन्होंने अपने वीरों एवं सैनिकों की गति का अवलोकन किया तब उनका मुख क्रोध से लाल हो गया ॥ 

भाँवर भुइँ जब भइ सिध गीवा । क्रोधि क्रान्त के रहि न सींवा ॥ 
कारत मुख मुद्रा बिकराला । घनके जिमि घनकत घन काला ॥ 
समस्त रन क्षेत्र का भ्रमण कर जब उनकी ग्रीवा सीधी हुई । तब उनके क्रोध और आक्रान्त सीमाहीन हो गए ॥ तब उनका मुख भयानक स्वरुप में ऐसे गरजने लगा जैसे काले ग्बादल गरजना करते हों ॥ 
जिन सर लवनासुर हते, तिन्ह सरिद संधान । 
सत्रुहन कर्खन धनुर्गन, लेइ करन लग तान ॥ 

शनिवार, ०५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                       

बान भयंकर दंस कराला । जस जम के मुख बिकराला ॥ 
छूटत तरस दस दिग ज्वाला । करत प्रकासन तम घन काला ॥ 

लव लाल लोचन जब तिन देखे । भ्राता कुस मन सुमिरन रेखे ॥ 
भ्रात बलइ बल लागिन लागहि । देख बान जिन बिपरित भागहि ॥ 

छन ठहरत लव सोच बिचारे । रन बाँकुर कुस भ्रात हमारे ॥ 
एहि बयस तिन्ह रहत सहारे । तौ मैं लैंते सकल सँभारे ॥ 

दन्तक तर दर दारुन दाई । चित हतप्रभ तब रहत न छाई ॥ 
भ्राता कुस के सह्सथ हीना  । सत्रुहन सर किए मोहि अधीना ॥ 

पुंग पुच्छल पुंख पवन, अटन रवन रन राध । 
लसनत लव नलिन निलयन ,लखहन दिए लखभेद ॥ 

रविवार, ०६ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                             

काल अगन सम बान भयंकर । घात खात तिन लै निलयन पर ॥ 
समर सूर लव भए गत चेतन । ग्रहत गहन गिर परे माझ बन ॥ 
काल अग्नि के समान भयंकर बानॉन को आघात ह्रदय में लेकर तब समरमूर्द्धन लव अचेत होते हुवे उन बाणोनों को गहरे ग्रहण कर रणभूमि के मध्य गिर पड़े ॥ 

खलन दलन दल बादल गंजन । मूरछा मई दरसत सत्रुहन । 
नीति कुसल सिखिताजुध जाने । रन बलबन निज बिजइत माने ॥ 

घटाटॉप ससि सीस सजाया । सुरमइ रूप सोंह रघुराया ॥ 
सत्रुहन तिन ले रथ बैठारे । लै जावन तँह सोच बिचारे ।। 

दरस बट मित्र सत्रुहन अधीना । जे दरसन तिन बहु दुःख दीना ॥ 
बहुरि तेइ बात गवन तुरंते । लव मातु जेइ देइ उदंते ।। 

कहे अस मातु जानकी, लिए लव लाल तुहार । 
कौनु राउ के बाजि गहि ,बाँधे तरु बल कार ॥ 

सोमवार, ०७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                             

राजाधिराज धरे धारि बृहद । अरु अहहिं तिन्ह बहु मानद मद ॥ 
गहत बाजि भै जुद्ध भयंकर । एक पुर तव लव एक धारिहि बर ॥ 

पर हे मात कर पुत तुहारे । एक एक जोधिक गवने मारे ॥ 
बहुरि बहुरि ते लरन अवाई । बार बार लव भै बिजिताई ॥ 

लव राजनहू किए गत चेतन । औरु पाए जुद्ध मह महा जयन ॥ 
तदनंतर किंचित बिलम्ब पर । राऊ के मुरछा भइ ओझर ॥ 

जब राऊ गत चेत बिजोगे । तिन के मुख दृग दरसन जोगे ॥ 
अतिसय क्रुद्ध कर कारे पतन । भए गत चेतन तव पुत भू रन ॥ 

बोलइ सीते दुःख धरि भीते आह राउ का भए निठुरे । 
सो बालक सन रन कारि कवन, अधर्म तस मति बहुरे ॥ 
मम लरिकाई किए धरासाई रे बालक किमि कहु तौ । 
किए पतन कवन लरत बाल सन अब गवने कहँ रउ सों ॥  

जब पतिब्रता सिय बटु सों, कहि रहि ऐसन बात । 
आए बीर बर कुस त्यों,मह रिसि गन साथ ॥ 

मंगलवार, ०८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                          

भइ अति बिकल भर लोचन बारि । दरसइ तिन्हन सिया महतारि ॥ 
तब लव आपन जनि सन बादे । मम सों सुत अरु जे अवसादे ॥ 

कहु कँह मर्दरि मोरे भाई । समर सुर सों दी न दिखाई ॥ 
गए कहूँ भँवरन कतहूँ बिहारी । तुम्ह रुदन करि को कर कारी ॥ 

कही जानकी रे मम बच्छर । सुनि मैं गहि लव को के हय कर ॥ 
हय रहि को नृप जग्य प्रसंगे । इँहा अवाऍ बहु रछक संगे ॥ 

जदपि बाहु लव बहु बरिआरे  । सों एक अनेकारि रन कारे॥ 
तदपि ते बिक्रमी दिए हँकारे । बहुस रछक तिन सन लर हारे ॥ 

जे सन गए ते बटुक बहुराए । फेर बाँधत सब बात बताए ॥ 
रे ललना तुम समउ पर आए । गवनउ लवनउ लवनु परिहाए ॥ 

हे जनि जे तुम लौ जान, कहत कुस करे आह । 
लव परिहत गत मैं लान, बंधन मोचित लाह ॥ 

बुध /गुरु , ०९ /१० अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                           

अजहूँ गवन लव मैं तिन नाहू  । बाहि अनी लखहन लख लाहू ॥ 
अमर देव दहूँ सों अरु कोई । चाहे सोंमुख रुद्रहू होई ॥ 

तथापि तिन तिख तर परिहारे । करत तिलछ लहूँ लव तिहारे ॥ 
सुनउ तनिक अरु मोरी माई । रुधत रुदन उर दुःख परिहाई ॥ 

कलि भू जिनकी दीठत पीठे । लगि लाछन तिन पीठहि दीठे ॥ 
जिनकी गति रन कारण होई । पावत परम बीर पद सोई ॥ 

रन कारिन के जस रन कारन । मरनी मारन में रजतंतन ॥ 

मुने कुस के बचन श्रवन, धरि धीरज लवलेस । 
भइ मुदित सुभ लखिनि सिया, कथनत भगवन सेस ॥ 

भाल धनुर धर आयुध नाना । देइ सुत सिस असीस बरदाना ॥ 
कहत सिया पुटी अब तुम गवनौ । कटक बंध लव लेइ लवनौ ॥ 

अस श्रवनत कुस धर कोदंडे । कासित कटि भाथा सर षंडे ॥ 
गुरुबर बिदिया चेतस धारे । भए धन्बिन धनु गुन टंकारे । 

छेप धुनी धन्बन बिस्तारे । देउ नाथ कर जोर पधारे ॥ 
सुमनस जल कण करतल धारे । सिया कुँवर के चरन पखारे ॥ 

बंदन करत झरत जल धारे । बूंद बूंद कंठन गुन्जारे ॥ 
केसरि कंधर उर मनुहारी । लोचन पथ अस जस सर चारीं ॥ 

लाल लवन लक तिलक ललाटे । त्रस रजस परिपाटलित पाटे॥ 
मनि कान्त मुख तनि मुसुकाने । मानहु रघुकुल गाथ बखाने ॥ 

सारंगा सुन्दर, पाटन परिकर कमनइ कुस कटि कस्यो । 
सर सर सिख साखा, सूल सलाका,लाहन लोहन लस्यो ॥ 
बनबासी भेसा, कुंडल केसा, रूप सम्पद रस रस्यो । 
पावन पत पितरक, तेज नयन नक्, रघुबर मुख छबि बस्यो ॥  

रघुकुल तिलक नौ दीपक, नौ नयनाभिराम । 
नौ अभिजनभिवादन कर, जलकन लेइ बिश्राम ॥  


बुधवार, २ ५ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

मात गुरु मुख सुभ आयसु पाए । काया कवच कल सकल सजाए ॥ 
पंकज पद रज सिरौ धराए  ॥ बेगि बहस कुस रन भू पयाए ॥ 

बहोरि कुस रन कामिन कारी । रंग रनक चक चरनन धारी ॥ 
आत भ्रात दिसि लव चौंकारे । मनहु पवन सह पा पौ जारे ॥

कसमसन रसन बंधन छड़ाए । रथ सन लव रन भूमि निकसाए ॥ 
नय कोविद कल कौसलताई । गुरुबर दिए कर दोनउ भाई ॥ 

एक पुर कुस के तिछ्नत बाने । दूज पुर लव के सूलक साने ॥ 
सूर सकल जस उदल तरंगे । सागर सम भट भँवरित भंगे ॥ 

उत सेन सूर श्री राम रघुकुले । इत लव कुस रन रनक संकुले ॥ 
दो रन बाँक़ुर अस कल बादे । जस घन घाँ घाँ घनकन नादे ॥ 

राज रजोकुल पत के सैने । धनुर बान के मुख सन बैने ॥ 
दोनउ पुर बढ़ करकएँ करखें । चरत बान जस बरखा बरखे ॥ 

दोउ भ्रात धनु तर अस तरितें । घन घर जस छनु छबि अवतरिते ॥ 
छन छन जल कन छीनक छनिते । धारिन तस छत बंत छितरिते ॥ 

महरथी समर संग्राम, सूर बीर भरि सैन । 
एक सन एक रन बांकुर, सह रथ बड़ धनु बैन ॥  

जिनके चितबन ऐतक तीखे । भेद लखित लख लखहन दीखे ॥ 
तपित तपोबन तन कर कासे । कोटिक केतु किरन संकासे ॥ 

पीताम्बर बर बेस मुनिसा । रचित कुंडल कल केस कुलिसा ॥ 
भाल भँवर भरि धारिन अंके । मनु धारा धर धारिहि बंके ॥ 

कटक कटक कृत त्रिसूलाकारि । तूर तेज त्रस तेजनक धारि ॥ 
तिनके कासि कसा कोदंडे । कही न जाए तिन्ह गुन षंडे ॥

सूल सिखर सर लाहन लाहू ।  जँह तँह परत दिग बली बाहू  ।। 
आवइ सौंमुख जे सर कोई । छिनु भर मह ते छलनी होई ॥ 

बलइ बली मुख बालि कुमारा । सर निकर तिन्ह कंदुक कारे ॥ 
चराचर कर नभस दुआरे । कबहु उछारें कभु पट्कारें ॥ 

चरत सतत अस सर जर धारा । धन्वन सन जस तरत अँगारा ॥ 
सुभट सुरथ सथ महि महबीरे । भए छतवत हत महि मह गीरे ॥  

बालि तनय जस रन सूर, जिनके चरन अटेर । 
तिन सिया के रन बाँकुर, किए छिनु भर मह ढेर ॥ 

रन चरन गहन धूरि धर, दिए गगनाँगन रंग । 
कारि कंठन कलरव करि, दिसि गोचर मुख अंग ॥  

गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                               

पुनि रन कंठन करकत कैसे । कुलिस कुलीनस रवरत जैसे ॥ 
खैंच  करन लग सरित सरासन । ऐंच नयन सर चरित सनासन । 

दूइ दल हन रन करमन भीरे । जूझत जस दुइ घन गम्भीरे ॥ 
चरत गगन अस सायक सोई । जस धारा धर बाहक होही ॥ 

हटबत सुभट कहरत भू गिरे । को इत तिरे कोउ उत तिरे ॥ 
उठइ धरा पुनि धाए  सुभट्टे । दोउ भाइ मुख मारि झपट्टे ॥ 

पुनि कर्नी कारन लौ लग, कुस कास कोदंड । 
चरत तरत सरत सल्लग, करत प्रघोष प्रचंड ॥      






रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

पुनर लव कर सर धनुर धरिते । लख़त लोचन लख भेद लहिते ॥ 
एक पुर लव एक पुर पितु षदना । सेन रसन जस बसि मध् रदना ॥ 

महरथी समर संग्राम, सूर बीर भरि सैन । 
एक सन एक रन बांकुर, सह रथ बड़ धनु बैन ॥  

सोमवार,३० सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                      

नाम राम रघु नायक धारी । नानायुध रथ बाहि सँवारी ॥ 
तेइ सेन तब हाहाकारी । सौंतुख परि जब दुइ सुत भारी ॥ 

दोइ दृग दीठ रहि सर जूथा । तिलक तेज तिन सूल बरूथा ॥ 
एक बार जेइ दिसा निहारे । डरपत सुभट कवच कर धारे ॥ 

उरस उदर जब लागन भागे । समर सूर तब भागन लागें ॥ 
पूँख पर बट सुभट घर बूझे । का कहि तिन्ह कछु नाहि सूझे ॥ 

कहित पवन सन पूछ बुझाईं । पवन लछन सुत तिन पद नाईं ॥ 
रन कारन आँगन बैसे । देखु दुइ पुर एके कुल कैसे ॥ 

दिग कुंजर सर पुँज पलक, दिसा सिखर बर सूल । 
चारि चरन चर कुञ्ज घर, धरे मात पद धूल ॥  

छन खलदल गंजन दुःख दाई । सत्रुहन राजन सों बढ़ आईं ॥ 
सोंहत रहि जे लवहु समाने । तिन कुस सन रन कारन आने ॥ 
इसी समय दुष्टों के दल वीरों को ताप देने वाले राजा शत्रुध्न आगे बढ़े और भ्राता लव के सदृश्य ही प्रतीत होने वाले वीरवर कुश से युद्ध करने हेतु उसके सम्मुख आ गए ॥ 

पाहि पैस के पूछे सोईं । हे महाबीर तुम को होई ॥ 
काइ कलेवर तुहरे रूपा । भान देइ निज भ्रात सरुपा ॥ 
समीप पहुँच कर  उन्होंने  पूछा : -- महावीर ! तुम कौन हो ? तुम्हारा आकार-प्रकार और रूप आकृति से तुम अपने भ्राता लव क्जेसे प्रतीत होते हो ।। 

तव भुज दल अतुलित बल धामा । कहु तौ का तुहरे सुभ नामा ॥ 
को तव जने तुम्ह किन जाता । कँह तव जनि कँह जनिमन दाता ॥ 
तुम्हारी भुजाएं अतुल्यनीय बल का धाम हैं । कहो तो तुम्हारा सुभ नाम क्या है ।। वो कौन हैं ? जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया, तुम किनके पुत्र हो ? तुम्हारी माता कहां है ? तुम्हारे जन्म दाता कहां हैं ? 

कहत कुस सोइ मात हमारी । पति ब्रता धर्म पालन कारी ॥ 
श्री सीता सुभ जिनके नामा । जन्मे हम तिन गर्भन धामा ॥ 
कुश ने कहा : -- जो पातिव्रता धर्म का पालनकरने वाली है वह हमारी माता हैं ॥ सुश्री सीता जिनका शुभ नाम है । हम उन्हीं के पावन गर्भ धानी से जन्में हैं ॥ 

गुरु बाल्मिक पद बंदत, कारत सेवहि मात । 
एहि सघन बिपिन मह रहत, हम दोउ यमज भ्रात ॥ 
महर्षि गुरु वाल्मीकि के चरणों की वंदना कर तथा माता की सेवा में अभिरत हम दोनों युगल ब्भारा इसी सघन विपिन में ही रहते हैं ॥ 

शनि/रवि १२/१३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                              

प्रथम गुरु भई हमरी माई ।  जे धरे कर चरन सेखाईं ॥  
हमरे गुरु मह रिसि बाल्मीकि । देइ सब बिधि बल बिद्या नीकि ॥ 
प्रथम गुरु स्वरूप में स्वयं हमारी माता हैं, जिन्होंने हाथ पकड़ कर हमें चलना सिखलाया ॥ और जिन्होंने सभी प्रकार की सुन्दर विद्या का बल दिया वे गुरुवर महर्षि वाल्मीकि हैं ॥ 

तिन कर भए हम परम प्रबीने । सकल लखन गुन तिनके दीने ॥ 
भ्राता लव अरु कुस मम नाऊ । कहु तुम को का तव परिचाऊ ॥ 
जिनके कारण हम कुशल कोविद हुवे ये समस्त शुभ गुण एवं शुभ लक्षण जिन्हुन्ही की देन हैं ॥ हमारे भ्राता का नाम लव है और हमारा कुश है । अब कहो तुम कौन हो ? तुम्हारा परिचय क्या है ? 

समरथ सूर बीर जुजुधाना । दिए दरसन तुहरे मुख भाना ॥ 
बयसय जवनय हय जे सुन्दर । कहु तिन्ह इहाँ छाड़े को कर ॥ 
तुम्हारा श्री मुख के दर्शन से तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम एक समर्थवान सूर वीर योद्धा हो ॥ कहो वय वर्द्धित तीव्रवान इस सुन्दर घोड़े को तुमने यहाँ किस कारण से छोड़ा है ॥ 

दरसन मह लागहु बरिआरे । कारौ रन पुनि संग हमारे ॥ 
तीर तुरावइ छन उर धारों । तुदन तुम्ह कौ तीरित कारों ॥ 
देखने में तुम बहुंत बलशाली प्रतीत होते हो । यदि ऐसा है तो फिर मेरे साथ युद्ध करो ॥ तीव्र गति से चलने वाले तीरों को मैं अभी तुम्हारे हृदय में उतार कर तुम्हारा कार्य समाप्त कर दूँगा ॥ 

जे सिय राम रजस जात, सत्रुहन जब ते जान । 
तिन चितब ए चितबत बात, कौउ भाँति ना मान ॥ 
ये ( युगल पुत्र ) सिया रामचन्द्र के रजस से उत्पन्न हुवे है, जब शत्रुध्न ने यह जाना । यह स्तब्ध कर देने वाली बात को शत्रुध्न के चित्त ने किसी प्रकार से भी स्वीकार नहीं किया ॥ 

रन हूँत तर्जित जातक दोई । जेहि कारन धरे धनु सोई ॥ 
जब कुस दरसे तिन धनु धारे । खैंच रोख के रेख लिलारे ॥ 
चूँकि इन जातकों ने उन्हें रन हेतु ललकारा था ।इस कारण  शत्रुध्न ने धनुष धारण किया ॥ जब कुश ने उन्हें धनुष धारण करते हुवे देखा । तब उसके मस्तक पर क्रोध की रेखाएं अंकित हो गई ॥ 

सूल सरि सर कठिन कोदंडे । गहत हस्त तल तार प्रगंडे ॥ 
धरत बरत बर बाण बिताने । काषत कासि करन लग ताने ॥ 
 फिर कुश ने अपने कंधे से शूल के सदृश्य बाण और कठोर धनु को उतार कर हाथों में ग्रहण किया ॥ और धनुष गण पर बाण को साध कर प्रस्तारित करते हुवे अपनी मुष्टिका में कसते हुवे उसे कर्ण तक तान लिया ॥ 

बहुरि दोएँ संधानत चापे । आन आन बन बान ब्यापे ॥ 
दरसत धनबन लखहन लाखे । जे दरसन बहु बिस्मइ राखे ॥ 
फिर दोनोब छोर के संधानित धनुष से बाण आ आ कर बन भूमि ( जो कि रन भूमि में रूपांतरित हो चुकी थी ) में व्याप्त होने लगे ॥ आकाश में लाखों बाण दर्शित होने लगे यह आक्शीय दर्शन अत्यधिक विस्मय कारी था ॥ 

ते काल रन उद्भट कुस क्रुधे । किए प्रजोग नारायनाजुधे ॥ 
सत्रुहा पतहु बहु बिक्रम होई । यह आयुध हत सके न सोई ॥ 
उसी क्षण रन उद्भट  कुश कुपित हो उठा । और उसने नारायण आयुध का प्रयोग किया ॥ शत्रुधन की पद प्रतिष्ठा भी बहुंत ही पराक्रमी थीं  अत: यह आयुध उन्हें बाधित करने में असफल हुवा ॥ 

ए सोचत भए अधीर, करिअ कुँवर कोप असीँव । 
बिक्रमी मह बलबीर, नृप सत्रुहन सों कहे ॥  
ऐसी विवेचना कर अधीर होते हुवे सिया कुंवर कुश के क्रोध की सीमा नहीं रही । महाबली, महावीर,महा पराक्रमी राजा शत्रुध्न से कहे : -- 

सोमवार, १ ४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

हे मह राऊ यहू मैं जाना । तुम बर रन बादिन मैं माना ॥ 
कारन जे मम अजुध भयंकर । भए असमर्थ तव बिधन तनिकर  ॥ 
हे महाराज मुझे इस बात का तो संज्ञान हो गया है, और में मानता हूँ कि तुम श्रेष्ठ योद्धा हो ।  इएसे संज्ञान और मान का कारण यह है कि  मेरा यह भयंकर आयुध तुम्हारा अल्पांश प्रतिरोध करने में भी असमर्थ रहा ॥ 

तदपि एहि छन मैं लै त्रिबाना । करुँ पतत इह लीला बिहाना ॥ 
जे मैं तव अस बयस न कारूँ । तो तुम्ह सोंह किरिया पारूँ  ॥ 
तथापि मैं इसी क्षण त्रयबाण लेकर पतन करते हुवे तुम्हारी इह लीला समाप्त कर दूँगा ॥ यदि मैं तुम्हारी ऐसी
अवस्था न करूं तो आज तुम्हारे सम्मुख यह प्रतिज्ञा करता हूँ : -- 

चह कोटिक कृत कारित कोई । मनुख जोनि तिन लब्ध न होई ॥ 
ते जोनि जोइ पावन हारे । मोह बस करि न तिन सत्कारे ॥ 
चाहे कोई करोड़ों सुकृत्य कारित करे फिर भी यह मनुष्य की योनि उसे प्राप्त नहीं होती । और इस योनि के प्राप्त कर्त्ता माया मोह वश इसका आदर नहीं करते॥ 

 ऐसे नर जे पातक लागी ।तिन सौंतुख भयऊँ मैं भागी ॥   
अस कहबत कुस मुख धुँधकारे । भेद धुनी धन्बन बिस्तारे ॥ 
ऐसी जीवात्माँ जिस पाप से बाधित होते हैं उन्ही के समरूप मैं भी उसी पाप का भागी बनूँ ॥ ऐसा कहते हुवे कुश के मुख ने गर्जना की । जिसकी गुंजार गगन को भेदते हुवे चारों और प्रस्तारित हो गई ॥ 

लावन बदन ललित लोचन, लाहत लाल अँगार । 
मनहु मानस मुख मंजुल, कमल मुकुल मनियार ।। 
मनोहारी मुखाकृति,सुन्दर लोचन, उसपर क्रोध की लालिमा  । मानो मुख रूपी सुन्दर मान सरोवर में अंगार रूपी अध् खिले कमल शोभायमान हो ॥ 

मंगलवार, १५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

चेतत गुरु पुनि कुस लिए चापे । परस भाल मुख मंतर जापे ।। 
अरु कहि राजन अब मैं नेते । आपन काल कल्पत सचेते ॥ 
तत्पश्चात अपने गुरु का ध्यान कर, कुश ने धनुष लिया, फिर धनुष को मस्तक से स्पर्श करते हुवे दीक्षा प्राप्त मंत्र का जाप किया ॥ और कहा हे राजन अब मैने यह निश्चय कर लिया है अत: तुम अपने काल की कल्पना कर सावधान हो जाओ ॥ 

कारूँ  पतन तव में तत्काला । बाँधउ बल सन बान ब्याला ॥ 
हे धन्बिंन कह सत्रुहन भासे । छाँड़ौ लखहन बदन बिहासे ॥ 
मैं तुम्हें इन सर्प सदृश्य बाणों से बांधकर तत्काल ही तुम्हारा पतन करता हूँ, ॥ तब शत्रुहन ने मुस्कराते हुवे ( व्यंग पूर्वक) ऐसे वचन कहे - हे धनुर्धारी ! 'बाण चलाओ'॥ 

सत्रुहन हरिदै भवन बिसाला । तरत सारँगी नीरज माला ॥ 
तमकि ताकि कुस तीर बिताने । मुकुलित मुख प्रफुरित मुसुकाने ॥ 
तब शत्रुध्न के विशाल वक्ष, जहां कि नाना वर्णों से युक्त स्वेद कणों की मुक्तिक मालाएँ उतर रही थीं को उद्वेग सहित ध्यान पूर्वक एखाते हुवे कुश ने बाण प्रस्तारित किया ,उस समय कुश के अध् खिले मुख पर एक मुस्कान खिल गई ॥ 

बाहु दल दृग जोजित काँधे । लखत लखनक लख सीध बाँधे ॥ 
काल अनल फल बान कराला । छुटै प्रथम सों कनक ज्वाला ॥ 
कंधे, दृष्टि एवम भुजाओं को की युक्ति से लक्ष्य चिन्हों को साधते हुवे देखा ॥ फिर कालाग्नि के सदृश्य भयंकर मुख वाले प्रथम बाण फिर चिंगारी के जैसे छूटा ॥ 

सत्रुहन लोचन कुस करत देख बान संधान । 
भए अतिसय कुपित तब जब, सर सर निज सों आन ॥ 
शत्रुध्न की दृष्टि ने कुश के बाण संधान करते हुवे देखा तब अत्यधिक कुपित हो गए जब सर-सर करता बाण उनकी ओर आने लगा ॥ 

बुध/गुरु, १६/१७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                             

प्रभु रघुबर सुध मानस मंते । आन बान सों घानि तुरंते ॥ 
भय कुस कुपित कटत नाराचे । अगन कण मुख भरकत नाचे ॥ 
तब प्रभु श्रीरामचंद्र जी का स्मरण कर शत्रुध्न ने मन ही मन मंत्रणा की । सन्मुख आते बाण को तत्काल ही नष्ट कर दिया ॥ बाण के नष्ट होते ही कुश क्रोधित हो उठा और उसके मुख पर क्रोध के अंगारे भड़कते हुवे नृत्य करने लगे ॥ 

सैलबान सल श्रिंग सलाका । सुधित सान सन लोहित लाखा ॥ 
लोहितेखन लख लौंक उठाई । बरत धनुर दूज बान चढ़ाईं ॥ 
पत्थर जैसे कठोर बाण जिनके फल शलाकाओं के समान तीक्ष्ण थे । और उस फल की धातु शान पत्थर की कसौटी पर लाखों बार कसे हुवे थे ॥ ऐसे बाणतूण लिए कुस ने जलती हुई आँखों से लक्ष्य को निहारा और धनुष उठा कर प्रत्यंचा में दुसरा बाण चढ़ाया ॥ 

छत कारन उर चरे प्रचंडे । चढ़े घात सत्रुहन किए खंडे ॥ 
पुनि कुस सुध जनि पदार्विंदे । धर धनुबर तिज सर लखि विन्दे ॥ 
तद उपरान्त तीक्ष्ण बाण प्रत्यंचा छोड़ कर शत्रुध्न के ह्रदय को घायल करने हेतु प्रस्थान किए । ताक में बैठे शत्रुधन ने उन्हें खंड खंड कर दिया ॥ फिर कुश अपनी जननी के चरण कमलों का स्मरण किया  और श्रेष्ठ कोदंड धारण कर लक्ष्य प्राप्त हेतु तीसरे बाण का संधान किया ॥   

तीख तीज तर धुरु उपर धाए । घानन्ह सत्रुहन चाप उठाए ॥ 
निकर निकर कर सर सर सरिते । गगन सरन जस किरन बिकरिते ॥ 
तीसरा तीक्ष्ण बाण उपरोपर दौड़ाने लगा, जिसे नष्ट करने के लिए शत्रुध्न ने धनुष उठाया 

तासु पूरब जे आए धिआना । भए पत भू हत लागत बाना ॥ 
लागत सर तन छतवंत कृते । बहुरी सत्रुधन भए मूर्छिते ॥ 
और इसके पहले कि उसे नष्ट करने का ध्यान आता बाण अपना लक्ष्य प्राप्त कर चुका था, जिससे शत्रुध्न हतवत होकर रण भूमि पर गिर गया ॥ 

हतत सत्रुहन रन परत पहुमी । परावत कटक चिक्करत धुमी ॥ 
तेइ समउ निज भुज बलवंता । समर बीर कुस भयउ जयंता ॥ 
शत्रुध्न घायल होकर रण भूमि गिर गए । ( यह देख) सेना में भगदड़ मच गई और वह चीत्कार करती रन भूमि में विचरने लगी ॥ 

कहत भगवन सेष मुने, सुरथ सिरौमनि बीर । 
रामानुज रन भू पतन दरसत भयउ अधीर ॥ 
भगवान् शेष जी कहते हैं हे मुने ! वीरों के वीर राजा सुरथ ने जब श्रीरामचन्द्र के अनुज शत्रुध्न का पतन होते देखा तब वे अधीर हो उठे ॥ 
रचित खचित चित अति बिचित्र, मनिमत रथ रतनार । 
 तापर तत्पर बिराजित, लिए रन भू अवतार ॥ 
और फिर अति अद्भुद रक्त वर्ण माणिक्यों से खचित, सुरुचित श्रेष्ठ रथ में विराज कर सुरथ तत्परतापूर्वक रन भूमि में उतरे ॥  

शुक्रवार, १८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                   

जिन कर केसर बाहिनि राधे । बढ़े कुस सौ रथ रस्मि साधे ॥ 
जोंहि सुरथ कुस सोंमुख पैठे । तोंहि थिरत रथ चरनन ऐंठे ॥ 
जिन हाथों से अष्ट भुजा धारी, वनराज वाहिनी, माता दुर्गा की आराधना की थी । उन्हीं हाथों से उस अद्भुद पच्चीकारी रथ की किरणों को साधे आगे बढ़े ॥ जैसे ही  राजा सुरथ कुश के सम्मुख पहुंचे वैसे ही  रश्मियों ने गतिशील चक्रों को  नियंत्रित करते हुवे ,रथ को स्थिर किया ॥   

छाँड़े पुनि पख पुंज अनेके । केर बिकल कुस चहुँपुर छेके ॥ 
सकुपित कुस तेहि लै दखीना । सार बान दस किए रथ हीना ॥ 
फिर राजा सुरथ ने  बाण संधान कर समूह के समूह छोड़े । और कुश को व्यथित करते हुवे उसे चारों और से घेर लिया ॥ इससे कोपित होकर कुश ने परिक्रमा करते हुवे दस बाण चला कर सुरथ को रथ हीन कर दिया॥ 

कठिन कोदंड कसि प्रत्यंचे । किए खंड खँडल सकल बिरंचे ॥ 
बिरथ सुरथ पथ दरसत कैसे । फुर फर पतहिन् को तरु जैसे ॥ 
फिर प्रत्यंचा कसा हुवा कठोर धनुष सहित सुरथ की समस्त साज सज्जा को खंड खंड कर दिया ॥ रथहीन सुरथ कैसा दिखाई दे रहा था जैसे वह कोई वृक्ष प्रसूनहिन् वृक्ष हो ॥ 

दोउ प्रबल अब सों पत राखे । लाखि परस्पर एक एक आँखे ॥ 
छाँड़त एक को अस्त्र प्रचंडा । बेगि दूज किए तिन तिन खंडा ॥ 
दोनों बलवान की प्रतिष्ठा अब एक सी हो गई । और वे एक दूजे को काट खाने लगे ॥ यदि कोई एक दिव्यास्त्र का प्रयोग करता तो दुसरा उसे शीघ्रता पूर्वक नष्ट कर देता ॥ 

एक को आयुध जुगत प्रहारे । दुज संहारत सह प्रतिकारे ॥ 
लै को बरछी भाल उछालै । किए भंजन दुज तिन तत्कालै ॥ 
एक कोई शस्त्र का प्रयोग करता दूजा प्रतिशोध के सह उसे लौटा देता ॥ । कोई यदि बरछी भाले उछालता तो दूजा उसे तत्काल ही खंडित कर देता ॥ 

एहि बिधि द्वी दल गंजन, हेति हत दुइ छोर । 
रोम हर्षक यहु दरसन, गोचर रन घन घोर ॥ 
इस प्रकार दोनों भारी वीर, दो छोरों से परस्पर आघात प्रतिघात कर रहे हैं । यह दृश्य अत्यधिक संकुल स्वरूप में  रोंगटे खड़े कर देने वाला है ॥ 

शनिवार, १९ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

अजहुँ कारौं का कुस बिचारे । कृत निज करतब निश्चय कारे ॥ 
ततछन धारत करधन गोईं । तेज भयंकर सायक सोईं ॥ 
कुस ने मन ही मन विचार विमर्श किया कि अब आगे कौन सी नीति वरण करूँ , फिर उसने अपने कर्त्तव्य करने का( जो की एक रन योद्ध का होता है ) निश्चय किया  और तत्काल ही उसने करधनी में खचित किया  हुवा एक तीक्ष्ण एवं भयंकर बाण को हाथों में लिया ॥ 

तासु दंत नख ब्याल सरिसा । छुटै छन घन काल कुलिसा ॥ 
तरत सुरथ सन्मुख अस धावैं । काल देव जस जिउते आवैं ॥ 
उस बाण के दन्त सिंह के नख के सदृश्य थे और वह घनी घटाओं से चमकती हुई बिजली के जैसे छूटा । सुरथ के सन्मुख वह तैरटा हुवा सा ऐसे गति कर रहा था जैसे मृत्यु का देवता यमराज ही स्वयं आ रहा हो ॥ 

 जोंहि तासु किए कटख प्रयासे । तोंहि महा सर उर गह धाँसे ॥ 
लगत गाँसी सुरथ हँकराई । अरु निपतत भयउ धरासाई ॥ 
जैसे ही सुरथ ने उसे काटने का प्रयास किया वैसे ही वह महा बाण सुरथ के हृदय में जा धँसा ॥ उस बाण का फल लगते ही सुरथ ने एक चिंघाड़ लगाई और  घायल होकर भूमि पर गिर पड़े ॥ 

सोइ सुरथ सुत बहि ले गवने । तासु पतन कर भए कुस जयने ॥ 
दरस ए दिरिस बलीमुख जोधा । धूनत जरत अगन प्रतिसोधा ॥ 
शयनित अर्थात मूर्छित सुरथ को उसका सारथी रन क्षेत्र से बाहर ले गया । उसका पतन कर कुस विजयित हुवा ॥ 
सुरथ की मूर्छा का दृश्य देखकर योद्धा वानर क्रोध वश कांपते हुवे प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगे ॥ 

 फरकत बजरागी अंग, प्रनदत किए घन नाद । 
गहु पुरब प्रसरे प्रसंग, तिनके परच प्रसाद ॥  
महाबली हनुमान के अंग भी फड़कने लगे और वे घन ना के सदृश्य गर्जना करने लगे । इससे पूर्व की यह प्रसंग आगे बढे महाबली बजरंग का परिचय-प्रसाद ग्रहण करते चलें ॥ 

गुरूवार २६ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                                   

तरु मृग मारुत सुत हनुमंता । किए जे पयोधि पार तुरंता ॥ 
बर कबहुक लघु रूप रचाईं । पठतइ निकसे मुख सुरसाईं ॥ 

कनक कोट के चमक चकासे । हट बट चौहट नगर निकासे । 
सैल सरि सर  लंका बनबारि। चित्र चितेर कर देइ  लंकारि ॥ 

पुनि परबत मह इंद्र उछंगे । पाट पयधि सत जोजन लंघे ॥ 
जामि घोष जाजाबर केरे । जामिन जब लंका पुर घेरे ॥ 

समर सूर गन घर घर हेरे । राम बोधिते आँगन घेरे ॥ 
हेर बिभीषन रावन भाई । तेइ परच सिय कथा बुझाईं ॥ 

माता सीता बन रह जहवाँ । मसक सरिस रूप गवने तहवाँ ॥                                                                 बेसत तरुबर मुँदरी डारी । राम नाम बर अंकित कारी ॥ 

प्रभु अंकन सिय जब पहचाने । आवै तब सौमुख हनुमाने ॥ 
मैं  राम दूत कहि हे माता । तुहरे हमरे जनि सुत नाते ॥  

पुनि कर जोर निज श्री मुख, किये राम गुन गान । 
कहत हरत मात के दुःख, तव हेरन मैं आन ॥   

शुक्रवार, २७ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                         

सुरत नाथ नयनन घन घारे । साख सुमन सरि जवल कन झारे ॥ 
पूछीं हिय पिय मोहि बिसारीं । भूर भई का ऐतक भारी ॥ 

 देइ संदेस हनुमत तेही । धैर हिया तब धरि बैदेही ॥ 
राम चन्द्र तव लेवन आहीं । तनिक दिवस अरु धीर धराहीं ॥ 

पाए सिया कर सीस आसिषे । प्रेम पाग कपि नयन जल रिसे ॥ 
चरण नाइ कपि लेइ बिदाई । करन चले लंका उजराई ॥ 

सकल निसाचर करि संघारे । मर्द मर्द महि मरतएँ मारे ॥ 
इंद्राजीत लंकेस कुमारे । अर्थ कर दिए धोबी पछारे ॥ 

एहि श्रवनत दनुपत दुर्बादे । परचत तिन कपि क़िए संबादे ॥ 
कह बत हनुमत बहस समुझाए । प्रभु राम धरा धिया बहुराएं॥ 

तुम साखामृग मति मंद, हम भरू भूमि बिलास । 
कँह चित चित्ती कँह चंदु, कहि दनुपत कर हास ॥ 

शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

दसानन कपि हन आयसु दाए । पुनि दनुगन तिन्ह मारन धाए ॥ 
कहि बिभीषन कर बहुस बिनिते । दूत हनन नय नीति बिपरिते ॥ 

 कहत दसानन लिए अटहासे । बसत कपि के पूँछ भित साँसे ॥ 
तेल बुरे पट देइ बँधाईं । कहत दनुज पुनि लाग लगाईं॥ 

करतल सकल जन धुनी देईं । फेर चहूँत पुर पूँछि जरेईं ॥ 
पवन ताने धर अगन लगारी । जारत फिरि भू भवन अटारी ॥ 

लपट लपट ऐसेउ झपटाए । जस तिन तूल संबाहिन पाए ॥ 
अकुल बियाकुल लख लगन लाहि । कहत त्रसत तस त्राहि मम त्राहि ॥ 

मंजुल मंडित सोन सुबरनित भंजन भवन भू भूति । 
दहन केतु धर धुरियन ऊपर दिए गगन धूनन धूति ॥ 
कर्पुर घारि द्वीप दुआरि दहत धूमलाभ लहे । 
मानहु लंका करि निज डंका  आपन रुप कलुख कहे ॥ 

उथल पुथल कर सिंहला, सोन सुबरन दहाइ । 
बहुरि बली मुख निमज्जत, पयोधि पूँछ बुझाइ ॥ 

रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                                  
तेइ कुस लखि अवतरे आँगन । लेइ हनन हनुमन मन कामन ॥ 
सुरथ के बिगत सैन सँभारे । गगन भेदि घन नाद उचारे ॥ 

तेइ हनुमत उपार पहारे । नभो गति गहत लै कर धारे ॥ 
लगे बान उर मूर्छा पाए । हेर संजीवन लखन जियाए ॥ 

रहहि संग जे अस रघुनाथे  ।  ताप धूप जस छाया साथे ॥ 
तेइ हनुमत अज ज्ञान बिहिना । दोउ प्रभु तनए जानत रहि ना ॥ 

रन कामिन कर ठाड़ बिरोधे । राम सेन सन रंगन जोधे ॥ 
दिसि हनुमत एक पाहन लिन्हे । बल पूरबक प्रबिद्धन किन्हे ॥ 

पाए पवन पाहन जस धूरे । किये लव तिन्ह चिकिना चूरे ॥ 
दिरिस दरस एहि कवन अकारी । जिमि हिम उपल के धारि बारी ॥ 

ऊपर देख छोरे उपल आपन मुख पर आत । 
आपन गाल बजाए ते खावत आपन घात ॥  

रविवार, २० अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                          

बजर अंग तन भवन अलिंदु । छनन मनन हन कोपित बिंदू ॥ 
लंकाहन रहि मह बल्बाना । धूनत गिरी तिन धुनि कर काना ॥ 

लिए बलबन भुज दल बन काला । पतअरु एक तरु साल बिसाला ॥ 
सौंतुख कुस कर बिटप सहारे । भए आतुर उर पर दे मारे ॥ 

खात घात पर कुस ना हारे । लिए बीर बर अस्त्र संहारे ॥ 
रहि दुर्जय जे तेइ निछेपे । दरसत तिन तनि हनुमत झेंपे ॥ 

बहुरि मन भगवन बिहन हारी । रामचंद्र के सुमिरन कारी ॥ 
सुमिरत हनुमत दरसत कैसे । तड़तइ बालक माता जैसे ॥  

धावाताए अस्त्रासु अस निकट बिकट बिकराल । 
घातन उरस स्वयं जस,प्रगस भए देउ काल ॥  

सोमवार,२१ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                       

ऐतक ही मह घातत करके । दारत उरस दास रघुबर के ॥ 
धरत बदन घन नादन बानी । ताड़न तड़ित प्रभा कर सानी ॥ 

गंधत अस जस अगनित गोले । आयुध आपन आपइ बोलें 
लागत वाके चेत बिहाईं । अनुमत के मति मुरछा छाई ॥ 

फिर तौ रन भू कुसहि कुस छाए । मुदितइ बिसिख पर बिसिख चलाए ॥ 
चरत उरत सर गगन ब्यापे । अस जस बायुर पत सन ढाँपे ॥ 

अवध देस की अर्धांगिनी । कोटि पाल कटक चतुरंगिनी ।। 
चरन चरन रन आँगन गाढ़े । अटल प्रबल ते चरन उपारे ॥ 

होवत बिकल सेन सकल, बिसिख बिसिख उर लाग । 
गहिहिं जे आजुध भुजदल, तज रहि भागाभाग ॥   


बुधवार, ०२ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                      

ते जय बटु मनोबल बढ़ाईं । कारत कुस जयघोस सुहाईं ॥ 
ता बय बानर बर बलहिनि के । भए संरछक बृहद बाहिनि के ॥ 
वह विजय, लव कुश के सहायक बाल ब्रम्हाचारियों का मनोबल बढाने वाली थी । और वे कुश का विजय घोष करते अत्यधिक सुहावने प्रतीत हो रहे थे ॥ उस समय अवध की उस भारी किन्तु बलहीन सेना के वानरराज सुग्रीव संरक्षक हुवे ॥ 

बीर बली मुख राज सुग्रीवा । रिष्य मूल परबत के दीवा ॥ 
जे रहि प्रभु राम गहन मिताए । जिन पहिं दास हनुमंत पाए ॥ 

बलधि बालि रहि जिनके भाई । जिन सन प्रभु के होइ लराई ॥ 
सुग्रीव राज करत छल छिन्हे । हत कारित तिन प्रभु ले दिन्हें ॥ 

रहि बहस सोंह जिनके सहाइ । जलधि उदधि पल पयोधि बँधाइ ॥ 
जिनकी बानर सेन सुहाई । समर सूर सह बहु बलदाई ॥ 

नीति कुसल कर रन लंकेसे । भए बिजइत कर लंका देसे । 
जिन्ह सह्चार राम सुधीता । मारे रावन लवाइ सीता ॥    

ते सुग्रीव मित्र धारि सन, कारै रन घन घोर । 
तड़ग खडग कटि कर धार, किए चिकार कठोर ॥   




















गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                               

पुनि दूइ दल रन करमन भीरे । भीरत जस दूइ घन गम्भीरे ॥ 
चरत गगन अस सायक सोई । जस धारा धर बाहक होही ॥ 

सौतत सैनिक होवत सोहें । हरीस कुस के सौंमुख होहें ॥
बढ़इ बाहु बल दिए लंगूरे । परइ धरा पद उराइ धूरे ॥ 

एक पल कुस दिसि धुंध धराई । निकसत धनु सर इत उत धाईं ॥ 
कल कोमल करताल मलियाए । निर्झर जर सन परम पद पाए ॥ 

हटबत सुभट कहरत भू गिरे । को इत तिरे कोउ उत तिरे ॥ 
उठइ धरा पुनि धाए  सुभट्टे । दोउ भाइ मुख मारि झपट्टे ॥ 

पुनि कर्नी कारन लौ लग, कुस कास कोदंड । 
चरत तरत सरत सल्लग, करत प्रघोष प्रचंड ॥ 

मंगलवार,२२, अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                            

पुनि तेहि कंठ करकन कैसे । कुलिस कुलीनस घटघन जैसे ॥ 
खैंच करन लग सरित सरासन । ऐंच नयन सर चरित सनासन । 
फिर (संरक्षक हो रन भूमि में उतरते ही) उसका गला कैसे गर्जा जैसे जल युक्त घने बादलों का साथ प्राप्त कर बिजली गरजती है ॥ फिर सुग्रीव ने  धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खिंच कर तिरछे लोचन कर सनासन की ध्वनी करते तीर छोड़े ॥ 

उपार उपल सैल अनेके । धाए कुस सों भुज दंड लेके ॥ 
किए खंडन तिन कुस एक साँसे । खेलत उदयत हाँस बिहाँसे ॥ 
अनेकों शिलाओं और पत्थरों को उखाड़ कर अपनी भुजाओं में लिए कुस की ओर दौड़े ॥ जिन्हें कुश ने हँसी-खेल में  एक ही  स्वांस में खंडित कर दिया ॥  

सुग्रीव बेगि बहुस बिकराला । धरे कर एक परबत बिसाला ॥ 
कुस लखित कर लाखे लिलारे । औरु सबल ता पर दे मारे ॥ 
फिर सुग्रीव ने अत्यधिक भयानक एक विशाल पर्वत लिया, और कुश को लक्ष्य कर उसके मस्तक को लक्ष्य चिन्ह कर पुरे बल के साथ उस पर दे मारा  ॥ 

दरसत परबत निज सों आने ।  कुस कोदंड बान संधाने ॥ 
करत प्रहार कारि पिसूता । भसम सरुप किए बस्मी भूता ॥ 
जब कुश ने उस पर्वत को अपनी ओर आते देखा तो तत्काल ही धनुष में बाण का संधान कर उस पर्वत पर आघात कर उसे चूर्ण कर
उसे  (महारूद्र के शरीर में लगाने योग्य) भस्म के सदृश्य करते हुवे, नष्ट कर दिया ॥ 

देख कुस कौसल सुग्रीव, भयउ भारी अमर्ष । 
बानर राउ मन ही मन, किये बिचार बिमर्ष ॥ 
कुश का ऐसा रन कौशल देख कर वानर राज सुग्रीव को अत्यंत क्रोधित हो गए । तब  वानर राज मन ही मन रन की भावी नीति कैसी हो, इस पर विवेचन करने लगे ॥  

बुधवार, २ ३ अक्तूबर,२ ० १ ३                                                                      

जोइ जान रिपु लघुत अकारी । सोइ मानत भूर भइ भारी ॥ 
किरी कलेबर जिमि लघुकारी । पैठत नासिक गरु गज मारी ॥ 

लघु गुन लछन इत लिखिनि लेखे । नयन पट उत गगन का देखे ॥ 
सुग्रीव के कर क्रोध पताका । प्रहरत बहि सन गहन सलाका ॥ 

एक तरुबर दरसत कर तासू । धावत मारन कुस चर आसू ॥ 
नाम बान लइ बरुनइ धारा । पथ प्रसारित कुस बिपुल अकारा ॥ 

चहूँ पुर दिग सिरु घेर हरीसा । कसा कास के बाँधि कपीसा ॥ 
बलबाल के कमल कर कासे । बँधइ सुग्रीव कोमली पासे ॥ 

होत असहाय नृतू निपाते । दरसत तिन भट भागि छितराते 
बहुरि बटुक सह लव कुस भाई । हर्ष परस्पर कंठ लगाईं ॥ 

लखहन बरखन पर, अंगन रनकर, संस्फाल फेट फुटे । 
बल दुई बर्तिका, जस दीपालिका, तस भाई दुई जुटे ॥ 
संग्राम बिजय कर, सिया के कुँवर, कमलिन कर कलस धरे । 
बाजि दुंदुभ कल, नादत मर्दल, धन्बन ध्वजा प्रहरे ॥ 





शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

दसानन कपि हन आयसु दाए । पुनि दनुगन तिन्ह मारन धाए ॥ 
कहि बिभीषन कर बहुस बिनिते । दूत हनन नय नीति बिपरिते ॥ 
जब दशानन ने वानर को हताहत करने की आज्ञा दी तब दानव गण उन्हें मारने के लिए दौड़े ॥ फिर दशानन के लघु भरता विभीषण ने अत्यंत ही विनम्रता से कहा : -- हे राजन ! दूत की ह्त्या करना राजधर्म के विपरीत है ॥  

मान भ्रात कहि लिए अटहासे । बसत कपि के पूँछ भित साँसे ॥ 
 तेल बुरे  पट देइ बँधाईं । कहत दनुज पुनि लाग धराईं ॥ 
और लघु भरता की बात को मानते हुवे रावण ने ऐसा कहते हुवे अट्टाहास किया कि वानर का जीवात्मा उसके पूँछ में बसती है ॥ उस पूँछ में तेल से तर किया हुवा कपड़ा बाँध दो और उसमें आग लगा दो ॥ 

करतल सकल जन धुनी देईं । फेर चहूँत पुर पूँछि जरेईं ॥ 
पवन तनय लगि अगन पुछारी। जारत फिरि भू भवन अटारी ॥ 
तब सभी दानवों ने ताली बजा कर खेल करते हुवे हनुमान जी को गोल गोल घुमाया , फिर उनकी पूँछ में आग लगा दी ॥ तब मारुती नंदन ने आग लगी पूँछ से लंका द्वीप के भूमि भवनों एवं उनके खण्डों को जलाते हुवे घूमने लगे ॥ 

लपट लपट ऐसेउ झपटाए । जस तपित तिन संबाहिन पाए ॥ 
लोग बियाकुल लख लगन लाहि । कहत त्रसत तस त्राहि मम त्राहि ॥ 
सब भूमि भवन आग की झपट में आ कर ऐसे लपट देने लगे मानो जलती हुई तृण को वायु का साथ प्राप्त हो गया हो और वह भड़क गई हो ॥ आग लगी देखकर वहाँ के वासी व्याकुलित हो उठे और ट्रस्ट होकर रक्षा करो! हमारी रक्षा करो ! की ध्वनी का उच्चारण करने लगे ॥ 

सुबरन मंडित रतन मनि कलित  भंजइँ भवन भू भूति । 
दहन केतु धर धुरियन ऊपर दिए गगन अगनी धूति ॥ 
कर्पुर घारि द्वीप दुआरि दहत धूमलाभ लहे । 
तिन सों लंका करि निज डंका  आपन रुप कलुख कहे ॥ 
स्वर्ण-मंडित  एवं रत्न माणिक्यों से सुसज्जित भूमि के विभूति स्वरुप भवन खंडित हो गए ॥ वे धुआँ धारण करते हुवे आकाश के उपरोपर आग की लपटें कम्पन करने लगी  ॥ जिस द्वीप के द्वार कर्पूर वर्ण का थे वह आग में धधकते हुवे मटमैले रंग के हो गए और इन कज्जल द्वारिकाओं से लंका, डंका बजा बजा कर अपने कलुषित रूप का बखान करने लगी ॥ 

उथल पुथल कर सिंहला, सोन सुबरन दहाइ । 
बहुरि बली मुख निमज्जत, पयोधि पूँछ बुझाइ ॥ 

शुक्रवार, १५ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                      

तेइ लव लखि अवतरे आँगन । लेइ हनन हनुमन मन कामन ॥ 
आवत छतरित सैन सँवारे । गगन भेदि घन नाद उचारे ॥ 
लव को हनन करने की मनोकामना लिए वे ही महाबली हनुमान रन क्षेत्र में अवतरित हुवे । आते ही उनहोंने छितरित सैन्य समूह को सुनियोजित किया ॥ फिर गगन को भेद करने वाली ध्वनी से गरजना की ॥ 

कपि बल बिपुल भुज दल गहियाए । देख तिन लव बहु बिस्मय पाए ॥ 
बजरी देह सैल सम लागहि । लाल लोचन बरखावत आगहिं ॥ 
वानरराज ने अपनी भुजाओं में अतुलित बल ग्रहण किया हुवा था । जब सीता पुत्र लव ने उन्हें देखा तो उसे अतिशय विस्मय हुवा । उनकी वज्र के सरिस देह लव को शैल के सदृश्य प्रतीत हुई । और उनकी लालिमा युक्त दृष्टि तो जैसे आग ही वर्षा रही हो ॥ 

दिए ऐँठ तनि भुजा पद गाते । करकत तरु दुइ डारि निपाते ॥ 
चरतईं आए जब लव धूरे । लौहितेछन सन लगे घूरे ॥ 
जब उन्होंने अपनी भुजा चरण एवं देह को किंचित ऐंठा । तब कड़कते हुवे वृक्षों कि दो शाखाएँ टूटकर नीचे गिर पड़ी ॥ जब वे चलते हुवे लव के निकट आए । रक्तक आँखों से उसे घूरने लगे ॥ 

कास मुठिका दन्त कटकाईं । मार धुमुक लव दूर गिराईं ॥ 
छनु भर मह लिए पूँछ लपेटे । देवत बल दिए दुइ तिनु फेंटे ॥ 
मुष्टिका कास कर उन्होंने दांतो को किटकिटाया और एक घूँसा मारा , तो उसके प्रहार से लव दूर जा गिरा ॥ फिर क्षण भर उसे अपनी लंगूर में लपेट कर बल देते हुवे दो तिन बार गुरमेटा ॥ 

बाँध बाँगुरिन कसकत गहनी । उठैं गगन कभु अवनि ठनमनी ॥ 
टसकत लव जनि सुमिरन कारे । पुनि एक मुठिका महा प्रहारे ॥ 
कसकर कड़े बंधन में फांसते हुवे फिर उसे ( लव को ) कभी तो ऊपर उठाते कभी धरती पर पटक देते ॥ इस क्रिया से टसकने गा और अपनी मैय्या को स्मरण करने लगा । फिर उसने ( हनुमान जी की पूँछ पर ) मुष्टिका का एक महा प्रहार किया ॥  

दिए धौसत धुनकत धुनत, गहनति गहन प्रघात ॥ 
बानर भयउ बहु बिहबल, बिहुरि बल बिलबिलात ॥ 
और घूंसे से धुनाई करते हुवे वह गहरे प्रहार करने लगा । वानरराज हनुमान जी को कष्ट होने लगा । बिलबिलाते हुवे लव के बल से लव के बल से मुक्ति पाने का अभ्यास करने लगे  ॥ 

 शनिवार, १ ६ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                

बहुरि बाहु लव बिहुरत फेंटें । दिए गुंठित धर पूँछ उमेठे ॥ 
घुर्मि घुर्मि हँसि केलिहि करहीं । महा बीर हनुमत चिक्करहीं ॥ 
फिर लव ने अपनी भुजाओं को उस लपेटे से छुड़ा कर हनुमान जी की पूँछ को गाँठ देते हुवे उसे गुरमेट दिया ॥ और घुमा घुमा कर हँसते हुवे खेल करने लगा । उधर महावीर हनुमान कष्टमई होकर चीत्कार उठे ॥ 

साध सकल बल लेइ छोड़ाए । रिस भरे देइ गदा घुरमाए ॥ 
तासे परत चपेटिन आने । बाँचत लव किए नत सिरहाने ॥ 
फिर अपना सारा बल लगा के किसी प्रकार से पूँछ को लव से छुड़ाया । और क्रोध में भरकर गदा को तीव्रता पूर्वक घुमा दिया ॥ इससे पहले कि लव उस गदे के चपेट में आते । उन्होंने अपना शीश झुकाया और स्वयं की रक्षा की ॥ 

छूटत गदा बहु उरेउ गिरे । भयउ कुपित कपि आपा बहिरे ॥ 
बहोरि एक बर सेल उपारे । लखि कर लव मस्तक दे मारे ॥ 
लक्ष्य हिन् गदा मारुती नंदन के हाथ से छूट गया और दूर जा गिरा । इससे वे क्रोधवश आपे से बाहर हो गए । फिर उन्होंने एक बड़ा भारी पत्थर को उखाड़ा और लव के मस्तक का लक्ष्य कर उसपर दे मारा ॥ 

एहि लख सो भए लाल भभूका । छाँड़ प्रदल तिन किए सौ टूका ॥ 
कन लग गुन धन्वंतर सारे । उरूज अरि बनाउरि उरारे ॥ 
यह देखकर लव अत्यंत क्रोधित हो उठा और बाणों का प्रहार कर उस पत्थर के सौ टुकड़े कर दिए । फिर उन्होंने की प्रत्यंचा को  चार हाथ की माप तक प्रस्तारित किया और उस समय शत्रु स्वरुप वीर हनुमान पर चढ़ाई करते हुवे बाणावली की बौछार कर दी ॥ 

उरि उरंग सों उरस बिँधाई । अरु हनुमत चित मुरुछा छाई ॥ 
गवने बलि भट सत्रुध्न पाहीं । मुरुछा प्रसंग कहत सुनाहीं ॥
उड़ते हुवे सर्प की भांति ( एक दुर्लभ प्रजाति का विषधारी सर्प जो पेड़ों पर रहता है, और एक पेड़ से दुसरे पेड़ पर छलांग मारता है इसका रंग हरा होता है छलांग मारने के कारण यह उड़ता हुवा प्रतीत होता है, जो छत्तीसगढ़ में पाया जाता है ) वे बाण वीर हनुमत के ह्रदय को भेदने में सफल हुवे  फिर उनके चित्त पर मूर्छा छा गई ॥यह देख वीर सैनिक शत्रुध्न के पास गए और हनुमत की मूर्छा का प्रसंग कह सुनाया  ॥ 

पावत सत्रुहन कान, हनुमत अचेत आगान । 
हिय बहुसहि दुःख मान, भए बिहबल यह सेष कहे ॥ 
भगवान शेष मुनि वात्स्यायन से कहते हैं हे मुने ! : -- हनुमत की अचेतना के वृत्तांत को सुनकर शत्रुधन के ह्रदय ने  बहुंत ही दुःख माना और वे शोक से विह्वल हो उठे ।। 

रविवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

अब सोइ आप लिए दल गाजे । सुबरन मई रथ पर बिराजे ॥ 
लरन भिरन ते पौर पयाने । जहँ बिचित्र बीर लव रन ठाने ॥ 
अब वे स्वयम् ही स्वर्णमयी रथ पर विराजित होकर श्रेष्ठ वीरों को साथ लिये युद्ध हेतु उस ड्योढ़ी की और प्रस्थान किए जहाँ वह विस्मयी कारक वीर बालक लव युद्ध छेड़े हुवे था ॥ 

लोकत लव तँह पलक पसारे । सत्रुहन मन बहु अचरज कारे ॥ 
जिनके कहान दिए न ध्याना । साँच रहि सोइ सुभट बखाना ॥ 
वहाँ लव को देखते ही शत्रुध्न की पलकें आश्चर्य से प्रस्तारित हो गई और उनका मन बहुंत ही आश्चर्य करने लगा ॥ जिनके कथनों पर शत्रुधन ने ध्यान नहीं दिया वे वीर सैनिक सत्य ही कह रहे थे ॥ 

स्याम गात अवगुंफित रुपा । येह बालक श्री राम सरूपा ॥ 
नीलकमलदल कल प्रत्यंगा । बदन मनोहर माथ नयंगा ॥ 
श्याम शरीर, सांचे में ढला हुवा रूप,यह बालक तो वास्तव में श्री रामचन्द्रजी का ही स्वरुप है ॥ नीलकमलदल के सदृश्य सुहावने प्रत्यंग ऐसा मनोहारी मुखाकृति औए\और माथे पर का यह चिन्ह ॥ 

एहि बीर सपुत अहहैं को के । ऐ मति धारत तिन्ह बिलोकें ॥ 
पूछत ए तुम कौन  हो बतसर । जोइ मारे हमरे बीर बर ॥  
यह वीर सुपुत्र  किसका है ? ऐसा विचार करते एवं उस बालक को ध्यान पूर्वक देखते हुवे शत्रुध्न ने पूछा : -- हे वत्स  ! तुम कौन हो ? कौन हो जो तुमने हमारे सारे वीर सैनिकों को मार दिया ॥ 

हे मुनि मोहक भेस , कहु को तव पालनहार । 
तुम्ह बसहु को देस, कृपा कर  निज परचन दौ ॥ 
हे । मुनियों का मोहक वेश धारण करने वाले । कहो तो तुम्हारे अभिभावक कौन हैं । तुम किस देश में वास करते हो , कृपया करके मुझे अपना परिचय दो ॥ 

सोमवार, १८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

जानउँ ना मैं कछु तव ताईं । पुनि लव ऐसेइ उतरु दाईं ॥ 
बीरबर मम पितु जोइ होई । मम श्री जननी हो जो कोई ॥ 
मैं तुम्हारे निमित्त कुछ भी नहीं जानता । लव ने उनके प्रश्न का इस प्रकार से उत्तर दिया  हे वीरवार ! मेरे पिता  जो भी हों, मेरी माता जो कोई हों ॥ 

आगिन औरु न कहहु कहानी । एहि बय सोचहु आप बिहानी ॥ 
सुरतत निज कुल जन के नामा ।धरौ आजुध करौ संग्रामा ॥ 
अब आगे और कहानियाँ न बनाओ । इस समय अपने अंत का सोचो ॥ और अपने कुल जनों का स्मरण करते हुवे आयुध धारण कर मुझसे संग्राम करो ॥ 

तुहरे भुजदल जदि बल धारहिं । बरियात निज बाजि परिहारहि ॥ 
किए लव बाण संधान अनेका । तेजस तिख मुख एक ते ऐका ॥ 
यदि तुम्हारी भुजाएँ ने बल धारण किया हुवा है तो वे बलपूर्वक अपने अश्व को मुक्त कर लें ॥ ऐसा कहकर लव ने अनेकों बाण का संधान किया जो एक से एक दिव्य एवं तीक्ष्ण थे 

लिए धनु गुन दिए चंदु अकारे । भयउ क्रुद्ध धनबन प्रस्तारे ॥ 
को पद को भुज परस निकासे । को सत्रुहनके मस्तक त्रासे ॥ 
और धनुष उठा कर उसके गुण को चंद्राकार कर कुपित होते हुवे उनहन गगन में बिखेर दिया ॥ जिनमें कोई बाण चरण तो कोई भुजा स्पर्श करते हुवे निकला  , कोई शत्रुधन के मस्तक को भेद कर उन्हें त्रस्त का गया  ॥ 

रिसत सत्रुहन छबिछन सों, देइ धनुर टंकार । 
हहरनत रन आँगन के, कन कन किए झंकार ॥ 
( ऐसा दृश्य दखाकर ) शत्रुध्न फिर अत्यधिक क्रुद्ध होकर कड़कती बिजली के समान धनुस की प्रत्यंचा अको टंकार किया । इस ध्वनी से कम्पायमान होकर रन क्षेत्र का कण कण झंकृत हो उठा ॥ 

मंगलवार, १९ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                   

बर धनुधर सिरुमनि बलबाना । अवतारे गुन अनगन बाना ॥ 
बालक लव तूली कर तिनके । खरपत सम  काटै गिन गिन के ॥ 
बलवानों के शिरोमणि एवं श्रेष्ठ धनुर्धर शत्रुध्न ने फिर अपनई प्रत्यंचा से अनगिनत बाण उतारे । किन्तु बालक लव ने उन्हें तृण-तुल्य कर उन्हें खरपतवार के जैसे गिन गिन कर काट कर हटा दिया ॥ 

ता पर तिन कर अस सर छाँड़े । अचिर द्युति जस घनरस बाढ़े ॥ 
सत्रुहन नयन अलोकत अंबा । बिचित्र कहत किए बहुस अचंभा ॥ 
उसके पश्चात उसके हाथ ने ऐसे बाण चलाए जैसे चमकती हुई बिजली से युक्त घनी घटा से जल की बुँदे चली आती हैं ॥ शत्रुध्न के नयनों ने अम्बर में जब उनका अवलोकन किया तब 'विचित्र 'ऐसा कह कर वे बहुंत ही अचम्भा किये ॥ 

अचिरत बरतत पुनि चतुराई । तेइ सकल काटि निबेराईं ॥ 
निरखत निबरत लव निज सायक । किए दुर्घोष हृदय भय दायक ॥ 
और फिर शीघ्रता पूर्वक रन कौशलता बरतते हुवे उन्हें काट कर हटा दिया ॥ जब लव ने अपने बाणों को लक्ष्य विहीन पाया तब उसने कर्कश घोष किया जो हृदय में भय उत्पन्न करने वाला था ॥ 

दमक उद्भट देवत प्रतिमुखे । किए दुइ खंडित वाके धनुखे ॥ 
अचिर द्युति गति कर सिय नंदन । सुबरन मई रथहु किए खन खन ॥ 
तब उत्तर देते हुवे उद्भट सिया नंदन लव ने शत्रुध्न के  धनुष को दो खण्डों में विभाजित कर दिया ॥ और बिजली के जैसे तीव्र गति से स्वरमयी रथ को भी खंड खंड करते हुवे नष्ट कर दिया ॥ 

धनु कहुँ रथ कहुँ कहुँ सुत बहिही । सत्रुहन गति परिहास लहिही ॥ 
लोकत अमर्ष अस मसि मूखे । मेघ घटा जस जोत मयूखे ॥ 
धनुष कहीं था, रथ कहीं था, उस रथ का सारथी कहीं था और उसके घोड़े कहीं थे । उस समय शत्रुध्न की दशा परिहास को प्राप्त थी ॥ उनके मलिन मुख पर आक्रोश ऐसे दर्श रहा था, जैसे घने मेघों में बिजलियाँ चमक रही हों ॥ 

रथ सुत धनुर हिन् सत्रुहन, धारे पुनि दूसरौह । 
बलपूरबक दृढ़ सरूप, ठाढ़ रहि लव सोंह ॥  
 तब रथ, सारथी धनुष हिन् शत्रुध्न ने फिर दुसरा रथ दुसरा सारथी एवं धनुष धरा और वे बलपूर्वक, अत्यधिक दृढ़ता से लव के सम्मुख डटे रहे ॥ 

बुधवार, २ ० नवम्बर, २ ०  १ ३                                                                                   

जोइ सकहु तौ काटि निबेरउ । दाप धरत सत्रुहन अस कहतउ ॥ 
लाग लगे लोचन लव लाखा । छाँड़ेसि दस तिख सिख बिसाखा ॥ 
यदि तुम समर्थ हो तो इन्हें काट कर हटाओ । फिर दाप करते हुवे शत्रुध्न ने ऐसा कहकर लव को जलती हुई आँखों से निहारा तीखे मुख वाले दसवाण छोड़े ॥ 

रहहि जोग जे प्रान सँहारे । पर लव तिन्हन खंडित कारे ॥ 
पुंखि पंख मूर्धन मयंके । सार रसन किए लस्तक अंके ॥ 
ये बाण प्राण हारने के योग्य थे किन्तु लव ने इन्हें भी खंडित कर दिया ॥ पंख लगे पृष्ठ से और चंद्राकार मुख वाले बाण को प्रत्यंचा में सार कर उसे धनुष की मूठ पर सजाते हुवे : - 

खैंचत बहुरि सीध कर साधे । करत हत हयनत ह्रदय बाधे ॥ 
सत्रुहन पाए घात गंभीरा । तिनके उर भइ गहनइ पीरा ॥ 
फिर खींचकर सीध बांध कर शत्रुध्न के हृदय में प्रहार करते हुवे उनकी छांती  में गहरी चोट पहुंचाई और लक्ष्य को प्राप्त हुवे ॥ 

एक छन लोचन तमाछन् छाए । चहुँ दिसि दिरिस दरसन धुँधराए ॥ 
पते रथासन दारुन होके । निपातत जस पखहिन नभौके ॥ 
शत्रुध्न के आंकाहों में एक कछान को अन्धेरा छा गया । चारो दिशाओं के दृश्य-दर्शन धुंधला गए । कष्टमय होकर वे रथ पर ऐसे गिरे जैसे कोई पंखहीन पक्षी भूमि पर गिर रहा हो ॥ 

सकल बीर भट सह राउ, सत्रुहन मुरुछा लोक । 
मलिन मुखित बहु दुखित हो, घारे उर मह सोक ॥ 
शत्रुध्न की मूर्छा को देखकर, राजाओं सहित समस्त वीर सैनिको का मुख पर उदासी छह गई,  हृदय में शोक भर आया और वे बहुंत ही दुखित हुवे ॥ 

गुरूवार, २१ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

 गहत हरबली पुनि पुंज प्रतापे । धीरोद्धत सुरथ कर दापे ॥ 
अरु वाके सों सकल सुभट्टा । चढ़ि लव पर अस जस नभ घट्टा ॥ 
तब तेज के पुंज स्वरुप धीरोद्धत राजा सुरथ ने सेना का  प्रधान पद ग्रहण किया  ॥ और उनके साथ सारे वीर सैनिक दर्प करते हुवे लव के ऊपर ऐसे चढ़ बैठे, जैसे आकाश में बादल चढ़ आते हैं ॥ 

जागे पौरुख भयौ बिद्रोही । धर प्रतिनाह लोहिका लोही ॥ 
कोउ के हाथ धरि लाहांगी । कोउ बजर बिय बाहु बलंगी ॥ 
सेना की पौरुषता जो कि सुप्त हो गई थी वह जागृत हो उठी । सभी चिन्हों धारण किये , त्राण और अस्त्र-शस्त्र ग्रहण किए हुवे थे ॥ किसी के हाथ में लोहांगी थी तो कोई के सदृश्य दोनों बल युक्त बाहु में वज्र धारण किए हुवे था ॥ 

को बाढ़े बकुचत बिकराला । कास लस्तकी लोहल नाला ॥ 
एहि बिधि भट धर आजुध नाना । रन रनक बाजे घमसाना ॥ 
कोई पंजे में भयंकर के समान भयानक लोहे का बाण और लोहे का धनुष कासे हुवे लव की और बढ़ रहा था । इस प्रकार से वीर सैनिक विभिन्न आयुधों से युक्त होकर युद्ध के लिए उद्यत हुवे और घनघोर युद्ध करने लगे ॥ 

लिखिनि लेखत कहत संछेपे । लव पर चहुँ दिस लौह निझेपे ॥ 
देखि लव अस जब एहू लोगें । छत्रिय धर्म हिन् कलि कृत जोगें । 
लेखनी सारांश में यह कहती है कि लव के ऊपर चारों और से आयुध चलने लगे । जब लव ने देखा कि ये लोग क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध का संग्राम करने हेतु तैयार हैं ॥ 

बहोरि रिपु ताड़न, धनु पर चाढ़न, त्रोन सायक कसमसे । 
लेइ लस्तक लसे, लव दसम दसे, खिँच गुन करन लग कसे ॥ 
कारत बारिहि बहु आहत कारिहि, बिँध मर्म मुरुछा दियो । 
बीर धीरोद्धत, एक एक चिन्हत केतक हताहत कियो ॥ 
फिर तूणीर में रखे तीर धनुष पर चढाने और शत्रु का नाश करने हेतु जब कसमसाने लगे । तब लव ने दस दस बाणों को धनुष की मूठ पर लिया और उसके गुण को कानों तक खींचा ॥ फिर अतिशय आहत कारी उन बाणों की वर्षा करते हुवे क्रोधी वीरों कू चिन्ह चिन्ह कर उनके मम स्थान को बेध कर कईयों को मूर्छित कर दिया और कई सैनिक हताहत हो गए ॥ 

कछुक कराल मर्कट भट, धाए जोइ दिसि पाए । 
लव कोरी खेत क्यारि, बुअनी जस बिथुराए ॥   
कुछ भयंकर मर्कट सैनिक जहां पाए वहाँ भागने लगे और बीजों की बोआई के जैसे रन के उस क्षेत्र में लव के द्वारा उकेरी गई क्यारियों में बिखर गए ॥  

----- ॥ उत्तर-काण्ड १७ ॥ -----

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बृहस्पतिवार, १४ अगस्त, २०१४                                                                                                 

रक्छा भूषन तन सँजुताईं । रच्छउँ मुकुति सीप के नाईं ।। 
धरे धनुर कर कस गुन सायक । परसु परिघ जस हे रघुनायक ॥ 
हे रघुनायक ! मुक्ता रक्षक सीप की भाँती एवं देह के रक्षा  कवच की भाँती हाथों में परसु परिघ जैसे अस्त्र शस्त्र एवं प्रत्यंचा कसे धनुष-बाण कवच आदि से संयुक्त होकर मैं सेना की रक्षा करूंगा ॥ 

रक्छउँ तात पीठ पख पाँती । घाम घिरे छतरी के भाँती ॥ 
एही  काल प्रभु नाउ प्रतापा । अगजग लग ऐसेउ ब्यापा ॥ 
हे तात ! धूप में घिरे हुवे की रक्षक छत्री की भाँती ही मैं उसके पृष्ठ भाग की करूंगा ॥ इस समय प्रभु के नाम ही का प्रताप संसार भर में इस प्रकार व्याप्त है कि : -- 

बिजय सिद्धि प्रभु चरन जुहारिहि । आप ही आप आनि दुवारिहि ॥ 
साजि सेन सब साधन साईं । अंतर्मन अरु देह के नाईं ॥ 
विजय सिद्धि स्वयं ही द्वार में पधार कर प्रभु के चरणों को प्रणाम करेगी ॥ समर के सभी साधनों से सुसज्जित सेना और स्वामी देह और अंतर्मन के सदृश्य हैं ॥ 

भरत तनय यह पुष्कल नामा । होइहि सोइ देहि के चामा । 
जासु सिरु कर कोसलाधीसा । सस्य सीख सह सहस असीसा ॥ 
यह भरत-पुत्र  जिसका नाम पुष्कल है यह उस देह रूपी सैन्य-समूह की चर्म है ॥ उसके साथ सद्गुण सहित शस्त्रों की शिक्षा एवं सहस्त्रों आशीर्वचन हैं ॥ 

भव भाव भीति भूरि के भोग भूमि बिसराए । 
भव बंधन मोचत सोइ, परम बीर कहलाए ॥ 
जो भौतिक सत्ता से आसक्ति ,जीवन-मरण के भय,  एवं लौकिक सुखों के भोग एवं शक्तिमत्ता का त्याग कर  दे । जीवन-मरण के चक्र को भेद कर वह वीर परम वीर कहलाता है ।  

शुक्रवार, १५ अगस्त, २०१४                                                                                                      

निज कीर्ति का कहुँ अधिकाई । कीन्ह चहुँ चरन सेउकाई ॥ 
बोलि अबर सो बीर न होहै । सूर समर भू बोलत सोहैं ॥ 
अपनी आत्म कीर्ति का और अधिक व्याख्यान  क्या करूँ । हे प्रभु ! संक्षेप में मैं  केवल आपके चरणों का सेवाकांक्षी हूँ । अन्यत्र  बोले वह वीर नहीं होता । समर सूरवाँ रणांगण में ही बोलते शोभित होते हैं  ॥ 

सुनत भरत कुमार के बचना । बीरता भरी रस मय रचना ॥ 
साधु साधु कह दसरथ नंदन । तासु नाउ रन किए अनुमोदन ॥ 
भरत कुमार के वचन एवं वीरता से ओतप्रोत उसकी रसमयी शब्द रचना श्रवण कर , दशरथ नंदन श्रीरामचन्द्रजी ! साधु ! साधु !! कह उठे । तदनन्तर पृष्ठ देश की सैन्य सुरक्षा हेतु पुष्कल के नाम का ही अनुमोदन किया गया ॥ 

बहोरि बानर बीर प्रधाना । कहत प्रभु मह बली हनुमाना ॥ 
हम मानस अरु सिंधु अपारा । तुहरे बल संग पाए पारा ॥ 
ततपश्चात रघुवर ने वानरों में महावीर श्री  हनुमान से कहा : -- हम मनुष्य थे, सिंधु अपार था अहोभाग्य ! जब तुम्हारे बुद्धि बल का प्रसंग प्राप्त हुवा  तब उससे  पार पाया जा सका  ॥ 

बुद्धि बिबेक बिग्यान निधाना । पवन तनय बल पवन समाना ॥ 
कवन सो काज कठिन जग माहि । होइ सकै जो नहि तुम्ह पाहि ॥ 
बुद्धि, विज्ञान विवेक के भंडार स्वरूप हे पवनपुत्र ! तुम्हारा बल पवन  के सदृश्य ही है ॥ संसार में ऐसा कौन सा कार्य कठिन है जो तुमसे नहीं हो सके ॥ 

 गमन लंका हेर तुम लाइहि । भई संभव सिया मेलाइहि ।। 
जानउँ मैं तुम अति बलवंता । एहि कारन सुनु हे हनुमंता ॥ 
लंका लांघ कर जब तुमने सीता को ढूंडा तभी  उसका मिलना संभव हुवा । तुम अतुलित बल के धाम हो यह मुझे ज्ञात है इस हेतु हे हनुमंत सुनो : --  

चाहे ए मम बिनति कहो, चहे कहौ आदेस । 
गवनु पाछिनु पताकिनी, कहि बिनइत अवधेस ॥  
 इसे मेरी विनती कहो अथवा आदेश । तुम उस पताकिनी के अनुगामिन बनो  हे वात्स्यायन ! अवधेश ने विनय पूर्वक फिर हनुमंत से कहा ॥ 

शनिवार, १६ अगस्त, २०१४                                                                                                                    

जहँ जहँ सत्रुहन बिचलित होही । तहँ हे  कपि तुम होहु अगौही ॥

निज भ्रात जान  हे हनुमाना । मगदर्सक बन देहु ग्याना ॥ 
जहाँ जहाँ भ्राता शत्रुध्न विचलित हो जाएं । हे कपि ! तुम वहां अग्रसर होकर उसे अपना लघु भ्राता ही जानना । उसका मार्ग दर्शन करते हुवे उसे ज्ञान देना ॥ 

निज भरोस डगमगि बलिबाहू  । बिकलकरन के बल बर्धाहू ॥ 
आन बिपति सौमुह को लोचन । धरिउ चरन तहँ संकट मोचन ॥ 
जहां कहीं उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगे तब हे बलीबाहु ! तुम ऐसे बलहीन के बल का वर्द्धन करना ॥ यदि सम्मुख कोई विपत्ति दृष्टिगत हो तब हे संकट मोचन ! वहां तुम केवल अपने चरण प्रतिष्ठित कर देना ।। 

 महबीर चरन जहाँ  बिराजे । पाए सिद्धि स्वयं सब काजे  ॥ 
प्रभु अग्या हनुमत सिरु धारे । बाहु सिखर धार गदा सँभारे ॥ 
जहां महावीर के चरण विराजित हों वहां कठिन से कठिन कार्य स्वयं ही सिद्ध हो जाते हैं ॥ प्रभू श्रीरामचन्द्रजी ! की आज्ञा को सिरोधार्य किए बलीमुख ने अपने कन्धों पर गदा सम्भाला  : -  

जावन पूरब करे प्रनामा । उद्घोष करत जय श्रीरामा ॥ 
कहे प्रभु होहि हरष अपारा । तुअ कहि कारज दास सँवारा ।। 
प्रस्थान करने से पूर्व जयश्री राम ! का मंगल उद्घोष करते हुवे प्रभु के चरणों में प्रणाम अर्पित महाबली हनुमंत ने बोले : -- प्रभु ! इस दास को आपके कहे कार्य संपन्न करते हुवे अपार हर्ष होगा ॥ 

 कपि तारानन्दन गवय मयंदन दधि मुख बानर राऊ । 
पुनि रघुकुलकन्ता जाम्बबंता कहत सेन सन जाऊ ।। 
नल नील सोंह बोले तुहु सौं होलें  पीठ भाग बन रच्छिक । 
हे अधिगंता भुज बलवन्ता हे सतबलि हे अच्छिक ॥ 
तब रघुकुल के सिरोमणि ने कपि तारानन्दन अंगद,, गवय, मयंद, दधि मुख ( राम जी की वानरी सेना का एक सेनानायक ) वानर राज सुग्रीव एवं जामवंत से बोले : --  सेना का अनुगमन हेतु आप सब भी तैयार रहिए ॥ अधिगन्त, शतबलि , अक्क्षिक, एवं नलनील आदि से कहा : -- हे बलवंत ! सेना के पृष्ठ देश के रक्षण हेतु पृष्ठ-रक्षक बनते हुवे  आप भी इनके संग हो लें ॥ 

 मेधीअ है पीछु तुअहु सत्रुहन सह हनुमानु । 
समर जोग संजोग कै, सेना संग पयानु ॥ 
हे वीरों ! आप सब भी आवश्यक समर साधन से संयुक्त हो मेधीय अश्व के पीछे भ्राता शत्रुध्न एवं वीर हनुमान के सह सेना के संग प्रस्थान करें ॥ 

पहि पदुम पद कहि पवनज , रज पंकज धरि सीस । 
अजहुँ मोहि निज आसीस, देउ कोसलाधीस ॥ 
तब पवन सुत हनुमंत ने भगवान के पदम चरणों को ग्रहण किए रज पंकज को सिरोधार्य कर कहा हे कोशलाधीश !  अब आप हमें आशीर्वाद प्रदान कीजिए  ॥ 

रविवार, १७ अगस्त, २०१४                                                                                                         

बहुरि बिभीषन बुला पठाईं । आगत सादर सीस नवाईं ॥ 
बरन बरन मधुरित रस सानी । पूछे प्रभु किए अति मृदु बानी ॥ 

लवनासुर के चरित कहानी । कहु सिव तिन त्रिसूल कस दानी ॥ 
कहि बिभीषन जुगल कर जोरी  । अहैं  एक सौति भगिनिहि मोरी ॥

धरि कुम्भनसी नाऊ जननी । मधु दनु के भै पानि प्रनइनी ॥ 
लवनासुर भए  तनुभव तासू । संकर चरन रति रही जासू ॥ 

सिव संभु जप अगम तप कीन्हि । भयउ मुदित प्रभु त्रीशूल दीन्हि ॥ 
मान मद मन दहराम पथ छाँड़े । बिपरीत बुद्धि अवगुन गाढ़े ॥ 

पैह त्रिसूल बल सो खल, लेखै को जी नाहि । 

गगनचारि थल हो कि जल, सब जिउ जीवन लाहि ॥ 

मंगलवार, १९ अगस्त, २०१४                                                                                                 

बिपुल बा सील अगजग धाता । बोलि पठइँ सुमंत्र महमाता ॥ 
कहत महर्षि सेष भगवाना । भए सहुँ प्रतिमुख द्रुत गति आना ॥ 

पूँछिहि प्रभु कह महानुभावा । रन कारिन अरु कौनु सुहावा ॥ 
अरु को जन रन समर्थ होई । कहौ अहैं तव चित जो कोई ॥ 

समाहित बुद्धि रूप  समासा  । सुमंत्र बिनई दिए प्रतिभासा  ॥ 
सका सूर जहँ एक एक दूना । जुद्ध आजुध ग्यान निपूना ॥ 

जहाँ बसे धनु बिद्या गुरु भारी । प्रभु सोइ दसरथ अचिर बिहारी ॥ 
तहँ प्रतिमुख रन सूर अनेका । धीर धनुर्धर एक ते ऐका ॥ 

प्रतापग्रअ नीलरतन, लख्मी निधि रिपुताप । 
उग्र अस्त्र  अरु सस्त्र कुसल, बलिबर आपनि आप ॥ 

बुधवार, २० अगस्त, २०१४                                                                                                    

श्रुत सुमंत्रु के बचन सुहावा । मन ही मन प्रभु हरषावा ॥ 
महामात भट जेहि बुझाई । रघुबर सेना संग लगाईं ॥ 

रनोन्मत सिय पत के प्रेरे । लिए जुझावनी साज घनेरे ॥ 
अस्त्र सस्त्र सन भूषन साजे । आन अरिहान भवन बिराजे ॥ 

उत चहुँ दिसि एहि गान अगाने । असन बसन धन दाने दाने ॥ 
इत रघुबर उर भर अति भावा । रित्विज पाद पदुम पूजावा ॥ 

दान दक्खिना बर कर दाई । तदनन्तर रिषि अग्या पाईं ॥ 
एहि बिधि महमख चलिअ सुचारू । तोषित जाचक भए भरमारू ॥ 

सकल मंगल करमन के होइहि तहँ अनुठान । 
इहँ रामानुज अरिहंत, प्रनमत जनि पहि आन ॥ 

बृहस्पतिवार, २१ अगस्त, २०१४                                                                                             

मंजुल मुख मृदु भचन उचारी । करुन मई हे मम महतारी ।। 
भ्रात मोहि हाय पाछु पठाऊ  । सीस सपुत सुभ असीस दाऊ॥ 

तुहरी कृपा दीठ जो होही । बिजय सिद्धि तव पुत पथ जोही ॥ 
रच्छा भूषन कर धर लोहा । मंडित मुकुट बिजय के सोहा ॥ 

बीर बिक्रमि तव तनुभव तुरहीं । सैनि सहित है संग बहुरिही ॥ 
कहत मात तव सब दिग जय हो । पयान मारग मंगलमय हो ॥ 

भरत सुपूत जदपि रन कौसल । धरे माथ मति भरे बाहु बल ॥ 
सोइ जगत बर धरम ग्याता । त्रास होत तिन भयऊ त्राता ॥ 

सौर श्री समर सूरमा,रे सुत जे तव माइ  ।  
होही मुदित जब तव चरन, पुष्कल सन बहुराइ ॥ 

शुक्रवार, २२ अगस्त, २०१४                                                                                                   

 हे मात तेहि निज सुत लखिहउँ । अरु निज  देहि के भाँति रखिहउँ । 
नाउ अहइ मम जस अरिहंता । हँतारि बहुरिहि ए बीर कंता ॥ 

सुमिरि मातु रत पद अनुरागा । होइहि तव तनुभव बड़ भागा । 
कर धनुर्धर भुज सिखर भाथा । मूर्धन् मुकुट तिलकित माथा  ॥ 

धरे चरन त बढ़े उत्कर्षा । सत्रुहन जनि अस कहहि सहरषा ।। 
बहुरि तहाँ सन बेगिहि आने । सकल बाहिनी लेइ  पयाने ॥ 

गमन गम गति गह पवन सरिसा । चरत पथ सगुन होइ चहुँ दिसा ॥ 
जपत सियापत रघुबर नामा । गगन घोषि जय जय श्री रामा ॥ 

सद्भावना भाव भरन  अधरम करन बिनास । 
कल्यान मई बिजय को , संसूचत चहुँ पास ॥ 

शनिवार, २३ अगस्त, २०१४                                                                                                     

 इत पुष्कल प्रनमत प्रतिपाला । गयउ  उरु क्रम आपनि अटाला ॥ 
जोगति पति नयन पथ राखी । तहाँ प्रिया दरसनाभिलाखी ॥ 

सो सील सती अति हरषाई । जस पिय दरस प्रसादु पाई ॥ 
भेंट प्रिया प्रिय सूचना दाए । पीठ पोषक रन मोहि जुगाए ॥ 

जानिहि तव प्रियतम एहि जोगे । रच्छन हाय श्री राम निजोगे ॥ 
मैं सेबक अग्या अनुहारा । चलन चाहि अब रमन तुहारा ॥ 

जननिन्हि मान सब बिधि दहिहू । तुम तिनके सेबारत रहिहू ॥ 
दिए सो अग्या सिरऔ धारिहू । तासु कहे आखरसह कारिहू ॥ 

लोपामुद्रा इहँ आन सुहाए । मुनि भामिन बहु पतिब्रता आए ॥ 
तिनके प्रति रहिहू सौधाना । होइ न पाए केहि अपमाना ॥ 

सो सबइ तपो बल के सोहा । सत्य सार चित केहि न लोहा ॥ 
षट बिकार जित  अनघ अकामा । अचल अकिंचन सुचि सुख धामा ॥ 

सबईं पतिब्रता पतिनिहि, सीली सरल सुभाउ । 
धरत निहछल प्रीति तासु रहिहु चरन गहाउ ॥ 

रविवार, २४ अगस्त, २०१४                                                                                             

कहत मुने प्रभु सेष बिसेसा । एहि बिधि दयिता दय उपदेसा ॥ 
कांतिमती पयस पद धोके । रागित अम्बुद अंब बिलोके ॥ 

लाइ लवन अरु हरिअ सुहासे । अम्बुज इब अम्बर उद्भासे । 
हे प्रियंरन प्रानाधिनाथा ॥ लेखिहि दिगंत तव जय गाथा ॥ 

दए प्रभु सो अग्या अनुहारौ । सबहि भाँति है राख निहारौ ॥ 
चारि दिसा अरि सन ले लोहा । बढ़ाउब केतु पत कुल सोहा ॥ 

हे महाबाहु अजहुँ पयाऊ । रन रंग भूमि जीत अनाऊ । 
यह धनु बर गुन क़से सुसोहित । लेह गहन रन कारन जग हित ॥ 

चाप कर सर फेरि लगे, करिही जस टंकारि । 
भय दर्सी  ब्यूह कृतत कादर आतुर कारि ॥  

सोमवार, २५ अगस्त, २०१४                                                                                                       

लिजौ ए दोइ तेज तूनीरा । बाँध्यो क़ास कटि हे बीरा ॥ 
रामानुज सुत परम प्रबेका । तासु भीत सर पुंज अनेका ॥ 

लगनहार उर ऐसिहु लागे । दिित पीठ रन आँगन भागे ॥ 
बसंत बंधु सम रूप सुन्दर । प्रानाधार तुहरे बपुर्धर ॥ 

अचिर द्युति के द्यु सम रूपा । बिकिरत पत जस दमकत धूपा ॥ 
तामस हरन तस किए प्रत्यूसा । भरौ ए रच्छा भूषन भूसा ।। 

मूर्धन् मुकुट अति मन मोहक । तेजसवी तव तूल तिलक लक ॥ 
कला कर कलित किए रत्नाचल । बरौ करन जुग कल कुण्डल  ॥ 

अवसि कहत पुष्कल कहे, तव बत कही नुहार । 
होहि मम कृतकर रबि कुल कीर्ति के बिस्तार ॥ 

मंगलवार २६ अगस्त, २०१४                                                                                                       

तदनन्तर पराक्रमी पुष्कल । दइता दिए किरीट कल कुण्डल ॥ 
संजुग करतल आयसु दाई । लउ भूषन तन देउ बनाई ॥ 

जोग अनुचर कर बस्तु नाना । माथ मुकुट किए कुण्डल काना ॥ 
कर्मठ रूप कास करमाला । धरे धनुर भुज सिखर बिसाला ।। 

करे करधन तीर तूनीरा । त्रान अभूषन भरे सरीरा ॥ 
सकल जोग जब कर दिए धारा । श्रीमन कह सुठि नाथ निहारा ॥ 

अयुधी आयुध संग सुसोभित । अमित तेज किए ओक अलोकित ॥ 
कुंकुम संग अगरु कस्तूरी । अर्चत गंधद रस कर्पूरी ॥ 

परम सती कान्त वती, कलिति कंठ श्री दाम । 
कहे कबिबर सोहा कस, जस पुष्कल के नाम ॥  

बृहस्पतिवार २८ अगस्त, २०१४                                                                                                

माल मनोहर उरसिज बस्यो । नाभि लए नल कील लग सज्यो ।। 
सती कांत वती लिए थारी । बारिहि बारि आरती तारी ॥ 

तेजस तूल तिलक धरि भाला । अक्छत जुगत मनिक सर लाला ॥ 
तिलक लक्छन तेजसी कैसे । गगन आठ धरि दिनकर जैसे ॥ 

असूर्पस्या लागै चरना । दिरिस वान चित्र जाइ न बरना ॥ 
कर माल मह प्रिया भुज धारे । अनुरागित दृग संग निहारे ॥ 

सकल बीर बर समर रूचई । अस कह पुष्कल बाहिर आईं ॥ 
त्रान जुग चरन सुठि रथ चाढ़े । मात पिता दरसन हुँत बाढ़े ॥ 

पिता भरत मांडबी माता । जयासीस दैं जनमन दाता ॥ 
कहत पंकज पद सीस नवाए । ले आसिर बाहिनिहि पहि आए ॥ 

अमित  तेजस बिक्रम बीर, रन साधन संजोग । 

सैंहिक सैनिक सैन के, सोहा दरसन जोग ॥   





शुक्रवार, ०४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                       

चरन सरन एक एक दुग्नाया । सान धरत मुख सधत सवाया ॥  
ठारि धारि सब दरसत सोई । हलबल कल कोलाहलु होई ॥ 
कसौटी में कसा हुवा उन बाणों का मुख लक्ष्य को सवा गुना साधता और उसके पथ पर चलते हुवे एक एक बाण,दोहरे हो जाते ॥ 
सैनिक स्थिर स्वरुप में बस उन्हें देखते ही रह जाते । उनके चलने से हलचल मच गई, वातावरण में कोलाहल सा भर गया ॥ 

ध्वजन प्रहरत पत पत फड़के । बिटप ह्रदय बहु हहरत धड़के ॥ 
खग मृग मग जे बिपिन बिहारे । धावत डरपत चढ़े पहारे  ॥ 
हावा में प्रहरते हुवे पत्ते फड़फड़ाने लगे । वृक्षों के ह्रदय कांपते हुवे धड़कने लगे । विपिन विहारी पशु-पक्षी भयभीत होकर भागते हुवे पहाड़ियों पर चढ़ बैठे ॥ 

सत्रुहन अब लग मूर्छा छाइ ।  ऐतक बेर मह भई दुराइ ॥ 
रन कारिन दल दसा बिलोके । तब तिन मुख भा लाल भभोके ॥ 
शत्रुध्न के चित्त जो अब तक अचेत था । इतने समय में वह अचेतना दूर हो गई ॥ जब उन्होंने अपने वीरों एवं सैनिकों की गति का अवलोकन किया तब उनका मुख क्रोध से लाल हो गया ॥ 

भाँवर भुइँ जब भइ सिध गीवा । क्रोधि क्रान्त के रहि न सींवा ॥ 
कारत मुख मुद्रा बिकराला । घनके जिमि घनकत घन काला ॥ 
समस्त रन क्षेत्र का भ्रमण कर जब उनकी ग्रीवा सीधी हुई । तब उनके क्रोध और आक्रान्त सीमाहीन हो गए ॥ तब उनका मुख भयानक स्वरुप में ऐसे गरजने लगा जैसे काले ग्बादल गरजना करते हों ॥ 
जिन सर लवनासुर हते, तिन्ह सरिद संधान । 
सत्रुहन कर्खन धनुर्गन, लेइ करन लग तान ॥ 

शनिवार, ०५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                       

बान भयंकर दंस कराला । जस जम के मुख बिकराला ॥ 
छूटत तरस दस दिग ज्वाला । करत प्रकासन तम घन काला ॥ 

लव लाल लोचन जब तिन देखे । भ्राता कुस मन सुमिरन रेखे ॥ 
भ्रात बलइ बल लागिन लागहि । देख बान जिन बिपरित भागहि ॥ 

छन ठहरत लव सोच बिचारे । रन बाँकुर कुस भ्रात हमारे ॥ 
एहि बयस तिन्ह रहत सहारे । तौ मैं लैंते सकल सँभारे ॥ 

दन्तक तर दर दारुन दाई । चित हतप्रभ तब रहत न छाई ॥ 
भ्राता कुस के सह्सथ हीना  । सत्रुहन सर किए मोहि अधीना ॥ 

पुंग पुच्छल पुंख पवन, अटन रवन रन राध । 
लसनत लव नलिन निलयन ,लखहन दिए लखभेद ॥ 

रविवार, ०६ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                             

काल अगन सम बान भयंकर । घात खात तिन लै निलयन पर ॥ 
समर सूर लव भए गत चेतन । कटे बिटप सम परे माझ बन ॥ 
काल अग्नि के समान भयंकर बाणों  का  आघात लिए ह्रदय के संग समरमूर्द्धन लव अचेत हो होते हुवे कटे हुवे वृक्ष के सदृश्य रणभूमि के मध्य गिर पड़े ॥ 

खलन दलन दल बादल गंजन । मूरछा मई दरसत सत्रुहन । 
नीति कुसल सिखिताजुध जाने । रन बलबन निज बिजइत माने ॥ 

घटाटॉप ससि सीस सजाया । सुरमइ रूप सोंह रघुराया ॥ 
सत्रुहन तिन ले रथ बैठारे । लै जावन तँह सोच बिचारे ।। 

दरस बट मित्र सत्रुहन अधीना । जे दरसन तिन बहु दुःख दीना ॥ 
बहुरि तेइ बात गवन तुरंते । लव मातु जेइ देइ उदंते ।। 

कहे अस मातु जानकी, लिए लव लाल तुहार । 
कौनु राउ के बाजि गहि ,बाँधे तरु बल कार ॥ 

सोमवार, ०७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                             

राजाधिराज धरे धारि बृहद । अरु अहहिं तिन्ह बहु मानद मद ॥ 
गहत बाजि भै जुद्ध भयंकर । एक पुर तव लव एक धारिहि बर ॥ 

पर हे मात कर पुत तुहारे । एक एक जोधिक गवने मारे ॥ 
बहुरि बहुरि ते लरन अवाई । बार बार लव भै बिजिताई ॥ 

लव राजनहू किए गत चेतन । औरु पाए जुद्ध मह महा जयन ॥ 
तदनंतर किंचित बिलम्ब पर । राऊ के मुरछा भइ ओझर ॥ 

जब राऊ गत चेत बिजोगे । तिन के मुख दृग दरसन जोगे ॥ 
अतिसय क्रुद्ध कर कारे पतन । भए गत चेतन तव पुत भू रन ॥ 

बोलइ सीते दुःख धरि भीते आह राउ का भए निठुरे । 
सो बालक सन रन कारि कवन, अधर्म तस मति बहुरे ॥ 
मम लरिकाई किए धरासाई रे बालक किमि कहु तौ । 
किए पतन कवन लरत बाल सन अब गवने कहँ रउ सों ॥  

जब पतिब्रता सिय बटु सों, कहि रहि ऐसन बात । 
आए बीर बर कुस त्यों,मह रिसि गन साथ ॥ 

मंगलवार, ०८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                          

भइ अति बिकल भर लोचन बारि । दरसइ तिन्हन सिया महतारि ॥ 
तब लव आपन जनि सन बादे । मम सों सुत अरु जे अवसादे ॥ 

कहु कँह मर्दरि मोरे भाई । समर सुर सों दी न दिखाई ॥ 
गए कहूँ भँवरन कतहूँ बिहारी । तुम्ह रुदन करि को कर कारी ॥ 

कही जानकी रे मम बच्छर । सुनि मैं गहि लव को के हय कर ॥ 
हय रहि को नृप जग्य प्रसंगे । इँहा अवाऍ बहु रछक संगे ॥ 

जदपि बाहु लव बहु बरिआरे  । सों एक अनेकारि रन कारे॥ 
तदपि ते बिक्रमी दिए हँकारे । बहुस रछक तिन सन लर हारे ॥ 

जे सन गए ते बटुक बहुराए । फेर बाँधत सब बात बताए ॥ 
रे ललना तुम समउ पर आए । गवनउ लवनउ लवनु परिहाए ॥ 

हे जनि जे तुम लौ जान, कहत कुस करे आह । 
लव परिहत गत मैं लान, बंधन मोचित लाह ॥ 

बुध /गुरु , ०९ /१० अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                           

अजहूँ गवन लव मैं तिन नाहू  । बाहि अनी लखहन लख लाहू ॥ 
अमर देव दहूँ सों अरु कोई । चाहे सोंमुख रुद्रहू होई ॥ 

तथापि तिन तिख तर परिहारे । करत तिलछ लहूँ लव तिहारे ॥ 
सुनउ तनिक अरु मोरी माई । रुधत रुदन उर दुःख परिहाई ॥ 

कलि भू जिनकी दीठत पीठे । लगि लाछन तिन पीठहि दीठे ॥ 
जिनकी गति रन कारण होई । पावत परम बीर पद सोई ॥ 

रन कारिन के जस रन कारन । मरनी मारन में रजतंतन ॥ 

मुने कुस के बचन श्रवन, धरि धीरज लवलेस । 
भइ मुदित सुभ लखिनि सिया, कथनत भगवन सेस ॥ 

भाल धनुर धर आयुध नाना । देइ सुत सिस असीस बरदाना ॥ 
कहत सिया पुटी अब तुम गवनौ । कटक बंध लव लेइ लवनौ ॥ 

अस श्रवनत कुस धर कोदंडे । कासित कटि भाथा सर षंडे ॥ 
गुरुबर बिदिया चेतस धारे । भए धन्बिन धनु गुन टंकारे । 

छेप धुनी धन्बन बिस्तारे । देउ नाथ कर जोर पधारे ॥ 
सुमनस जल कण करतल धारे । सिया कुँवर के चरन पखारे ॥ 

बंदन करत झरत जल धारे । बूंद बूंद कंठन गुन्जारे ॥ 
केसरि कंधर उर मनुहारी । लोचन पथ अस जस सर चारीं ॥ 

लाल लवन लक तिलक ललाटे । त्रस रजस परिपाटलित पाटे॥ 
मनि कान्त मुख तनि मुसुकाने । मानहु रघुकुल गाथ बखाने ॥ 

सारंगा सुन्दर, पाटन परिकर कमनइ कुस कटि कस्यो । 
सर सर सिख साखा, सूल सलाका,लाहन लोहन लस्यो ॥ 
बनबासी भेसा, कुंडल केसा, रूप सम्पद रस रस्यो । 
पावन पत पितरक, तेज नयन नक्, रघुबर मुख छबि बस्यो ॥  

रघुकुल तिलक नौ दीपक, नौ नयनाभिराम । 
नौ अभिजनभिवादन कर, जलकन लेइ बिश्राम ॥  

बुधवार, २ ५ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

मात गुरु मुख सुभ आयसु पाए । काया कवच कल सकल सजाए ॥ 
पंकज पद रज सिरौ धराए  ॥ बेगि बहस कुस रन भू पयाए ॥ 

बहोरि कुस रन कामिन कारी । रंग रनक चक चरनन धारी ॥ 
आत भ्रात दिसि लव चौंकारे । मनहु पवन सह पा पौ जारे ॥

कसमसन रसन बंधन छड़ाए । रथ सन लव रन भूमि निकसाए ॥ 
नय कोविद कल कौसलताई । गुरुबर दिए कर दोनउ भाई ॥ 

एक पुर कुस के तिछ्नत बाने । दूज पुर लव के सूलक साने ॥ 
सूर सकल जस उदल तरंगे । सागर सम भट भँवरित भंगे ॥ 

उत सेन सूर श्री राम रघुकुले । इत लव कुस रन रनक संकुले ॥ 
दो रन बाँक़ुर अस कल बादे । जस घन घाँ घाँ घनकन नादे ॥ 

राज रजोकुल पत के सैने । धनुर बान के मुख सन बैने ॥ 
दोनउ पुर बढ़ करकएँ करखें । चरत बान जस बरखा बरखे ॥ 

दोउ भ्रात धनु तर अस तरितें । घन घर जस छनु छबि अवतरिते ॥ 
छन छन जल कन छीनक छनिते । धारिन तस छत बंत छितरिते ॥ 

महरथी समर संग्राम, सूर बीर भरि सैन । 
एक सन एक रन बांकुर, सह रथ बड़ धनु बैन ॥  

जिनके चितबन ऐतक तीखे । भेद लखित लख लखहन दीखे ॥ 
तपित तपोबन तन कर कासे । कोटिक केतु किरन संकासे ॥ 

पीताम्बर बर बेस मुनिसा । रचित कुंडल कल केस कुलिसा ॥ 
भाल भँवर भरि धारिन अंके । मनु धारा धर धारिहि बंके ॥ 

कटक कटक कृत त्रिसूलाकारि । तूर तेज त्रस तेजनक धारि ॥ 
तिनके कासि कसा कोदंडे । कही न जाए तिन्ह गुन षंडे ॥

सूल सिखर सर लाहन लाहू ।  जँह तँह परत दिग बली बाहू  ।। 
आवइ सौंमुख जे सर कोई । छिनु भर मह ते छलनी होई ॥ 

बलइ बली मुख बालि कुमारा । सर निकर तिन्ह कंदुक कारे ॥ 
चराचर कर नभस दुआरे । कबहु उछारें कभु पट्कारें ॥ 

चरत सतत अस सर जर धारा । धन्वन सन जस तरत अँगारा ॥ 
सुभट सुरथ सथ महि महबीरे । भए छतवत हत महि मह गीरे ॥  

बालि तनय जस रन सूर, जिनके चरन अटेर । 
तिन सिया के रन बाँकुर, किए छिनु भर मह ढेर ॥ 

रन चरन गहन धूरि धर, दिए गगनाँगन रंग । 
कारि कंठन कलरव करि, दिसि गोचर मुख अंग ॥  

गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                               

पुनि रन कंठन करकत कैसे । कुलिस कुलीनस रवरत जैसे ॥ 
खैंच  करन लग सरित सरासन । ऐंच नयन सर चरित सनासन । 

दूइ दल हन रन करमन भीरे । जूझत जस दुइ घन गम्भीरे ॥ 
चरत गगन अस सायक सोई । जस धारा धर बाहक होही ॥ 

हटबत सुभट कहरत भू गिरे । को इत तिरे कोउ उत तिरे ॥ 
उठइ धरा पुनि धाए  सुभट्टे । दोउ भाइ मुख मारि झपट्टे ॥ 

पुनि कर्नी कारन लौ लग, कुस कास कोदंड । 
चरत तरत सरत सल्लग, करत प्रघोष प्रचंड ॥      






रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

पुनर लव कर सर धनुर धरिते । लख़त लोचन लख भेद लहिते ॥ 
एक पुर लव एक पुर पितु षदना । सेन रसन जस बसि मध् रदना ॥ 

महरथी समर संग्राम, सूर बीर भरि सैन । 
एक सन एक रन बांकुर, सह रथ बड़ धनु बैन ॥  

सोमवार,३० सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                      

नाम राम रघु नायक धारी । नानायुध रथ बाहि सँवारी ॥ 
तेइ सेन तब हाहाकारी । सौंतुख परि जब दुइ सुत भारी ॥ 

दोइ दृग दीठ रहि सर जूथा । तिलक तेज तिन सूल बरूथा ॥ 
एक बार जेइ दिसा निहारे । डरपत सुभट कवच कर धारे ॥ 

उरस उदर जब लागन भागे । समर सूर तब भागन लागें ॥ 
पूँख पर बट सुभट घर बूझे । का कहि तिन्ह कछु नाहि सूझे ॥ 

कहित पवन सन पूछ बुझाईं । पवन लछन सुत तिन पद नाईं ॥ 
रन कारन आँगन बैसे । देखु दुइ पुर एके कुल कैसे ॥ 

दिग कुंजर सर पुँज पलक, दिसा सिखर बर सूल । 
चारि चरन चर कुञ्ज घर, धरे मात पद धूल ॥  

छन खलदल गंजन दुःख दाई । सत्रुहन राजन सों बढ़ आईं ॥ 
सोंहत रहि जे लवहु समाने । तिन कुस सन रन कारन आने ॥ 
इसी समय दुष्टों के दल वीरों को ताप देने वाले राजा शत्रुध्न आगे बढ़े और भ्राता लव के सदृश्य ही प्रतीत होने वाले वीरवर कुश से युद्ध करने हेतु उसके सम्मुख आ गए ॥ 

पाहि पैस के पूछे सोईं । हे महाबीर तुम को होई ॥ 
काइ कलेवर तुहरे रूपा । भान देइ निज भ्रात सरुपा ॥ 
समीप पहुँच कर  उन्होंने  पूछा : -- महावीर ! तुम कौन हो ? तुम्हारा आकार-प्रकार और रूप आकृति से तुम अपने भ्राता लव क्जेसे प्रतीत होते हो ।। 

तव भुज दल अतुलित बल धामा । कहु तौ का तुहरे सुभ नामा ॥ 
को तव जने तुम्ह किन जाता । कँह तव जनि कँह जनिमन दाता ॥ 
तुम्हारी भुजाएं अतुल्यनीय बल का धाम हैं । कहो तो तुम्हारा सुभ नाम क्या है ।। वो कौन हैं ? जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया, तुम किनके पुत्र हो ? तुम्हारी माता कहां है ? तुम्हारे जन्म दाता कहां हैं ? 

कहत कुस सोइ मात हमारी । पति ब्रता धर्म पालन कारी ॥ 
श्री सीता सुभ जिनके नामा । जन्मे हम तिन गर्भन धामा ॥ 
कुश ने कहा : -- जो पातिव्रता धर्म का पालनकरने वाली है वह हमारी माता हैं ॥ सुश्री सीता जिनका शुभ नाम है । हम उन्हीं के पावन गर्भ धानी से जन्में हैं ॥ 

गुरु बाल्मिक पद बंदत, कारत सेवहि मात । 
एहि सघन बिपिन मह रहत, हम दोउ यमज भ्रात ॥ 
महर्षि गुरु वाल्मीकि के चरणों की वंदना कर तथा माता की सेवा में अभिरत हम दोनों युगल ब्भारा इसी सघन विपिन में ही रहते हैं ॥ 

शनि/रवि १२/१३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                              

प्रथम गुरु भई हमरी माई ।  जे धरे कर चरन सेखाईं ॥  
हमरे गुरु मह रिसि बाल्मीकि । देइ सब बिधि बल बिद्या नीकि ॥ 
प्रथम गुरु स्वरूप में स्वयं हमारी माता हैं, जिन्होंने हाथ पकड़ कर हमें चलना सिखलाया ॥ और जिन्होंने सभी प्रकार की सुन्दर विद्या का बल दिया वे गुरुवर महर्षि वाल्मीकि हैं ॥ 

तिन कर भए हम परम प्रबीने । सकल लखन गुन तिनके दीने ॥ 
भ्राता लव अरु कुस मम नाऊ । कहु तुम को का तव परिचाऊ ॥ 
जिनके कारण हम कुशल कोविद हुवे ये समस्त शुभ गुण एवं शुभ लक्षण जिन्हुन्ही की देन हैं ॥ हमारे भ्राता का नाम लव है और हमारा कुश है । अब कहो तुम कौन हो ? तुम्हारा परिचय क्या है ? 

समरथ सूर बीर जुजुधाना । दिए दरसन तुहरे मुख भाना ॥ 
बयसय जवनय हय जे सुन्दर । कहु तिन्ह इहाँ छाड़े को कर ॥ 
तुम्हारा श्री मुख के दर्शन से तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम एक समर्थवान सूर वीर योद्धा हो ॥ कहो वय वर्द्धित तीव्रवान इस सुन्दर घोड़े को तुमने यहाँ किस कारण से छोड़ा है ॥ 

दरसन मह लागहु बरिआरे । कारौ रन पुनि संग हमारे ॥ 
तीर तुरावइ छन उर धारों । तुदन तुम्ह कौ तीरित कारों ॥ 
देखने में तुम बहुंत बलशाली प्रतीत होते हो । यदि ऐसा है तो फिर मेरे साथ युद्ध करो ॥ तीव्र गति से चलने वाले तीरों को मैं अभी तुम्हारे हृदय में उतार कर तुम्हारा कार्य समाप्त कर दूँगा ॥ 

जे सिय राम रजस जात, सत्रुहन जब ते जान । 
तिन चितब ए चितबत बात, कौउ भाँति ना मान ॥ 
ये ( युगल पुत्र ) सिया रामचन्द्र के रजस से उत्पन्न हुवे है, जब शत्रुध्न ने यह जाना । यह स्तब्ध कर देने वाली बात को शत्रुध्न के चित्त ने किसी प्रकार से भी स्वीकार नहीं किया ॥ 

रन हूँत तर्जित जातक दोई । जेहि कारन धरे धनु सोई ॥ 
जब कुस दरसे तिन धनु धारे । खैंच रोख के रेख लिलारे ॥ 
चूँकि इन जातकों ने उन्हें रन हेतु ललकारा था ।इस कारण  शत्रुध्न ने धनुष धारण किया ॥ जब कुश ने उन्हें धनुष धारण करते हुवे देखा । तब उसके मस्तक पर क्रोध की रेखाएं अंकित हो गई ॥ 

सूल सरि सर कठिन कोदंडे । गहत हस्त तल तार प्रगंडे ॥ 
धरत बरत बर बाण बिताने । काषत कासि करन लग ताने ॥ 
 फिर कुश ने अपने कंधे से शूल के सदृश्य बाण और कठोर धनु को उतार कर हाथों में ग्रहण किया ॥ और धनुष गण पर बाण को साध कर प्रस्तारित करते हुवे अपनी मुष्टिका में कसते हुवे उसे कर्ण तक तान लिया ॥ 

बहुरि दोएँ संधानत चापे । आन आन बन बान ब्यापे ॥ 
दरसत धनबन लखहन लाखे । जे दरसन बहु बिस्मइ राखे ॥ 
फिर दोनोब छोर के संधानित धनुष से बाण आ आ कर बन भूमि ( जो कि रन भूमि में रूपांतरित हो चुकी थी ) में व्याप्त होने लगे ॥ आकाश में लाखों बाण दर्शित होने लगे यह आक्शीय दर्शन अत्यधिक विस्मय कारी था ॥ 

ते काल रन उद्भट कुस क्रुधे । किए प्रजोग नारायनाजुधे ॥ 
सत्रुहा पतहु बहु बिक्रम होई । यह आयुध हत सके न सोई ॥ 
उसी क्षण रन उद्भट  कुश कुपित हो उठा । और उसने नारायण आयुध का प्रयोग किया ॥ शत्रुधन की पद प्रतिष्ठा भी बहुंत ही पराक्रमी थीं  अत: यह आयुध उन्हें बाधित करने में असफल हुवा ॥ 

ए सोचत भए अधीर, करिअ कुँवर कोप असीँव । 
बिक्रमी मह बलबीर, नृप सत्रुहन सों कहे ॥  
ऐसी विवेचना कर अधीर होते हुवे सिया कुंवर कुश के क्रोध की सीमा नहीं रही । महाबली, महावीर,महा पराक्रमी राजा शत्रुध्न से कहे : -- 

सोमवार, १ ४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

हे मह राऊ यहू मैं जाना । तुम बर रन बादिन मैं माना ॥ 
कारन जे मम अजुध भयंकर । भए असमर्थ तव बिधन तनिकर  ॥ 
हे महाराज मुझे इस बात का तो संज्ञान हो गया है, और में मानता हूँ कि तुम श्रेष्ठ योद्धा हो ।  इएसे संज्ञान और मान का कारण यह है कि  मेरा यह भयंकर आयुध तुम्हारा अल्पांश प्रतिरोध करने में भी असमर्थ रहा ॥ 

तदपि एहि छन मैं लै त्रिबाना । करुँ पतत इह लीला बिहाना ॥ 
जे मैं तव अस बयस न कारूँ । तो तुम्ह सोंह किरिया पारूँ  ॥ 
तथापि मैं इसी क्षण त्रयबाण लेकर पतन करते हुवे तुम्हारी इह लीला समाप्त कर दूँगा ॥ यदि मैं तुम्हारी ऐसी
अवस्था न करूं तो आज तुम्हारे सम्मुख यह प्रतिज्ञा करता हूँ : -- 

चह कोटिक कृत कारित कोई । मनुख जोनि तिन लब्ध न होई ॥ 
ते जोनि जोइ पावन हारे । मोह बस करि न तिन सत्कारे ॥ 
चाहे कोई करोड़ों सुकृत्य कारित करे फिर भी यह मनुष्य की योनि उसे प्राप्त नहीं होती । और इस योनि के प्राप्त कर्त्ता माया मोह वश इसका आदर नहीं करते॥ 

 ऐसे नर जे पातक लागी ।तिन सौंतुख भयऊँ मैं भागी ॥   
अस कहबत कुस मुख धुँधकारे । भेद धुनी धन्बन बिस्तारे ॥ 
ऐसी जीवात्माँ जिस पाप से बाधित होते हैं उन्ही के समरूप मैं भी उसी पाप का भागी बनूँ ॥ ऐसा कहते हुवे कुश के मुख ने गर्जना की । जिसकी गुंजार गगन को भेदते हुवे चारों और प्रस्तारित हो गई ॥ 

लावन बदन ललित लोचन, लाहत लाल अँगार । 
मनहु मानस मुख मंजुल, कमल मुकुल मनियार ।। 
मनोहारी मुखाकृति,सुन्दर लोचन, उसपर क्रोध की लालिमा  । मानो मुख रूपी सुन्दर मान सरोवर में अंगार रूपी अध् खिले कमल शोभायमान हो ॥ 

मंगलवार, १५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

चेतत गुरु पुनि कुस लिए चापे । परस भाल मुख मंतर जापे ।। 
अरु कहि राजन अब मैं नेते । आपन काल कल्पत सचेते ॥ 
तत्पश्चात अपने गुरु का ध्यान कर, कुश ने धनुष लिया, फिर धनुष को मस्तक से स्पर्श करते हुवे दीक्षा प्राप्त मंत्र का जाप किया ॥ और कहा हे राजन अब मैने यह निश्चय कर लिया है अत: तुम अपने काल की कल्पना कर सावधान हो जाओ ॥ 

कारूँ  पतन तव में तत्काला । बाँधउ बल सन बान ब्याला ॥ 
हे धन्बिंन कह सत्रुहन भासे । छाँड़ौ लखहन बदन बिहासे ॥ 
मैं तुम्हें इन सर्प सदृश्य बाणों से बांधकर तत्काल ही तुम्हारा पतन करता हूँ, ॥ तब शत्रुहन ने मुस्कराते हुवे ( व्यंग पूर्वक) ऐसे वचन कहे - हे धनुर्धारी ! 'बाण चलाओ'॥ 

सत्रुहन हरिदै भवन बिसाला । तरत सारँगी नीरज माला ॥ 
तमकि ताकि कुस तीर बिताने । मुकुलित मुख प्रफुरित मुसुकाने ॥ 
तब शत्रुध्न के विशाल वक्ष, जहां कि नाना वर्णों से युक्त स्वेद कणों की मुक्तिक मालाएँ उतर रही थीं को उद्वेग सहित ध्यान पूर्वक एखाते हुवे कुश ने बाण प्रस्तारित किया ,उस समय कुश के अध् खिले मुख पर एक मुस्कान खिल गई ॥ 

बाहु दल दृग जोजित काँधे । लखत लखनक लख सीध बाँधे ॥ 
काल अनल फल बान कराला । छुटै प्रथम सों कनक ज्वाला ॥ 
कंधे, दृष्टि एवम भुजाओं को की युक्ति से लक्ष्य चिन्हों को साधते हुवे देखा ॥ फिर कालाग्नि के सदृश्य भयंकर मुख वाले प्रथम बाण फिर चिंगारी के जैसे छूटा ॥ 

सत्रुहन लोचन कुस करत देख बान संधान । 
भए अतिसय कुपित तब जब, सर सर निज सों आन ॥ 
शत्रुध्न की दृष्टि ने कुश के बाण संधान करते हुवे देखा तब अत्यधिक कुपित हो गए जब सर-सर करता बाण उनकी ओर आने लगा ॥ 

बुध/गुरु, १६/१७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                             

प्रभु रघुबर सुध मानस मंते । आन बान सों घानि तुरंते ॥ 
भय कुस कुपित कटत नाराचे । अगन कण मुख भरकत नाचे ॥ 
तब प्रभु श्रीरामचंद्र जी का स्मरण कर शत्रुध्न ने मन ही मन मंत्रणा की । सन्मुख आते बाण को तत्काल ही नष्ट कर दिया ॥ बाण के नष्ट होते ही कुश क्रोधित हो उठा और उसके मुख पर क्रोध के अंगारे भड़कते हुवे नृत्य करने लगे ॥ 

सैलबान सल श्रिंग सलाका । सुधित सान सन लोहित लाखा ॥ 
लोहितेखन लख लौंक उठाई । बरत धनुर दूज बान चढ़ाईं ॥ 
पत्थर जैसे कठोर बाण जिनके फल शलाकाओं के समान तीक्ष्ण थे । और उस फल की धातु शान पत्थर की कसौटी पर लाखों बार कसे हुवे थे ॥ ऐसे बाणतूण लिए कुस ने जलती हुई आँखों से लक्ष्य को निहारा और धनुष उठा कर प्रत्यंचा में दुसरा बाण चढ़ाया ॥ 

छत कारन उर चरे प्रचंडे । चढ़े घात सत्रुहन किए खंडे ॥ 
पुनि कुस सुध जनि पदार्विंदे । धर धनुबर तिज सर लखि विन्दे ॥ 
तद उपरान्त तीक्ष्ण बाण प्रत्यंचा छोड़ कर शत्रुध्न के ह्रदय को घायल करने हेतु प्रस्थान किए । ताक में बैठे शत्रुधन ने उन्हें खंड खंड कर दिया ॥ फिर कुश अपनी जननी के चरण कमलों का स्मरण किया  और श्रेष्ठ कोदंड धारण कर लक्ष्य प्राप्त हेतु तीसरे बाण का संधान किया ॥   

तीख तीज तर धुरु उपर धाए । घानन्ह सत्रुहन चाप उठाए ॥ 
निकर निकर कर सर सर सरिते । गगन सरन जस किरन बिकरिते ॥ 
तीसरा तीक्ष्ण बाण उपरोपर दौड़ाने लगा, जिसे नष्ट करने के लिए शत्रुध्न ने धनुष उठाया 

तासु पूरब जे आए धिआना । भए पत भू हत लागत बाना ॥ 
लागत सर तन छतवंत कृते । बहुरी सत्रुधन भए मूर्छिते ॥ 
और इसके पहले कि उसे नष्ट करने का ध्यान आता बाण अपना लक्ष्य प्राप्त कर चुका था, जिससे शत्रुध्न हतवत होकर रण भूमि पर गिर गया ॥ 

हतत सत्रुहन रन परत पहुमी । परावत कटक चिक्करत धुमी ॥ 
तेइ समउ निज भुज बलवंता । समर बीर कुस भयउ जयंता ॥ 
शत्रुध्न घायल होकर रण भूमि गिर गए । ( यह देख) सेना में भगदड़ मच गई और वह चीत्कार करती रन भूमि में विचरने लगी ॥ 

कहत भगवन सेष मुने, सुरथ सिरौमनि बीर । 
रामानुज रन भू पतन दरसत भयउ अधीर ॥ 
भगवान् शेष जी कहते हैं हे मुने ! वीरों के वीर राजा सुरथ ने जब श्रीरामचन्द्र के अनुज शत्रुध्न का पतन होते देखा तब वे अधीर हो उठे ॥ 
रचित खचित चित अति बिचित्र, मनिमत रथ रतनार । 
 तापर तत्पर बिराजित, लिए रन भू अवतार ॥ 
और फिर अति अद्भुद रक्त वर्ण माणिक्यों से खचित, सुरुचित श्रेष्ठ रथ में विराज कर सुरथ तत्परतापूर्वक रन भूमि में उतरे ॥  

शुक्रवार, १८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                   

जिन कर केसर बाहिनि राधे । बढ़े कुस सौ रथ रस्मि साधे ॥ 
जोंहि सुरथ कुस सोंमुख पैठे । तोंहि थिरत रथ चरनन ऐंठे ॥ 
जिन हाथों से अष्ट भुजा धारी, वनराज वाहिनी, माता दुर्गा की आराधना की थी । उन्हीं हाथों से उस अद्भुद पच्चीकारी रथ की किरणों को साधे आगे बढ़े ॥ जैसे ही  राजा सुरथ कुश के सम्मुख पहुंचे वैसे ही  रश्मियों ने गतिशील चक्रों को  नियंत्रित करते हुवे ,रथ को स्थिर किया ॥   

छाँड़े पुनि पख पुंज अनेके । केर बिकल कुस चहुँपुर छेके ॥ 
सकुपित कुस तेहि लै दखीना । सार बान दस किए रथ हीना ॥ 
फिर राजा सुरथ ने  बाण संधान कर समूह के समूह छोड़े । और कुश को व्यथित करते हुवे उसे चारों और से घेर लिया ॥ इससे कोपित होकर कुश ने परिक्रमा करते हुवे दस बाण चला कर सुरथ को रथ हीन कर दिया॥ 

कठिन कोदंड कसि प्रत्यंचे । किए खंड खँडल सकल बिरंचे ॥ 
बिरथ सुरथ पथ दरसत कैसे । फुर फर पतहिन् को तरु जैसे ॥ 
फिर प्रत्यंचा कसा हुवा कठोर धनुष सहित सुरथ की समस्त साज सज्जा को खंड खंड कर दिया ॥ रथहीन सुरथ कैसा दिखाई दे रहा था जैसे वह कोई वृक्ष प्रसूनहिन् वृक्ष हो ॥ 

दोउ प्रबल अब सों पत राखे । लाखि परस्पर एक एक आँखे ॥ 
छाँड़त एक को अस्त्र प्रचंडा । बेगि दूज किए तिन तिन खंडा ॥ 
दोनों बलवान की प्रतिष्ठा अब एक सी हो गई । और वे एक दूजे को काट खाने लगे ॥ यदि कोई एक दिव्यास्त्र का प्रयोग करता तो दुसरा उसे शीघ्रता पूर्वक नष्ट कर देता ॥ 

एक को आयुध जुगत प्रहारे । दुज संहारत सह प्रतिकारे ॥ 
लै को बरछी भाल उछालै । किए भंजन दुज तिन तत्कालै ॥ 
एक कोई शस्त्र का प्रयोग करता दूजा प्रतिशोध के सह उसे लौटा देता ॥ । कोई यदि बरछी भाले उछालता तो दूजा उसे तत्काल ही खंडित कर देता ॥ 

एहि बिधि द्वी दल गंजन, हेति हत दुइ छोर । 
रोम हर्षक यहु दरसन, गोचर रन घन घोर ॥ 
इस प्रकार दोनों भारी वीर, दो छोरों से परस्पर आघात प्रतिघात कर रहे हैं । यह दृश्य अत्यधिक संकुल स्वरूप में  रोंगटे खड़े कर देने वाला है ॥ 

शनिवार, १९ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

अजहुँ कारौं का कुस बिचारे । कृत निज करतब निश्चय कारे ॥ 
ततछन धारत करधन गोईं । तेज भयंकर सायक सोईं ॥ 
कुस ने मन ही मन विचार विमर्श किया कि अब आगे कौन सी नीति वरण करूँ , फिर उसने अपने कर्त्तव्य करने का( जो की एक रन योद्ध का होता है ) निश्चय किया  और तत्काल ही उसने करधनी में खचित किया  हुवा एक तीक्ष्ण एवं भयंकर बाण को हाथों में लिया ॥ 

तासु दंत नख ब्याल सरिसा । छुटै छन घन काल कुलिसा ॥ 
तरत सुरथ सन्मुख अस धावैं । काल देव जस जिउते आवैं ॥ 
उस बाण के दन्त सिंह के नख के सदृश्य थे और वह घनी घटाओं से चमकती हुई बिजली के जैसे छूटा । सुरथ के सन्मुख वह तैरटा हुवा सा ऐसे गति कर रहा था जैसे मृत्यु का देवता यमराज ही स्वयं आ रहा हो ॥ 

 जोंहि तासु किए कटख प्रयासे । तोंहि महा सर उर गह धाँसे ॥ 
लगत गाँसी सुरथ हँकराई । अरु निपतत भयउ धरासाई ॥ 
जैसे ही सुरथ ने उसे काटने का प्रयास किया वैसे ही वह महा बाण सुरथ के हृदय में जा धँसा ॥ उस बाण का फल लगते ही सुरथ ने एक चिंघाड़ लगाई और  घायल होकर भूमि पर गिर पड़े ॥ 

सोइ सुरथ सुत बहि ले गवने । तासु पतन कर भए कुस जयने ॥ 
दरस ए दिरिस बलीमुख जोधा । धूनत जरत अगन प्रतिसोधा ॥ 
शयनित अर्थात मूर्छित सुरथ को उसका सारथी रन क्षेत्र से बाहर ले गया । उसका पतन कर कुस विजयित हुवा ॥ 
सुरथ की मूर्छा का दृश्य देखकर योद्धा वानर क्रोध वश कांपते हुवे प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगे ॥ 

 फरकत बजरागी अंग, प्रनदत किए घन नाद । 
गहु पुरब प्रसरे प्रसंग, तिनके परच प्रसाद ॥  
महाबली हनुमान के अंग भी फड़कने लगे और वे घन ना के सदृश्य गर्जना करने लगे । इससे पूर्व की यह प्रसंग आगे बढे महाबली बजरंग का परिचय-प्रसाद ग्रहण करते चलें ॥ 

गुरूवार २६ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                                   

तरु मृग मारुत सुत हनुमंता । किए जे पयोधि पार तुरंता ॥ 
बर कबहुक लघु रूप रचाईं । पठतइ निकसे मुख सुरसाईं ॥ 

कनक कोट के चमक चकासे । हट बट चौहट नगर निकासे । 
सैल सरि सर  लंका बनबारि। चित्र चितेर कर देइ  लंकारि ॥ 

पुनि परबत मह इंद्र उछंगे । पाट पयधि सत जोजन लंघे ॥ 
जामि घोष जाजाबर केरे । जामिन जब लंका पुर घेरे ॥ 

समर सूर गन घर घर हेरे । राम बोधिते आँगन घेरे ॥ 
हेर बिभीषन रावन भाई । तेइ परच सिय कथा बुझाईं ॥ 

माता सीता बन रह जहवाँ । मसक सरिस रूप गवने तहवाँ ॥                                                                 बेसत तरुबर मुँदरी डारी । राम नाम बर अंकित कारी ॥ 

प्रभु अंकन सिय जब पहचाने । आवै तब सौमुख हनुमाने ॥ 
मैं  राम दूत कहि हे माता । तुहरे हमरे जनि सुत नाते ॥  

पुनि कर जोर निज श्री मुख, किये राम गुन गान । 
कहत हरत मात के दुःख, तव हेरन मैं आन ॥   

शुक्रवार, २७ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                         

सुरत नाथ नयनन घन घारे । साख सुमन सरि जवल कन झारे ॥ 
पूछीं हिय पिय मोहि बिसारीं । भूर भई का ऐतक भारी ॥ 

 देइ संदेस हनुमत तेही । धैर हिया तब धरि बैदेही ॥ 
राम चन्द्र तव लेवन आहीं । तनिक दिवस अरु धीर धराहीं ॥ 

पाए सिया कर सीस आसिषे । प्रेम पाग कपि नयन जल रिसे ॥ 
चरण नाइ कपि लेइ बिदाई । करन चले लंका उजराई ॥ 

सकल निसाचर करि संघारे । मर्द मर्द महि मरतएँ मारे ॥ 
इंद्राजीत लंकेस कुमारे । अर्थ कर दिए धोबी पछारे ॥ 

एहि श्रवनत दनुपत दुर्बादे । परचत तिन कपि क़िए संबादे ॥ 
कह बत हनुमत बहस समुझाए । प्रभु राम धरा धिया बहुराएं॥ 

तुम साखामृग मति मंद, हम भरू भूमि बिलास । 
कँह चित चित्ती कँह चंदु, कहि दनुपत कर हास ॥ 

शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

दसानन कपि हन आयसु दाए । पुनि दनुगन तिन्ह मारन धाए ॥ 
कहि बिभीषन कर बहुस बिनिते । दूत हनन नय नीति बिपरिते ॥ 

 कहत दसानन लिए अटहासे । बसत कपि के पूँछ भित साँसे ॥ 
तेल बुरे पट देइ बँधाईं । कहत दनुज पुनि लाग लगाईं॥ 

करतल सकल जन धुनी देईं । फेर चहूँत पुर पूँछि जरेईं ॥ 
पवन ताने धर अगन लगारी । जारत फिरि भू भवन अटारी ॥ 

लपट लपट ऐसेउ झपटाए । जस तिन तूल संबाहिन पाए ॥ 
अकुल बियाकुल लख लगन लाहि । कहत त्रसत तस त्राहि मम त्राहि ॥ 

मंजुल मंडित सोन सुबरनित भंजन भवन भू भूति । 
दहन केतु धर धुरियन ऊपर दिए गगन धूनन धूति ॥ 
कर्पुर घारि द्वीप दुआरि दहत धूमलाभ लहे । 
मानहु लंका करि निज डंका  आपन रुप कलुख कहे ॥ 

उथल पुथल कर सिंहला, सोन सुबरन दहाइ । 
बहुरि बली मुख निमज्जत, पयोधि पूँछ बुझाइ ॥ 

रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                                  
तेइ कुस लखि अवतरे आँगन । लेइ हनन हनुमन मन कामन ॥ 
सुरथ के बिगत सैन सँभारे । गगन भेदि घन नाद उचारे ॥ 

तेइ हनुमत उपार पहारे । नभो गति गहत लै कर धारे ॥ 
लगे बान उर मूर्छा पाए । हेर संजीवन लखन जियाए ॥ 

रहहि संग जे अस रघुनाथे  ।  ताप धूप जस छाया साथे ॥ 
तेइ हनुमत अज ज्ञान बिहिना । दोउ प्रभु तनए जानत रहि ना ॥ 

रन कामिन कर ठाड़ बिरोधे । राम सेन सन रंगन जोधे ॥ 
दिसि हनुमत एक पाहन लिन्हे । बल पूरबक प्रबिद्धन किन्हे ॥ 

पाए पवन पाहन जस धूरे । किये लव तिन्ह चिकिना चूरे ॥ 
दिरिस दरस एहि कवन अकारी । जिमि हिम उपल के धारि बारी ॥ 

ऊपर देख छोरे उपल आपन मुख पर आत । 
आपन गाल बजाए ते खावत आपन घात ॥  

रविवार, २० अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                          

बजर अंग तन भवन अलिंदु । छनन मनन हन कोपित बिंदू ॥ 
लंकाहन रहि मह बल्बाना । धूनत गिरी तिन धुनि कर काना ॥ 

लिए बलबन भुज दल बन काला । पतअरु एक तरु साल बिसाला ॥ 
सौंतुख कुस कर बिटप सहारे । भए आतुर उर पर दे मारे ॥ 

खात घात पर कुस ना हारे । लिए बीर बर अस्त्र संहारे ॥ 
रहि दुर्जय जे तेइ निछेपे । दरसत तिन तनि हनुमत झेंपे ॥ 

बहुरि मन भगवन बिहन हारी । रामचंद्र के सुमिरन कारी ॥ 
सुमिरत हनुमत दरसत कैसे । तड़तइ बालक माता जैसे ॥  

धावाताए अस्त्रासु अस निकट बिकट बिकराल । 
घातन उरस स्वयं जस,प्रगस भए देउ काल ॥  

सोमवार,२१ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                       

ऐतक ही मह घातत करके । दारत उरस दास रघुबर के ॥ 
धरत बदन घन नादन बानी । ताड़न तड़ित प्रभा कर सानी ॥ 

गंधत अस जस अगनित गोले । आयुध आपन आपइ बोलें 
लागत वाके चेत बिहाईं । अनुमत के मति मुरछा छाई ॥ 

फिर तौ रन भू कुसहि कुस छाए । मुदितइ बिसिख पर बिसिख चलाए ॥ 
चरत उरत सर गगन ब्यापे । अस जस बायुर पत सन ढाँपे ॥ 

अवध देस की अर्धांगिनी । कोटि पाल कटक चतुरंगिनी ।। 
चरन चरन रन आँगन गाढ़े । अटल प्रबल ते चरन उपारे ॥ 

होवत बिकल सेन सकल, बिसिख बिसिख उर लाग । 
गहिहिं जे आजुध भुजदल, तज रहि भागाभाग ॥   


बुधवार, ०२ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                      

ते जय बटु मनोबल बढ़ाईं । कारत कुस जयघोस सुहाईं ॥ 
ता बय बानर बर बलहिनि के । भए संरछक बृहद बाहिनि के ॥ 
वह विजय, लव कुश के सहायक बाल ब्रम्हाचारियों का मनोबल बढाने वाली थी । और वे कुश का विजय घोष करते अत्यधिक सुहावने प्रतीत हो रहे थे ॥ उस समय अवध की उस भारी किन्तु बलहीन सेना के वानरराज सुग्रीव संरक्षक हुवे ॥ 

बीर बली मुख राज सुग्रीवा । रिष्य मूल परबत के दीवा ॥ 
जे रहि प्रभु राम गहन मिताए । जिन पहिं दास हनुमंत पाए ॥ 

बलधि बालि रहि जिनके भाई । जिन सन प्रभु के होइ लराई ॥ 
सुग्रीव राज करत छल छिन्हे । हत कारित तिन प्रभु ले दिन्हें ॥ 

रहि बहस सोंह जिनके सहाइ । जलधि उदधि पल पयोधि बँधाइ ॥ 
जिनकी बानर सेन सुहाई । समर सूर सह बहु बलदाई ॥ 

नीति कुसल कर रन लंकेसे । भए बिजइत कर लंका देसे । 
जिन्ह सह्चार राम सुधीता । मारे रावन लवाइ सीता ॥    

ते सुग्रीव मित्र धारि सन, कारै रन घन घोर । 
तड़ग खडग कटि कर धार, किए चिकार कठोर ॥   



















गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                               

पुनि दूइ दल रन करमन भीरे । भीरत जस दूइ घन गम्भीरे ॥ 
चरत गगन अस सायक सोई । जस धारा धर बाहक होही ॥ 

सौतत सैनिक होवत सोहें । हरीस कुस के सौंमुख होहें ॥
बढ़इ बाहु बल दिए लंगूरे । परइ धरा पद उराइ धूरे ॥ 

एक पल कुस दिसि धुंध धराई । निकसत धनु सर इत उत धाईं ॥ 
कल कोमल करताल मलियाए । निर्झर जर सन परम पद पाए ॥ 

हटबत सुभट कहरत भू गिरे । को इत तिरे कोउ उत तिरे ॥ 
उठइ धरा पुनि धाए  सुभट्टे । दोउ भाइ मुख मारि झपट्टे ॥ 

पुनि कर्नी कारन लौ लग, कुस कास कोदंड । 
चरत तरत सरत सल्लग, करत प्रघोष प्रचंड ॥ 

मंगलवार,२२, अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                            

पुनि तेहि कंठ करकन कैसे । कुलिस कुलीनस घटघन जैसे ॥ 
खैंच करन लग सरित सरासन । ऐंच नयन सर चरित सनासन । 
फिर (संरक्षक हो रन भूमि में उतरते ही) उसका गला कैसे गर्जा जैसे जल युक्त घने बादलों का साथ प्राप्त कर बिजली गरजती है ॥ फिर सुग्रीव ने  धनुष की प्रत्यंचा को कान तक खिंच कर तिरछे लोचन कर सनासन की ध्वनी करते तीर छोड़े ॥ 

उपार उपल सैल अनेके । धाए कुस सों भुज दंड लेके ॥ 
किए खंडन तिन कुस एक साँसे । खेलत उदयत हाँस बिहाँसे ॥ 
अनेकों शिलाओं और पत्थरों को उखाड़ कर अपनी भुजाओं में लिए कुस की ओर दौड़े ॥ जिन्हें कुश ने हँसी-खेल में  एक ही  स्वांस में खंडित कर दिया ॥  

सुग्रीव बेगि बहुस बिकराला । धरे कर एक परबत बिसाला ॥ 
कुस लखित कर लाखे लिलारे । औरु सबल ता पर दे मारे ॥ 
फिर सुग्रीव ने अत्यधिक भयानक एक विशाल पर्वत लिया, और कुश को लक्ष्य कर उसके मस्तक को लक्ष्य चिन्ह कर पुरे बल के साथ उस पर दे मारा  ॥ 

दरसत परबत निज सों आने ।  कुस कोदंड बान संधाने ॥ 
करत प्रहार कारि पिसूता । भसम सरुप किए बस्मी भूता ॥ 
जब कुश ने उस पर्वत को अपनी ओर आते देखा तो तत्काल ही धनुष में बाण का संधान कर उस पर्वत पर आघात कर उसे चूर्ण कर
उसे  (महारूद्र के शरीर में लगाने योग्य) भस्म के सदृश्य करते हुवे, नष्ट कर दिया ॥ 

देख कुस कौसल सुग्रीव, भयउ भारी अमर्ष । 
बानर राउ मन ही मन, किये बिचार बिमर्ष ॥ 
कुश का ऐसा रन कौशल देख कर वानर राज सुग्रीव को अत्यंत क्रोधित हो गए । तब  वानर राज मन ही मन रन की भावी नीति कैसी हो, इस पर विवेचन करने लगे ॥  

बुधवार, २ ३ अक्तूबर,२ ० १ ३                                                                      

जोइ जान रिपु लघुत अकारी । सोइ मानत भूर भइ भारी ॥ 
किरी कलेबर जिमि लघुकारी । पैठत नासिक गरु गज मारी ॥ 

लघु गुन लछन इत लिखिनि लेखे । नयन पट उत गगन का देखे ॥ 
सुग्रीव के कर क्रोध पताका । प्रहरत बहि सन गहन सलाका ॥ 

एक तरुबर दरसत कर तासू । धावत मारन कुस चर आसू ॥ 
नाम बान लइ बरुनइ धारा । पथ प्रसारित कुस बिपुल अकारा ॥ 

चहूँ पुर दिग सिरु घेर हरीसा । कसा कास के बाँधि कपीसा ॥ 
बलबाल के कमल कर कासे । बँधइ सुग्रीव कोमली पासे ॥ 

होत असहाय नृतू निपाते । दरसत तिन भट भागि छितराते 
बहुरि बटुक सह लव कुस भाई । हर्ष परस्पर कंठ लगाईं ॥ 

लखहन बरखन पर, अंगन रनकर, संस्फाल फेट फुटे । 
बल दुई बर्तिका, जस दीपालिका, तस भाई दुई जुटे ॥ 
संग्राम बिजय कर, सिया के कुँवर, कमलिन कर कलस धरे । 
बाजि दुंदुभ कल, नादत मर्दल, धन्बन ध्वजा प्रहरे ॥ 





शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

दसानन कपि हन आयसु दाए । पुनि दनुगन तिन्ह मारन धाए ॥ 
कहि बिभीषन कर बहुस बिनिते । दूत हनन नय नीति बिपरिते ॥ 
जब दशानन ने वानर को हताहत करने की आज्ञा दी तब दानव गण उन्हें मारने के लिए दौड़े ॥ फिर दशानन के लघु भरता विभीषण ने अत्यंत ही विनम्रता से कहा : -- हे राजन ! दूत की ह्त्या करना राजधर्म के विपरीत है ॥  

मान भ्रात कहि लिए अटहासे । बसत कपि के पूँछ भित साँसे ॥ 
 तेल बुरे  पट देइ बँधाईं । कहत दनुज पुनि लाग धराईं ॥ 
और लघु भरता की बात को मानते हुवे रावण ने ऐसा कहते हुवे अट्टाहास किया कि वानर का जीवात्मा उसके पूँछ में बसती है ॥ उस पूँछ में तेल से तर किया हुवा कपड़ा बाँध दो और उसमें आग लगा दो ॥ 

करतल सकल जन धुनी देईं । फेर चहूँत पुर पूँछि जरेईं ॥ 
पवन तनय लगि अगन पुछारी। जारत फिरि भू भवन अटारी ॥ 
तब सभी दानवों ने ताली बजा कर खेल करते हुवे हनुमान जी को गोल गोल घुमाया , फिर उनकी पूँछ में आग लगा दी ॥ तब मारुती नंदन ने आग लगी पूँछ से लंका द्वीप के भूमि भवनों एवं उनके खण्डों को जलाते हुवे घूमने लगे ॥ 

लपट लपट ऐसेउ झपटाए । जस तपित तिन संबाहिन पाए ॥ 
लोग बियाकुल लख लगन लाहि । कहत त्रसत तस त्राहि मम त्राहि ॥ 
सब भूमि भवन आग की झपट में आ कर ऐसे लपट देने लगे मानो जलती हुई तृण को वायु का साथ प्राप्त हो गया हो और वह भड़क गई हो ॥ आग लगी देखकर वहाँ के वासी व्याकुलित हो उठे और ट्रस्ट होकर रक्षा करो! हमारी रक्षा करो ! की ध्वनी का उच्चारण करने लगे ॥ 

सुबरन मंडित रतन मनि कलित  भंजइँ भवन भू भूति । 
दहन केतु धर धुरियन ऊपर दिए गगन अगनी धूति ॥ 
कर्पुर घारि द्वीप दुआरि दहत धूमलाभ लहे । 
तिन सों लंका करि निज डंका  आपन रुप कलुख कहे ॥ 
स्वर्ण-मंडित  एवं रत्न माणिक्यों से सुसज्जित भूमि के विभूति स्वरुप भवन खंडित हो गए ॥ वे धुआँ धारण करते हुवे आकाश के उपरोपर आग की लपटें कम्पन करने लगी  ॥ जिस द्वीप के द्वार कर्पूर वर्ण का थे वह आग में धधकते हुवे मटमैले रंग के हो गए और इन कज्जल द्वारिकाओं से लंका, डंका बजा बजा कर अपने कलुषित रूप का बखान करने लगी ॥ 

उथल पुथल कर सिंहला, सोन सुबरन दहाइ । 
बहुरि बली मुख निमज्जत, पयोधि पूँछ बुझाइ ॥ 

शुक्रवार, १५ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                      

तेइ लव लखि अवतरे आँगन । लेइ हनन हनुमन मन कामन ॥ 
आवत छतरित सैन सँवारे । गगन भेदि घन नाद उचारे ॥ 
लव को हनन करने की मनोकामना लिए वे ही महाबली हनुमान रन क्षेत्र में अवतरित हुवे । आते ही उनहोंने छितरित सैन्य समूह को सुनियोजित किया ॥ फिर गगन को भेद करने वाली ध्वनी से गरजना की ॥ 

कपि बल बिपुल भुज दल गहियाए । देख तिन लव बहु बिस्मय पाए ॥ 
बजरी देह सैल सम लागहि । लाल लोचन बरखावत आगहिं ॥ 
वानरराज ने अपनी भुजाओं में अतुलित बल ग्रहण किया हुवा था । जब सीता पुत्र लव ने उन्हें देखा तो उसे अतिशय विस्मय हुवा । उनकी वज्र के सरिस देह लव को शैल के सदृश्य प्रतीत हुई । और उनकी लालिमा युक्त दृष्टि तो जैसे आग ही वर्षा रही हो ॥ 

दिए ऐँठ तनि भुजा पद गाते । करकत तरु दुइ डारि निपाते ॥ 
चरतईं आए जब लव धूरे । लौहितेछन सन लगे घूरे ॥ 
जब उन्होंने अपनी भुजा चरण एवं देह को किंचित ऐंठा । तब कड़कते हुवे वृक्षों कि दो शाखाएँ टूटकर नीचे गिर पड़ी ॥ जब वे चलते हुवे लव के निकट आए । रक्तक आँखों से उसे घूरने लगे ॥ 

कास मुठिका दन्त कटकाईं । मार धुमुक लव दूर गिराईं ॥ 
छनु भर मह लिए पूँछ लपेटे । देवत बल दिए दुइ तिनु फेंटे ॥ 
मुष्टिका कास कर उन्होंने दांतो को किटकिटाया और एक घूँसा मारा , तो उसके प्रहार से लव दूर जा गिरा ॥ फिर क्षण भर उसे अपनी लंगूर में लपेट कर बल देते हुवे दो तिन बार गुरमेटा ॥ 

बाँध बाँगुरिन कसकत गहनी । उठैं गगन कभु अवनि ठनमनी ॥ 
टसकत लव जनि सुमिरन कारे । पुनि एक मुठिका महा प्रहारे ॥ 
कसकर कड़े बंधन में फांसते हुवे फिर उसे ( लव को ) कभी तो ऊपर उठाते कभी धरती पर पटक देते ॥ इस क्रिया से टसकने गा और अपनी मैय्या को स्मरण करने लगा । फिर उसने ( हनुमान जी की पूँछ पर ) मुष्टिका का एक महा प्रहार किया ॥  

दिए धौसत धुनकत धुनत, गहनति गहन प्रघात ॥ 
बानर भयउ बहु बिहबल, बिहुरि बल बिलबिलात ॥ 
और घूंसे से धुनाई करते हुवे वह गहरे प्रहार करने लगा । वानरराज हनुमान जी को कष्ट होने लगा । बिलबिलाते हुवे लव के बल से लव के बल से मुक्ति पाने का अभ्यास करने लगे  ॥ 

 शनिवार, १ ६ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                

बहुरि बाहु लव बिहुरत फेंटें । दिए गुंठित धर पूँछ उमेठे ॥ 
घुर्मि घुर्मि हँसि केलिहि करहीं । महा बीर हनुमत चिक्करहीं ॥ 
फिर लव ने अपनी भुजाओं को उस लपेटे से छुड़ा कर हनुमान जी की पूँछ को गाँठ देते हुवे उसे गुरमेट दिया ॥ और घुमा घुमा कर हँसते हुवे खेल करने लगा । उधर महावीर हनुमान कष्टमई होकर चीत्कार उठे ॥ 

साध सकल बल लेइ छोड़ाए । रिस भरे देइ गदा घुरमाए ॥ 
तासे परत चपेटिन आने । बाँचत लव किए नत सिरहाने ॥ 
फिर अपना सारा बल लगा के किसी प्रकार से पूँछ को लव से छुड़ाया । और क्रोध में भरकर गदा को तीव्रता पूर्वक घुमा दिया ॥ इससे पहले कि लव उस गदे के चपेट में आते । उन्होंने अपना शीश झुकाया और स्वयं की रक्षा की ॥ 

छूटत गदा बहु उरेउ गिरे । भयउ कुपित कपि आपा बहिरे ॥ 
बहोरि एक बर सेल उपारे । लखि कर लव मस्तक दे मारे ॥ 
लक्ष्य हिन् गदा मारुती नंदन के हाथ से छूट गया और दूर जा गिरा । इससे वे क्रोधवश आपे से बाहर हो गए । फिर उन्होंने एक बड़ा भारी पत्थर को उखाड़ा और लव के मस्तक का लक्ष्य कर उसपर दे मारा ॥ 

एहि लख सो भए लाल भभूका । छाँड़ प्रदल तिन किए सौ टूका ॥ 
कन लग गुन धन्वंतर सारे । उरूज अरि बनाउरि उरारे ॥ 
यह देखकर लव अत्यंत क्रोधित हो उठा और बाणों का प्रहार कर उस पत्थर के सौ टुकड़े कर दिए । फिर उन्होंने की प्रत्यंचा को  चार हाथ की माप तक प्रस्तारित किया और उस समय शत्रु स्वरुप वीर हनुमान पर चढ़ाई करते हुवे बाणावली की बौछार कर दी ॥ 

उरि उरंग सों उरस बिँधाई । अरु हनुमत चित मुरुछा छाई ॥ 
गवने बलि भट सत्रुध्न पाहीं । मुरुछा प्रसंग कहत सुनाहीं ॥
उड़ते हुवे सर्प की भांति ( एक दुर्लभ प्रजाति का विषधारी सर्प जो पेड़ों पर रहता है, और एक पेड़ से दुसरे पेड़ पर छलांग मारता है इसका रंग हरा होता है छलांग मारने के कारण यह उड़ता हुवा प्रतीत होता है, जो छत्तीसगढ़ में पाया जाता है ) वे बाण वीर हनुमत के ह्रदय को भेदने में सफल हुवे  फिर उनके चित्त पर मूर्छा छा गई ॥यह देख वीर सैनिक शत्रुध्न के पास गए और हनुमत की मूर्छा का प्रसंग कह सुनाया  ॥ 

पावत सत्रुहन कान, हनुमत अचेत आगान । 
हिय बहुसहि दुःख मान, भए बिहबल यह सेष कहे ॥ 
भगवान शेष मुनि वात्स्यायन से कहते हैं हे मुने ! : -- हनुमत की अचेतना के वृत्तांत को सुनकर शत्रुधन के ह्रदय ने  बहुंत ही दुःख माना और वे शोक से विह्वल हो उठे ।। 

रविवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

अब सोइ आप लिए दल गाजे । सुबरन मई रथ पर बिराजे ॥ 
लरन भिरन ते पौर पयाने । जहँ बिचित्र बीर लव रन ठाने ॥ 
अब वे स्वयम् ही स्वर्णमयी रथ पर विराजित होकर श्रेष्ठ वीरों को साथ लिये युद्ध हेतु उस ड्योढ़ी की और प्रस्थान किए जहाँ वह विस्मयी कारक वीर बालक लव युद्ध छेड़े हुवे था ॥ 

लोकत लव तँह पलक पसारे । सत्रुहन मन बहु अचरज कारे ॥ 
जिनके कहान दिए न ध्याना । साँच रहि सोइ सुभट बखाना ॥ 
वहाँ लव को देखते ही शत्रुध्न की पलकें आश्चर्य से प्रस्तारित हो गई और उनका मन बहुंत ही आश्चर्य करने लगा ॥ जिनके कथनों पर शत्रुधन ने ध्यान नहीं दिया वे वीर सैनिक सत्य ही कह रहे थे ॥ 

स्याम गात अवगुंफित रुपा । येह बालक श्री राम सरूपा ॥ 
नीलकमलदल कल प्रत्यंगा । बदन मनोहर माथ नयंगा ॥ 
श्याम शरीर, सांचे में ढला हुवा रूप,यह बालक तो वास्तव में श्री रामचन्द्रजी का ही स्वरुप है ॥ नीलकमलदल के सदृश्य सुहावने प्रत्यंग ऐसा मनोहारी मुखाकृति औए\और माथे पर का यह चिन्ह ॥ 

एहि बीर सपुत अहहैं को के । ऐ मति धारत तिन्ह बिलोकें ॥ 
पूछत ए तुम कौन  हो बतसर । जोइ मारे हमरे बीर बर ॥  
यह वीर सुपुत्र  किसका है ? ऐसा विचार करते एवं उस बालक को ध्यान पूर्वक देखते हुवे शत्रुध्न ने पूछा : -- हे वत्स  ! तुम कौन हो ? कौन हो जो तुमने हमारे सारे वीर सैनिकों को मार दिया ॥ 

हे मुनि मोहक भेस , कहु को तव पालनहार । 
तुम्ह बसहु को देस, कृपा कर  निज परचन दौ ॥ 
हे । मुनियों का मोहक वेश धारण करने वाले । कहो तो तुम्हारे अभिभावक कौन हैं । तुम किस देश में वास करते हो , कृपया करके मुझे अपना परिचय दो ॥ 

सोमवार, १८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

जानउँ ना मैं कछु तव ताईं । पुनि लव ऐसेइ उतरु दाईं ॥ 
बीरबर मम पितु जोइ होई । मम श्री जननी हो जो कोई ॥ 
मैं तुम्हारे निमित्त कुछ भी नहीं जानता । लव ने उनके प्रश्न का इस प्रकार से उत्तर दिया  हे वीरवार ! मेरे पिता  जो भी हों, मेरी माता जो कोई हों ॥ 

आगिन औरु न कहहु कहानी । एहि बय सोचहु आप बिहानी ॥ 
सुरतत निज कुल जन के नामा ।धरौ आजुध करौ संग्रामा ॥ 
अब आगे और कहानियाँ न बनाओ । इस समय अपने अंत का सोचो ॥ और अपने कुल जनों का स्मरण करते हुवे आयुध धारण कर मुझसे संग्राम करो ॥ 

तुहरे भुजदल जदि बल धारहिं । बरियात निज बाजि परिहारहि ॥ 
किए लव बाण संधान अनेका । तेजस तिख मुख एक ते ऐका ॥ 
यदि तुम्हारी भुजाएँ ने बल धारण किया हुवा है तो वे बलपूर्वक अपने अश्व को मुक्त कर लें ॥ ऐसा कहकर लव ने अनेकों बाण का संधान किया जो एक से एक दिव्य एवं तीक्ष्ण थे 

लिए धनु गुन दिए चंदु अकारे । भयउ क्रुद्ध धनबन प्रस्तारे ॥ 
को पद को भुज परस निकासे । को सत्रुहनके मस्तक त्रासे ॥ 
और धनुष उठा कर उसके गुण को चंद्राकार कर कुपित होते हुवे उनहन गगन में बिखेर दिया ॥ जिनमें कोई बाण चरण तो कोई भुजा स्पर्श करते हुवे निकला  , कोई शत्रुधन के मस्तक को भेद कर उन्हें त्रस्त का गया  ॥ 

रिसत सत्रुहन छबिछन सों, देइ धनुर टंकार । 
हहरनत रन आँगन के, कन कन किए झंकार ॥ 
( ऐसा दृश्य दखाकर ) शत्रुध्न फिर अत्यधिक क्रुद्ध होकर कड़कती बिजली के समान धनुस की प्रत्यंचा अको टंकार किया । इस ध्वनी से कम्पायमान होकर रन क्षेत्र का कण कण झंकृत हो उठा ॥ 

मंगलवार, १९ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                   

बर धनुधर सिरुमनि बलबाना । अवतारे गुन अनगन बाना ॥ 
बालक लव तूली कर तिनके । खरपत सम  काटै गिन गिन के ॥ 
बलवानों के शिरोमणि एवं श्रेष्ठ धनुर्धर शत्रुध्न ने फिर अपनई प्रत्यंचा से अनगिनत बाण उतारे । किन्तु बालक लव ने उन्हें तृण-तुल्य कर उन्हें खरपतवार के जैसे गिन गिन कर काट कर हटा दिया ॥ 

ता पर तिन कर अस सर छाँड़े । अचिर द्युति जस घनरस बाढ़े ॥ 
सत्रुहन नयन अलोकत अंबा । बिचित्र कहत किए बहुस अचंभा ॥ 
उसके पश्चात उसके हाथ ने ऐसे बाण चलाए जैसे चमकती हुई बिजली से युक्त घनी घटा से जल की बुँदे चली आती हैं ॥ शत्रुध्न के नयनों ने अम्बर में जब उनका अवलोकन किया तब 'विचित्र 'ऐसा कह कर वे बहुंत ही अचम्भा किये ॥ 

अचिरत बरतत पुनि चतुराई । तेइ सकल काटि निबेराईं ॥ 
निरखत निबरत लव निज सायक । किए दुर्घोष हृदय भय दायक ॥ 
और फिर शीघ्रता पूर्वक रन कौशलता बरतते हुवे उन्हें काट कर हटा दिया ॥ जब लव ने अपने बाणों को लक्ष्य विहीन पाया तब उसने कर्कश घोष किया जो हृदय में भय उत्पन्न करने वाला था ॥ 

दमक उद्भट देवत प्रतिमुखे । किए दुइ खंडित वाके धनुखे ॥ 
अचिर द्युति गति कर सिय नंदन । सुबरन मई रथहु किए खन खन ॥ 
तब उत्तर देते हुवे उद्भट सिया नंदन लव ने शत्रुध्न के  धनुष को दो खण्डों में विभाजित कर दिया ॥ और बिजली के जैसे तीव्र गति से स्वरमयी रथ को भी खंड खंड करते हुवे नष्ट कर दिया ॥ 

धनु कहुँ रथ कहुँ कहुँ सुत बहिही । सत्रुहन गति परिहास लहिही ॥ 
लोकत अमर्ष अस मसि मूखे । मेघ घटा जस जोत मयूखे ॥ 
धनुष कहीं था, रथ कहीं था, उस रथ का सारथी कहीं था और उसके घोड़े कहीं थे । उस समय शत्रुध्न की दशा परिहास को प्राप्त थी ॥ उनके मलिन मुख पर आक्रोश ऐसे दर्श रहा था, जैसे घने मेघों में बिजलियाँ चमक रही हों ॥ 

रथ सुत धनुर हिन् सत्रुहन, धारे पुनि दूसरौह । 
बलपूरबक दृढ़ सरूप, ठाढ़ रहि लव सोंह ॥  
 तब रथ, सारथी धनुष हिन् शत्रुध्न ने फिर दुसरा रथ दुसरा सारथी एवं धनुष धरा और वे बलपूर्वक, अत्यधिक दृढ़ता से लव के सम्मुख डटे रहे ॥ 

बुधवार, २ ० नवम्बर, २ ०  १ ३                                                                                   

जोइ सकहु तौ काटि निबेरउ । दाप धरत सत्रुहन अस कहतउ ॥ 
लाग लगे लोचन लव लाखा । छाँड़ेसि दस तिख सिख बिसाखा ॥ 
यदि तुम समर्थ हो तो इन्हें काट कर हटाओ । फिर दाप करते हुवे शत्रुध्न ने ऐसा कहकर लव को जलती हुई आँखों से निहारा तीखे मुख वाले दसवाण छोड़े ॥ 

रहहि जोग जे प्रान सँहारे । पर लव तिन्हन खंडित कारे ॥ 
पुंखि पंख मूर्धन मयंके । सार रसन किए लस्तक अंके ॥ 
ये बाण प्राण हारने के योग्य थे किन्तु लव ने इन्हें भी खंडित कर दिया ॥ पंख लगे पृष्ठ से और चंद्राकार मुख वाले बाण को प्रत्यंचा में सार कर उसे धनुष की मूठ पर सजाते हुवे : - 

खैंचत बहुरि सीध कर साधे । करत हत हयनत ह्रदय बाधे ॥ 
सत्रुहन पाए घात गंभीरा । तिनके उर भइ गहनइ पीरा ॥ 
फिर खींचकर सीध बांध कर शत्रुध्न के हृदय में प्रहार करते हुवे उनकी छांती  में गहरी चोट पहुंचाई और लक्ष्य को प्राप्त हुवे ॥ 

एक छन लोचन तमाछन् छाए । चहुँ दिसि दिरिस दरसन धुँधराए ॥ 
पते रथासन दारुन होके । निपातत जस पखहिन नभौके ॥ 
शत्रुध्न के आंकाहों में एक कछान को अन्धेरा छा गया । चारो दिशाओं के दृश्य-दर्शन धुंधला गए । कष्टमय होकर वे रथ पर ऐसे गिरे जैसे कोई पंखहीन पक्षी भूमि पर गिर रहा हो ॥ 

सकल बीर भट सह राउ, सत्रुहन मुरुछा लोक । 
मलिन मुखित बहु दुखित हो, घारे उर मह सोक ॥ 
शत्रुध्न की मूर्छा को देखकर, राजाओं सहित समस्त वीर सैनिको का मुख पर उदासी छह गई,  हृदय में शोक भर आया और वे बहुंत ही दुखित हुवे ॥ 

गुरूवार, २१ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

 गहत हरबली पुनि पुंज प्रतापे । धीरोद्धत सुरथ कर दापे ॥ 
अरु वाके सों सकल सुभट्टा । चढ़ि लव पर अस जस नभ घट्टा ॥ 
तब तेज के पुंज स्वरुप धीरोद्धत राजा सुरथ ने सेना का  प्रधान पद ग्रहण किया  ॥ और उनके साथ सारे वीर सैनिक दर्प करते हुवे लव के ऊपर ऐसे चढ़ बैठे, जैसे आकाश में बादल चढ़ आते हैं ॥ 

जागे पौरुख भयौ बिद्रोही । धर प्रतिनाह लोहिका लोही ॥ 
कोउ के हाथ धरि लाहांगी । कोउ बजर बिय बाहु बलंगी ॥ 
सेना की पौरुषता जो कि सुप्त हो गई थी वह जागृत हो उठी । सभी चिन्हों धारण किये , त्राण और अस्त्र-शस्त्र ग्रहण किए हुवे थे ॥ किसी के हाथ में लोहांगी थी तो कोई के सदृश्य दोनों बल युक्त बाहु में वज्र धारण किए हुवे था ॥ 

को बाढ़े बकुचत बिकराला । कास लस्तकी लोहल नाला ॥ 
एहि बिधि भट धर आजुध नाना । रन रनक बाजे घमसाना ॥ 
कोई पंजे में भयंकर के समान भयानक लोहे का बाण और लोहे का धनुष कासे हुवे लव की और बढ़ रहा था । इस प्रकार से वीर सैनिक विभिन्न आयुधों से युक्त होकर युद्ध के लिए उद्यत हुवे और घनघोर युद्ध करने लगे ॥ 

लिखिनि लेखत कहत संछेपे । लव पर चहुँ दिस लौह निझेपे ॥ 
देखि लव अस जब एहू लोगें । छत्रिय धर्म हिन् कलि कृत जोगें । 
लेखनी सारांश में यह कहती है कि लव के ऊपर चारों और से आयुध चलने लगे । जब लव ने देखा कि ये लोग क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध का संग्राम करने हेतु तैयार हैं ॥ 

बहोरि रिपु ताड़न, धनु पर चाढ़न, त्रोन सायक कसमसे । 
लेइ लस्तक लसे, लव दसम दसे, खिँच गुन करन लग कसे ॥ 
कारत बारिहि बहु आहत कारिहि, बिँध मर्म मुरुछा दियो । 
बीर धीरोद्धत, एक एक चिन्हत केतक हताहत कियो ॥ 
फिर तूणीर में रखे तीर धनुष पर चढाने और शत्रु का नाश करने हेतु जब कसमसाने लगे । तब लव ने दस दस बाणों को धनुष की मूठ पर लिया और उसके गुण को कानों तक खींचा ॥ फिर अतिशय आहत कारी उन बाणों की वर्षा करते हुवे क्रोधी वीरों कू चिन्ह चिन्ह कर उनके मम स्थान को बेध कर कईयों को मूर्छित कर दिया और कई सैनिक हताहत हो गए ॥ 

कछुक कराल मर्कट भट, धाए जोइ दिसि पाए । 
लव कोरी खेत क्यारि, बुअनी जस बिथुराए ॥   
कुछ भयंकर मर्कट सैनिक जहां पाए वहाँ भागने लगे और बीजों की बोआई के जैसे रन के उस क्षेत्र में लव के द्वारा उकेरी गई क्यारियों में बिखर गए ॥  

----- ॥ उत्तर-काण्ड १८ ॥ ----

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शुक्र/शनि, २९/३० अगस्त, २०१४                                                                                          

दनु देह बसी मति बिपरीता । एहि कारन निर्बल जिउ जीता ॥  

परबोधत अस रबि कुल कंता । किए बली देइ बल रिपुहंता ॥ 
दानव के देह में विपरीत बुद्धि का वास हो गया है गया है यही कारण है कि वह निर्बल निरीह जीवों पर अत्याचार कर रहा है ॥ रघु कुल कान्त श्रीरामजी  ने ऐसा प्रबोधन करते हुवे भ्राता शत्रुध्न को दानव के नाश हेतु दिव्य बल देकर  उन्हें बलवंत कर दिया था ॥ 

लेइ संग निज तनुभव दोई । समर सूर जग जीतन जोईं ॥ 
पैहत आयसु सैन पयाने । निह्नादत नभ बजे निसाने ॥
तब शत्रुध्न अपने दोनों पुत्रों के संग लिया और संसार के पाठकों पर विजय प्राप्त करने हेतु वीर युयुधान को  संजोया । जैसे ही सेना को उनकी आज्ञा प्राप्त हुई ।  वह नभ को निह्नादित करती हुई प्रयाण-पटह का वादन करते चली ॥ 

चाक चरन रथ दिए पथ दाने ॥ चले सहस दस छतर बिताने ।।
गरजत गज जूथ हय हिंसाए । धुर ऊपर धूरि धूसर छाए ॥
दस सहस्त्र रथ छत्रों से युक्त होकर अपने चक्रों से पथों पर चिन्ह अंकित किए चल पड़े । गज समूह गरजने लगे हाय हिनहिनाने लगे । धुर ऊपर धूलि की धूसरता छ गई ॥ 

दुंदुभि तुरहि संख मुख पूरयो । चपल कटक दनु लेइ घेरयो ।।
तरजें सुभट जूँ निसान हने । धनबन प्रति ध्वनि कहत न बने ॥
 मुख से दुदुंभियां, तुरही, शंख आदि स्वर-नाद निह्नादित होने लगे । तब विशाल कटक ने  लवणासुर को चपलतापूर्वक घेर लिया ॥ सैनिकों ने ऐसी जैसे नगाड़े ध्वनिवन्त् होते हैंउस तर्जना से  आकाश में जिस भांति की  प्रतिध्वनि उठी  वह वर्णनातीत  है ॥  

भए अस घमरौले घमंक बोले जसघनब घन घनकयो ।
घनबाही बादे  तस निह्नादे  बरखत जल बल झरयो  ।।
 उम उमगाई तरंग के नाई सींवा पारगमन करियो । 
एक एक बीर बिंदु जुगत भए बृन्दु सिंधु सरि रूप बरियो ॥ 
 वहां ऐसा घमासान मच गया, घूंसे मुष्टिक के प्रहार ऐसे बोलने लगे जैसे आकाश में घन मेघ गर्जना कर रहे हों । सैनिकों के प्रहार की धवनि हथौड़ी के चोट की धवनी जैसी ही थी ॥ उनका जल बना बल शत्रु के ऊपर बरस पड़ा ॥जैसे  तरंग तटों पर  उमड़ आती है वैसे ही वे सैनिक दनुज के  नगर की सीमा पारगमन करने लगे ॥ सेना के एक एक शूरवीर एक एक वीर बिंदु परस्पर संयोजित होकर  बिंदु-वृन्द हो गए, और  उन्होंने सिंधु के जैसा रूप वरण  कर लिया ॥


हँकारत चहुँ दिसि बाढ़त,  कोट कलस चढ़ि आन । 
रजरत रथ चरन रवनत रव मुख अनक निसान ।। 
शत्रुओं को युद्ध हेतु  आह्वान कर युधवीर चारों दिशाओं में बढ़ते हुवे कोट के कंगूरों पर चढ़ गए ॥ उस समय धुलीवंत होकर रथ चरणों से ध्वनि कर रहे हैं ढोल एवं डंके मुख से ध्वनिवन्त्  थे  ॥ 

तेजस तुरग तजे मख बेदी । हर्ष घोष किए गगन बिभेदी ॥ 
अमित बिक्रमी बीर बहुतेरे । घार घेर चहुँ फेरी घेरे  ॥ 
 गगन विभेदी हर्ष धवनी करते शक्तिशाली एवं प्रतापी वीर एकत्र हो गए ।  यज्ञ वेदी से त्यागा हुवे तेजस्वी राज स्कंद को  उन्होंने चारो ओर से घेर रखा था ॥ 

चले बाहि ले रथ कर पूला । छाए धुरोपर धूलहि धूला ॥ 
परिगत  कोट कटक लिए घेरी। दुहु पाँख मुख बजे रन भेरी ॥ 
रथ रश्मियों को मुट्ठा किए सारथी रथ लिए चल रहे थे धुर ऊपर धूल ही धूल छा गई थी ॥ दनुज के गढ़ पर व्याप्त  होकर उन्होंने उसकी सेना को चारों ओर से घेर लिया । फिर क्या था दोनों पक्ष से रण की भेरी बजने लगी ॥  

निज निज स्वामि जब जय बोले। डोलि कुधर भू समुद हिलोले ॥ 
जोड़ जुगत निज निज बल केरे । बाहु बलि किए पल माहि ढेरे ॥ 
जब वे अपने अपने स्वामियों का जयकारा लगाते पर्वत डोलने लगते,भूमि कांप उठती, समुद्र छलकने लगता  ॥ अपने अपने बल के  अनुसार जोड़ी बनाकर सुभट प्रतिभट को पल में ढेर कर देते ॥ 

 लरहि सुभट निज निज जय कारन । बर्नातीत रन बात्स्यायन ॥ 
कंठी माल किए काल कलिते । लवणासुर अनी भइ बिचलिते ॥ 
सभी भट प्रतिभट अपनी  अपनी विजय हेतु रणोत्कंठित थे  । हे मुनिवर वात्स्यायन ! यह युद्ध तो वर्णनातीत हुवा जा रहा है ॥ कारण की काल की कंठी माल को कलित किए लवणासुर की सेना विचलित हो गई ॥ 

चाप हरि चाप कटक घन, भए गरजन टंकार । 
होइहि नभ सन निरंतर , तीर तीर बौछार ॥   
हस्तगत  धनुर् इन्द्रधनुष हो गए,  कटक घन स्वरूप हो गई है । प्रत्यंचा की  टंकार मानो घन की गर्जना हो गई और नभ से निरंतर तीरों की वृष्टि होने लगी है ॥ 

धरे पुंग भए बान बिहंगा । उरत आन लगे अंग अंगा ।।  
गूठे दनुज भयउ उतरंगा । पठइँ केतु मतंग एक संगा ॥ 

बलि सुबाहु बर सुत सत्रुहन के । अगुसरे मतंग मीच बन के ॥ 

जूपकेतु लघु तनय हँकारा  । करत कोप बहु केतु पचारा ॥ 

दुष्ट दनुज तब किए छल छाया । सायुध सुर प्रगसे बन माया ।।  

भरम भीत भट भए हत चेते । केहि हेत किए केहि अहेते ॥ 

धरे कर कुधर खंड प्रचंडा । परिगत परिघ किए खंड खंडा ॥ 

सैल सूल श्रृंगी सृक छाँड़े । आन कटक चढ़ि आगिन बाढ़े ॥ 

सहस्त्रो सहस्त्र ससस्त्र, असुर केर सुर जूथ । 
सत्रुहन जुधा भयउ त्रस्त्र, बिलखत बिबिध बरूथ ॥  

रविवार, ३१ अगस्त, २०१४                                                                                                    

उत दनुपत इत रघुबर नामा । नाद उभय पख किए जय कामा ॥ 
देखन्हि छल छाइ सुर ठट्टा । सु बिहिन भट्ट भयउ सुभट्टा ॥ 

तब अरिहत प्रभु दिए बल जोगे । खैंच सरासन बान बिजोगे ।। 
जस तमहर कर अवनि अवतरे । तस सर दनु केरि माया हरे ॥ 

आँगन सुर बृंदा बिनु देखे । बीर सुबाहु काल भर भेखे ॥ 
एक गदीन त एक सूल धारी । भयउ चहुँ कोत  हाहाकारी ॥ 

खाल कर माल सूल सँभारे । अस कह उरस गदा दिए मारे । 
किए घींच अघात अस तेजा । सूल बल तेज किए निहतेजा ॥ 

बान बिषिख काटे जाल, माया देइ बिखेर । 
लवनासुर मुरुछित परे, भूमि माझ भए ढेर ॥ 

सोमवार, १ सितम्बर, २०१४                                                                                                     

लवनासुर चिट मुरुछा छाई । अघात खात भए धरासाई ॥ 
तब रन बांकुर कैटभ नामा । दानउ दल मह बल के धामा ॥ 

दलाधिपत हत चेतस देखा । धरे तड़ित सैम सूल बिसेखा ॥ 
जूपकेतु के सौमुख आवा । परम क्रोध किए संग जुझावा ॥ 

घात मर्म जब हिय दिए भेदा । छाए गहन घन बदन स्वेदा ॥ 
राम राम हाँ राम हँकारा । हत प्रभ लोचन भात निहारा ॥ 

सुबाहु जब हत बंधू बिलोका । हूँतत दनु चहुँपुर अबलोका ॥ 
लै  त्रै कोटिक बान कराले । छाँड़त बहे रुधिरु परनाले ॥ 


इत  दानउ  कर सबहि बिधि, आजुध करत प्रजोग । 
झपटि दपटि इत उत लपटि, बारे सकल हठ जोग ॥  

मंगलवार, २ सितम्बर, २०१४                                                                                                       

इत रघुकुल दीपक अति आकुल । उत सुबाहु दनु करत ब्याकुल ॥ 
आए अचिरम भ्रात संकासे । लगे साँग उर देइ निकासे ॥ 

जूपकेतु सुहसित उठि ठाढ़े । बान निषंग मुठिक धरि बाढ़े ॥ 
निसिचर  के चेतनहु जाग्यो । देख लगी आपुनी लाग्यो ॥ 

चल्यो भ्रात कुमुक लिए संगा । हारिहि संग सेन चतुरंगा ॥ 
साजि बाजि गहि हनत निसाना । कोप निधाना बहु बलबाना ॥ 

लवनासुर तब भए संक्रोधा । अरिहंत संग सीधहि जोधा ।। 
उठे चिँगारी लागहि लोहा । रनांगण रज रुधिरु पथ जोहा ॥ 

 दनुज माझ भट भीर, सत्रुहन तकि लिए लस्तकी । 
छाँड़े तेजस तीर, श्रीराम चरन सुरति किए  ॥    

बुधवार, ३ सितम्बर, २०१४                                                                                                      

धनु गुन बिथुरत चले नराचा । मर्म भेद लिगु लगे पिसाचा ॥
सुने मरण दनु जब सुर बृंदा । धरे चरन घन जान अलिंदा ॥ 

चढ़ि चढ़ि नभ बैसत बहु हरषहिं । मुकुलित हस्त पुहुप पत्त बरखहि ॥ 
सत्रुहन तहाँ जुग  नगर रचाए । सासन सूत दुहु तनय धराए ॥ 

नाम नगर सूरपुरी सुहाए । दूजे  बिदित जिमि निगम कहाए ॥ 
सुबाहु भए सूरप महिपाला ।  बिदित देस नृप भए लघु लाला ॥ 

सचिवन्हि सुत रखत  तिन संगा ।  अगुसरी पताकिनि चतुरंगा ॥ 
मेध अश्व किए सत्रुहन आगिन । भट सपयादिक भए अनुगामिन ॥ 

रजत रथ सुबरनइ रसन, बांधे बर बर बाहि । 
बरे गज गति सूर समर, अगूत अगुसर जाहि ॥ 

बृहस्पतिवार, ४ सितम्बर, २०१४                                                                                       

चलेउ गह गह कटकु अपारा । बही बहा जस लहि बहु धारा ॥ 
कंठ घोष जिमि केहरि नादे । भयबस सरबतसरि अवसादें ॥ 

एक सरि ताल चरन भू धरहीं । निज निज बल पौरुख उच्चरहीं ॥ 
हस्त मुकुल रबि मेघ गहाही । पथ पथ पख कौसुम बरखाही ॥ 

प्रहरषित अस  प्रहरे पताका । जिमि तड़ाकत तड़ित अरि ताका ॥ 
नेकानेक नगर नग आली । भँवा कारि बहु संपन साली ॥ 

चले समीर बेगि हय हाँके । सरित बनिक बन सैल नहाके ॥ 
पँचाल कुरु कुरोतर देसे । नाँघ दसारन देस प्रबेसे ॥ 
इस प्रकार पाञ्चाल, कुरू , कुरोत्तर देशों को लाँघ कर मथुरा होते हुवे सेना ने दशार्ण ( मध्य भारत के विदिशा के आसपास का क्षेत्र ) में प्रवेश किया ॥ 

सुहा संपन सेन सहित, सत्रुहन जहँ जहँ जाएँ । 
जान जान मुख हरि कीर्तन, कानन श्रवन सुहाए ॥   

शुक्रवार, ०५ सितम्बर, २०१४                                                                                                    

हरिहि कीरत करत मृदु बानी । करएँ  सुआगत तहँ जुग  पानी ॥ 
जसोगान श्रुत सह संतोखे । याचकिन्ह बहु भाँति परितोखें ॥ 

बिधा प्रबीन अचल संग्रामा । रहिहि सचिउ एक सुमति सुनामा ॥ 
बलि संग बलि तेज सों तेजस । समर भूमि मैं सचित सचेतस ॥ 

रक्छत कच्छ आन सँग सोई । सत्रुहन के बर अनुचर होई ॥ 
तिनके संगति किए मह धीरा । हरिअ अस पैठि भारत भीरा ॥ 

नेक गाँउ किए जनपद किए पारा । अस्व किरन पर कोउ न धारा ॥ 
बिबिध  देस धिनायक धिराया । समर सूर जानिहि बहु माया ॥ 

अतुलित बल संग संपन, जुगए कटक चौरंग । 
सरबतस दच्छ रहि जदपि सर्ब धुरिन के संग ॥ 

सेना -कक्ष 










----- ॥ उत्तर-काण्ड १९ ॥ ----

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देखि रतिपतहु  राउ जग आए । बहुरि पंचम सर पुंज चढ़ाए ॥  
मयन कंटकी मुख मदनीआ । मदिरायतनैनी सरि तीआ ॥ 

संग आतुर गयउ नृप पाछे । चोट  कारिन ओट किए गाछे ॥ 
एक सुर नारी ऐतक माही । प्रीति पूरित पलक नचाही ॥ 

 अति मन मोहक मुख मुद्रा बरे । अरु मंजुल गति सों निरत करे ॥  
दुज सुर नारी सुमुख ठाढ़ी । कटाख निपात आगिन बाढी ॥ 

भाउ भंगिम बर मनोहारी । दंड बहु तिज कण्ठन घारी ॥ 
मंजुल गमना अस चहुँ फेरे । जितात्मन सिरुमनि लिए घेरे ॥ 

तब पुरंजनी पुराधिप, भयऊ चिंतावान  । 
ए नारी करतूति सँग त , तप माहि बिघन आन ॥ 

बुध/बृहस्पति , १७/१८  सितम्बर, २०१४                                                                  

एहि सब सुरपत कही पधारिहि । अरु तासुहि अग्या अनुहारिहि ॥ 
अस भल भाँति बिबेचन कारे । मंजुल गमना अस  मनुहारे ॥ 

हे सुर नारीं देई रम्भा । तुअ मम हुँत सरूप जगदम्बा ॥ 
जसु रूप सा अगजग भ्राजे । जोइ मम मन मंदिरु बिराजे ॥ 

कहे कमन तुअ इहाँ बिलासिहु । सुरेकित सुरग सुख संभासिहु ॥ 
भाउ लीन मैं जेहि अराधा । सुंदरी तुम्ह घरिहउ बाधा ॥ 

जसु कृपा कटाख के सोही । सत्य लोक पह बिधि मह होहीं ॥ 
तासु कृपा सहुँ सिवारि सिरि का । हिरनई हीरक हेम गिरि का ॥ 

तनिक संताप किछु पुन संगा । करिहि सोइ दनु ताप प्रसंगा ॥ 
दीन्हि जोइ  मोहि बरदाना । सौमुख सो सुख तृनइ समाना ॥ 

भूप बचनन कमन कन धारे । कुटिल भृकुटि कर करे प्रहारे ॥ 
राग रंग बहु भाँति लोभाए । परम धीर नहि चलहिं चलाए ॥ 

घनी घनी पाखा कुटिल कटाखा पथ मदन नयन उतरे । 
चंचल चित सन चरनालिंगन नुपूर रुर झंकार करे ॥ 
फिरि चहुँ फेरे  पर मोह न घेरे बिहनइ तब हार बरे । 
तपरत नृप धूरे जैसे अहुरे तैसेउ बहुरत चरे ॥ 

अरु बोलि पुरंदर सोहि, करि मुख घन गंभीर । 
राऊ अहैं जितात्मन्  महस्बान अति धीर ॥ 

इत जग मोहि भगवती माई । निरखत अति दृढ चेतस राई ॥ 
प्रगसि देइ तिन दरसन साखा । जसु रूप लखि रबि सम लाखा ॥ 

तेजसी मुख चतुर भुज धारी । धनु सर अंकुस पाँसुल घारी ॥ 
अगन मई जब साखि निहारा । भयऊ महिपत मुदित अपारा ॥ 

सीस धरे कर देइ सुहासी । भूपत रोमावली बिकासी ॥ 
प्रनमन प्रनमइ मात पुकारे । पद राज सिरु धार बारहि बारे ॥ 

भरे अन्तह करन अस भावा । भाउ पबन किछु मुख नहि आवा ॥ 
बोलि अधर गद गद सुर सोंही । अस्तुति आपनि आपहि होंही ॥ 

जयति जय महा देइ भवानी सर्व कामद सर्बग्या । 
सर्वार्थानुसाधिनी सर्बत्र वासिनी काम्या ॥ 
श्रुतिमुख सह  देवा सुरप सदेवा करिहि तुहरिहि साधना । 
नर मुनि बृंदा तव चरनरविंदा किए पूजन अराधना ॥  

तुहरे तप सों बिस्वपा, रयनइ करत बिहान । 
बाहिर अंतर थीत हो,करे जगत कल्यान ॥ 

शनिवार, १९ सितम्बर, २०१४                                                                                              

बिस्व मोहिनी बिष्नुहु माया । बड़ भागी तव दरसन पाया ॥ 
केसर बाहिनी अग्नि बासा । बिद्या बल तुहरे का पासा ॥ 

हित काँछी जग पातक हारिनि । दानउ दल बादल संहारिनि ॥ 
जीव जुगत जग पालन हारिनि । मोह मंत्र  सन मोहित कारिनि ॥ 

सुर नर रिषि मुनि जो जग दुखिआ । पाए सिद्धि तव भए सब सुखिआ ॥ 
को घर जब संकट पद चीन्हि । तव सुमिरन तिन मोचित कीन्हि ।। 

मैं खल कामि तुम हित कामिनी । मैं सेवक तुम मम स्वामिनी ॥ 
दया सरित निज सुत सम लखिहौ । पालत मोहि सब बिधि रखिहौ ॥ 

एहि बिधि सुमद किए अस्तुति  कातर लोचन लाखि । 
प्रमुदित होत नृप ऊपर, कृपा दीठ जनि राखि ॥  















----- ॥ दोहा-पद॥ -----

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              ----- ॥  हे  राम ! ॥ -----

फटिक मनि रचना रचे, जहां न गोकुल धाम ।
सो मंदर  खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥

बिना स्याम का मंदिर भगत नबैद चढ़ाएं ।
भगतिहि  का पाखन करे, मीठे भोग उड़ाएँ ॥

पापी पाप तजे नहीं लाज तजे हे राम ।
सो मंदिर खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥

जिन उद्यमि के कुल माता, निर्दय खूंटि बँधाए ।
ऐसे कलंकी कुल को, चाँद पे छोड़ आएँ ॥

बहुरि रैन देखो तिन्ह दूरबीन कर थाम ।
सो मंदर खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥

भर भर आपनि झोलि ये हीरे चुन चुन लाएँ ।
बिष्टा निर्मल जल वालि गंगा माहि बहाएँ ॥

इनको कोस कोस के भजन करो अविराम ।
सो मंदर  खाली पड़े, बही हुए घनस्याम ॥

इन अधमी की चिता को निरदै आग लगाए ।
निरदै गौउ पूँछ धरा , नरक द्वारी दिखाए ॥

इनके होवनिहार के राखौ रावन नाम ।
सो मंदर खाली पड़े, बहिर हुए घनस्याम ॥  

----- ॥ उत्तर-काण्ड २० ॥ ----

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शुक्रवार, ०३ अक्तूबर, २०१४                                                                                               

सकल रच्छक सह चले पीठे । तीरहि तीर तपो भुइ  डीठे ॥ 
कुंजरासन कुसा के छाईं । मुनि मनीषि दृग देइ दिखाईं ॥ 

रघुनाथ के कीरत अगाने । सकल जुजुधान सुनत पयाने ॥ 
हितकृत गिरा जहँ दिए सुनाई । यह जग्य के है चलिहि जाईं ॥ 

श्री हरिहि के अंस अवतारा । रामानुज रिपुहंत द्वारा ॥ 
रच्छितमान जोइ चहु फेरे । बीर बानर बीथि  के घेरे ॥ 

जासु रति हरि चरनिन्हि रागी । चित के बृत्ति भजन मह लागी ॥ 
तासु  निगदन श्रवन श्रुत साधन । भए तोषित सत्रुहन मन ही मन ॥ 

अगत कहत पथ चिन्हिनि लेखे ।बहोरि एक सुचि आश्रम देखे ॥ 
जोइ रहही अतिसय बिसेखा । बेद बचन तरु पत पत लेखा ॥ 

अंग अंग धूनि मै हो जहँ गुंजहि चहुँ पास । 
घट घट हित के बास कर, करे अहित के नास ॥ 

शनिवार ०४ अक्तूबर, २०१४                                                                                                           

जहँ मुनि मनीष परम प्रबेका । रचे हबिर गह अनेकनेका ॥ 
दसहुँ दिसि हबिरी धूम धरिही । प्रान संभृत सुबासित करिहीं ॥ 
  
धरनी के सों सकल अगासे । अगनहोत हुति संग प्रगासे ॥ 
साँकली घृत जौउ अरु तिल के । मूषक रहे जहँ बिनहि बिल के ॥ 

निडर बिडारिन संग बिडाला । राखैं गोकुल जहाँ ब्याला ॥ 
सरिसर्प रहे मोर प्रसंगा । खेली करत नेवला संगा ॥ 

गज मृग केसर करे मिताई । सबहीं  बयरु भाउ बिसराईं ॥ 
जल थल गगन बिहरे बिहागे । काहू के संग भय नहि लागे ॥ 

हिरनै लोचन हरितक ताके ।चतुस्तनि जहँ चले चरबाँके । 
ग्रास ग्रास रस अमरित भरिहीं । थन मंडल तट घट कृति धरिहीं  ॥ 

तासु चरनन धूरि संग, भूमि भयउ भरतारि । 
निग्रह नंदिनी के भाँति, कामन पूरन कारि ॥ 

रविवार, ०५ अक्तूबर, २०१४                                                                                             

 मुनि मनीषि कर समिधा धारे । कुंड कुंड हबिनायुस सारे ॥ 
नित्य नैमितक करम बिधाना । तपोबन किए जोग अनुठाना ॥ 

सत्रुहन अस आश्रमु जब पेखे । श्रीराम सचिव सो पूछ देखे ॥ 
सूर अलोक सौम अति सुन्दर । रमनइ रयन बरसें सुधाकर ॥ 

जासु प्रभा दीपित राका सी । पल्लबित बिपिन बीथि प्रकासी ॥ 

अलौकिक आश्रमु सौमुँह एहू । कहु त कवन के हे मम नेहू ॥ 

तपसी तपस बिषमता खोई । बयरु ना करहि काहु  न कोई ॥ 
बिहरए बन हति हनन बिहीना । तपस्या फल जस अभय बर दीना ॥ 

जहँ लग दीठ तहँ दरसे, मुनि मंडल भरपूर । 
इहाँ विद्वेस भय सोक । दरस न दूरिहि दूर ॥   









----- ॥ उत्तर-काण्ड २१ ॥ ----

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बृहस्पतिवार, १६ अक्तूबर, २०१४                                                                                         

 कहत सुमति हे सुमित्रानंदन । फिरत सरआति मुनिबर च्यवन ॥ 
फेर फिरत अगिन्हि कर धारे । कनिआँ के बन प्रान अधारे ॥ 

तपसी पुनि निज संगिनि प्रसंगे । बसे कुटीर बहुंत सुख संगे ॥ 
सुकनिआ मुनि मान कुल देबा । भाउ पूरित करत बहु सेबा ।। 

जद्यपि मुनि रहि लोचन हीना । बयो बिरध जुवपन सन दीना ॥ 
तद्यपि दंपति रहि अस साथा । रहसि सों जस सची  सुर नाथा ॥ 

एक तो सती तापर सुन्दरी । सुकोमल अधर मृदु बानि धरी ॥ 
सेवत पत रागी भाउ जगे । संगिनि संगि प्रिय प्रीतम लगे ॥ 


प्रेमबती पुत्लिका के, प्रीतम प्रान अधार । 
गहन मनोभाउ लिए रहि, तपबल के भंडार ॥    

शुक्रवार, १७ अक्तूबर, २०१४                                                                                               

सुठि सुकुँवारी रिषि की जाया । समुझ तासु  एक एक अभिप्राया ॥ 
जुगत सकल सुभ लछन सुभागी । प्रतिछन सेवा मह रहि लागी ॥ 

कृसांगि फल कंद मूल खाए  । जब जल पाए तब तीस बुझाए ॥ 
सब दिनु पति आयसु अनुहारी । जेहि कही सिरु ऊपर धारी ॥ 

पत पद पूजत समउ बितावै । सकल बन जीउ ह्रदय लगावै ॥ 
सेवारत जब चेतन जागे । काम क्रोध मद लोभ त्यागे ॥ 

सेवारत पत महा नुभाऊ । मन क्रम बचन सोंह महराऊ ॥ 
करे जतन बहु रखे धिआना । पैह संग तिअ मुनि सुख माना ॥ 

एहि बिधि बितए सहस बरस, बसत तपोबन धाम । 
परगस बिनु अंतर रखे , कुँअरि निज मनोभाउ ॥ 

शनिवार, १८ अक्तूबर,२०१४                                                                                                      

देउ बैद अस्बिनी कुआरे  । पुनि एकु दिन बन कुटी पधारे ॥ 
दंपति आगति बहु सनमाने । पाए पखार बरासन दाने ॥ 

पूजित सरयाति धिआ के कर । पह अर्घ पाद दोउ रबि कुॅअर ।। 
होए मोर मन मोदु न थोरा । पयधि पयस जस हरष हिलोरा ॥ 

अवनी कर दायन रमझोले। अस मनस सुन्दरी सो बोले ॥ 
हे देई तुअ मांगौ को बर । भित भय परिहर मुकुत कंठ कर ॥ 

देखि कुँअरि रबि सुत संतोखे । मति सरनि माँगनी मत पोषे ॥ 
किए लच्छ आपनी पति देबा । संतोषित मम सेबा 

कहत बिनअ बत कंठ भरि, सुकुँअरि दया निधान । 
दीठ हीन प्रीतम मोरि, देउ दीठ बरदान ॥ 

रविवार, १९ अक्तूबर, २०१४                                                                                                     

सुनि कनी गिरा माँग बिसेखे । अरु सन तासु सतीपन देखे ।। 
कहत बैदु जो नाथ तुहारे । देओचित मख भाग हमारे ॥ 

दए आसन तिन सादर दहहीं । हमरे तोष नयन उदयहहीं ॥ 
 नाथ सौमुह ए कहत बखाने । मुनि  भुक दायन संमत दाने ॥ 

भयउ मुदित अस्बिनी सुत दोउ । कहे तुअ समजजमान न कोउ ॥ 
मुने अजहुँ सब साज समाजौ । मख करता पद माहि बिराजौ ॥ 

दरसे देह नारिचहुँ पासा । भयउ बिरधा बयस के ग्रासा ॥ 
अस मह परतापस कृष काई । जोग समिध सुठि भवन रचाईं ॥ 

हबि भवन महु रसन जब दाहा । किए निज हुति अरु कहे सुवाहा ॥ 
दोनउ कुँअर संग पैसारे । सुकनिआ तिन्ह चितबत निहारे ॥ 

परगसित भए तीनि पुरुख, हबिरु रसन के सोंह । 
तिनहु देहि नयन भिराम, छबि अतिसय मन मोहि ॥ 

सोमवार, २० अक्तूबर, २०१४                                                                                                  

होइहि तीनहुँ एक सम रूपा । रूप वंत रतिनाथ सरूपा ॥ 
कंठ हार कर कंकन बासे । बपुधर् सुन्दर बसन निबासे ॥ 

अभिराम छटा सुहा बिसेखी । सुलोचनि सुकुआँरि जब देखी ॥ 
 भई मति भ्रमित परख न होई । को प्रान नाथ को सुत दोई ॥ 

सों कुअँर तब जाचना कीन्हि । तासु दइत तब दरसन दीन्हि ॥ 
ले अनुमति पुनि सुत दिनमाना । चले सुरग पथ बैस बिमाना ॥ 

पैह मान  भए मोदु न थोरे । हर्ष बदन दुहु चरन बहोरे ॥ 
अजहुँ भई तिन दृढ़ प्रत्यासा । देहिहि मुनि अवसिहि मख ग्रासा ॥ 

तदनन्तर केहि अवसर, सरयातिहि मन माह । 
मख अहूत देउ पूजौं , उपजे जे सुठि चाह ॥ 















----- ॥ उत्तर-काण्ड २२ ॥ -----

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रविवार, ०२ नवम्बर, २०१४                                                                                                   

दरस दुअरिआ महा रिषि आए । हरषत अगुबन  प्रभो उठि धाए ॥ 
पालउ हरित नयन भए थारे । अँसुअन पयसन पाँउ पखारे ॥ 

चरण धूरि तव भवन बिराजे । आजु पबित भए हबि सह साजे ॥ 
कहि प्रभु मुनि मैं परम सुभागा । तब बरनन मधु रस मह पागा ।। 

सुनि मुनि सीत गिरा भगवन की । भई जल मई छबि लोचन की ॥ 
भए ऐसेउ पेम अतिरेका । हरषे रोमन अलि  प्रत्येका ॥ 

बोले मुनिबर हे सद्चारी । धर्म बीथि के राखनहारी ॥ 
सर्बथा एहु उचित मैं माना । तव जस कर बिप्रबर सम्माना ॥ 

अचिंतनी तपो बल इत सत्रुहन दृग दरसाए । 
जग बंदित ब्रह्म बल किए मुक्तिक  कंठ बड़ाए ॥ 

सोमवार, ०३ नवम्बर, २०१४                                                                                                   

अरु सत्रुहन मन ही मन सोचे । कहँ तपसी कहँ कामज पोचे ॥ 
एक के अंतर भयऊ सुचिता । दुज  के बिषय भोग निहिता ॥ 

कहँ पारस मनि सम बल तापा । जासु परस हरि जग संतापा ॥ 
कहँ कोयर भोगी तप  हीना । करे जगत जो ताप अधीना ॥ 

सोच मगन सत्रुहन मुनि धामा । चार घरी लग करे बिश्रामा ॥ 
बहत पयषिनी किए पय पाना ।  तुषित कंठ हरिदै सुख माना ॥ 

 तुरंगहु पान  पुनि दुह सलिला । चलेउ अगहु मग अल्क अलिला ॥ 
निरख जूथ निकसत घन गाछे । चले साज लए पाछहि पाछे ॥ 

कछु रथ सथ कछु पयादिक, कछुक तुरग अवरोहि । 

को ढाल भाल बिकराल, को कोदंड सँजोहि ॥ 

सत्रुहनहुँ भए अनुगामिन, सहित सेन चतुरंग । 
सत अस्व जुगित  रथोपर बिराजत सुमति संग ॥ 

मंगलवार, ०४ नवम्बर, २०१४                                                                                       

दिन मुख अनीक आगिन  बाढ़े ।  अपराह्न जब दिनकर गाढ़े ॥
अनीकिनी  तहवाँ चलि आई । राजत रहे जहँ बिमलु राई ॥

रत्नातट नगरी नाउ धरे । झरी झर झर निर्झरी नियरे ॥
राउ जब सेवक सोंह श्रवने । रामानुज सैन संग अवने ॥

मेधिया तुरग बिनु अवरोधा । सजित साज सों सकल सुजोधा ॥
बाहिनी संग अस सैन सुहाए । चातुर बरन  कह  बरनि न जाए ॥

सुनत पैठि नृप सत्रुहन पाही । तुरग तूल  गति चरन  गहाही ।।
राज पाट सब आगे राखा । सौपत सरबस कातर लाखा॥

कहि न सकहि किछु प्रेम बस, जोग रहे दुहु पानि । 
बहोरि हरिअरि भाउ भरि , बोले अस मृदु बानि ॥  

बुधवार, ०५ नवम्बर, २०१४                                                                                                       

कथनत मैं काजु सोइ  करिहउँ । दएँ जो आयसु सो सिरु धरिहउँ ॥  
ललकि लगे कर चरन छड़ाईं । नहि नहि कहि लखमन उर लाईं ॥ 

मैल मलिन प्रभु पंथ बिजोगे । मोर चरन नहि तव कर जोगे ॥ 
राज पात पुनि सुत कर दीन्हि । नेकानेक सुभट सन कीन्हि ॥ 

धनुधर पुंजित सर भर भाथा । चले बिमलहु अरिहंत साथा ॥ 
नन्द घोष सब मुख गुंजारे । जय जय जय रघु नाथ पुकारे ॥ 

जोइ जोइ रायसु मग आने  । यहु  नन्द घोष जब दिए काने ॥ 
कटक कोट को रहे न बामा । मेधिआ तुरग करैं प्रनामा ॥ 


नाना भोजन भोग परोसएँ । मनिक रतन सत्रुहन परितोषएं ॥ 
आगे चले रघुबर के भाई । पहुमिहि अतिसय पंथ लमाई ॥ 

 एहि भांति बढ़त जात एक ,  देखे ऊँच पहाड़ । 
भर अचरज सत्रुहन चरन , रही गयउ तहँ ठाड़ ।। 
















   







----- ॥ उत्तर-काण्ड २३ ॥ -----

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रविवार, १६ नवम्बर, २०१४                                                                                             

सकल जगत जो रखे सुपासे, तहाँ सोए त्रय लोकि निबासे ॥ 
मोर करे सत करम प्रभावा । द्वारवती दरस मैं पावा ॥ 

अबर भगत जो दरसन पावैं । सकल हनन के दोषु दुरावै ॥ 
तहाँ सयमंतु पाँचक नामा । अहहैं एकु अघ हरनै धामा ॥ 

बीर भुइँ कुरु खेह के साथा । देखेहउँ कासी बिसनाथा ॥ 
तहँ सिरु जटिल जटा धर गंगे । तारक ब्रम्हन  नाउ प्रसंगे ॥ 
कासी मुकुति हेतु उपदेसा । पूजिहि जिन नित जपत महेसा ।। 
तासु भूमि जब धरे त्रिसूले । भानुमती निज पथ नहि भूले ॥ 

मनिकर्निका नाउ गहै , पवित तीरथ एकंग । 
लवनाकर मेलन बहे  , उत्तरु बाहिनि गंग ॥ 

सोमवार, १७ नवम्बर, २०१४                                                                                                    

देखा में अस धाम अनेका । सभी अपनपौ परम प्रबेका ॥ 
भुआलू बात कहुँ मैं साँची । घटे मोहि सन जोई काँची ॥ 

होइ रही तहँ जोइ प्रसंगा । हहरि अजहुँ लग मम अंगंगा ॥ 
सब धर्म धूरि जब भमनयऊँ  । काँची के गिरि तब गमनयऊँ ॥ 

तहाँ दीठ  जस दिए देखाईं । अबरु कतहुँ अस दरस न पाईं ॥ 
ते प्रसंग जो सुनिहि सुनाइहि । सनातन ब्रम्ह के पद पाइहि ॥ 

सुर सरिता अँगना  बिस्तारै। सबुइ समउ पद पदुम  पखारें ॥ 
सिखारोपर जब दीठ निपाता । देखा तहँ मैं कोल किराता ॥  

रहि सोइ चतुर्भुज रूप, सिखारोपर धनु धारि । 
बिहरक अरु बिहीन तिलक, फूल मूल फल हारि ॥ 

मंगलवार, १८ नवंबर, २०१४                                                                                                    

भयउ मोहि संदेहू महाना । निरखत तिन्हनि मन महु आना ॥ 
अहो एही धनबिन बन चारी । कैसे भयउ चतुर भुज धारी ॥ 

जोइ बिक्रम बैकुंठ निबासा । दए अभास तिनके संकासा ॥ 
 निगमागम लेखित अबलेखा । जितारि पुरुखिन्हि कू मैं देखा ।। 

प्रभु सरूप किरात कास पाइहिं । जो परिचारक हरि नियराइहि ॥
संख चक्र गदा धरि धनु भाथा । जेहि बिधि सोहहि तासु हाथा ॥ 

कंठ माल बर मुख पर  कांति । दरसि  काहु किरात  हरि भांति ॥ 
भी चिट जब गहनइ संदेहू । पूछ मैं हे सुजन सनेहू ॥ 

कहँ बेहड़ बिपिन गोचर, कहँ यहु रूप अनूप । 
कहु को तुम्ह अरु कैसेउ, पाए चतुर्भुज रूप ॥ 

बुधवार, १९ नवम्बर, २०१४                                                                                                            

सुनि अस तिनके मुख हँसि आनी । दिए उत्तरू पुनि बर मृदु बानी ॥ 
इहँ केर बिसमय पिंडदाना । भयउ ब्रम्हन महिमा न जाना ॥ 

कैसेउ पिंड दायन काऊ । चतुर्भुज धारि रहस बुझाऊ ॥ 
कहत बात जो बचन बखाने । सो बरनइ अरु मैं दिए काना ॥ 

परबत चर एकु जात हमारा । जंबुक तरु फर भखत बिहारा ॥ 
भमनत भमनत निज सख सोही । मंजू अनोहर सिखरु अरोही ॥ 

दीठ दुआरि  दिरिस का देखे । कला कुसल कृत कलस बिसेखे ॥ 
सो अलख अनुपम अद्भुद कृति । मनि रतन जड़ित सुठि सुबरन भिति ॥ 

जासु काँति अस कासि जस कासत कासिक क़ासि । 
प्रकास पुंजी के पालक, अन्धकार के नासि ॥ 

बृहस्पतिवार, २० नवम्बर, २०१४                                                                                    

बालक चित्कृति चितब सकोचा । रह चितबत मन ही मन सोचा ॥ 
यहु कलकृति जस कला सँजोई । निरखे न कतहुँ अस कृति कोई ॥ 

गमन भीत मन कमना जागी । चाप चरन बालक बड़ भागी ॥ 
मंदिरु भीत भवन जब गयऊ । रघुबर  साखी दरसन भयऊ॥ 

मुनि मनीषि रिषि मनु दनु देवा । नारद सारद किए अति सेबा ॥ 
कल कुंतल किरीट केयूरा । कंठ श्री संग बपुधर पूरा ॥ 

कारन मनोहर कुण्डल कासे । जुगल चरण तुलसी पत बासे ॥ 
मंगल परिकर संग अराधे । चतुर भदर बंदइ सुर साधे ॥ 

कतहु कल कुनिक कंठ प्रमादे । नभ गर्जहि नग सिख निहनादे ॥ 
सची नाथ किए सेवा जाकी । दरसत  भगवन के अस झाकी ॥ 

जग बंदित चरन सुरगन, धूप नबैद चढ़ाए। 
अस श्रीनिगरह के निकट, बालक डरपत आए ॥  















----- ॥ उत्तर-काण्ड २ ४ ॥ -----

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बजइहि बजौनि बिबिध बजाने । भेरी तुरही पनब निसाने ।।  
गहगह गगन धुनी घन  होई । ब्रम्हानंद मगन सब कोई॥ 

बजे संख कतहुँ कल कूनिका । मिलि मंगल तान सुर धूनिका ॥ 

भयउ भृंग बहु रंग बिहंगे । गूँजत कूँजत चले प्रसंगे ॥ 

राग सहित छहु रागिनि जागे । सबहि पथिक ए कहत चले आगे ॥ 

दीनदया मय हे दुखहारी । ताप  सोक भय  भंजन कारी ॥

पुरुषोत्तम नाउ बिख्याता । कृपा सील सुख सम्पद दाता ॥ 
मनिक रतन धन चाहिए नाही । हम तव श्री दरसन के लाही ॥ 

जयकार करत बढ़ चले, तीर्थ हेतु बटोहि ।
सुन्दर सैल सरि सर धर मग छबि अतिसय सोहि ॥ 


मंगलवार ०२ दिसंबर, २०१४                                                                                                       

ठाउँ ठाउँ दै भजन सुनाईं । परम सुभग बिसनौ मुख गाईं ॥ 
कतहूँ भाव भगति रस साने । होइहीं गोविन्द गुन गाना ॥ 

करिहि गान बहु तान तरंगे ।बादन मंडलि मिल एक संगा ॥ 
होत राउ रंजन बहु भाँती । परे अयासी मन सुख साँती ॥ 

करिहि आपहू हरिगुन गाना । होर छिनभर कीन्ह पयाना ॥ 
आए पथ जब काँजी नरेसा । दरसे तीर तीरथ बिसेसा ॥ 

होइहि सकल अभ्युदय कारी । अभ्युदर्थि भए सेवनहारी ॥ 
तासु महिमा ब्रम्हंजन गावैं । श्रुत श्रवण सुख पवत जावैं ॥ 

जितारि श्रमजित महराउ, रहेउ कृपा निधान । 
दरसे जहाँ दीन दुखी, देइ अनुकूल दान ॥  

बुधवार, ०३ दिसंबर, २०१४                                                                                      

पुरंजन राउ सन जो आने । किए अनेक तीर्थ अस्नाने ॥ 
अभरे तन निर्मल जल चीरा । भयउ पबित अति भब्य सरीरा ॥ 

दिखे नदी एक आगिन बाढ़े । लिखे चित्र सोंह  जहँ तहँ ठाढ़े ॥ 
कलिकल सकल पाप दूरानी । बहि कलकल गहि सीतल पानी ॥ 

सालग्राम हिय अंतर धारी । करे चकित बहु चक चिन्हारी ॥ 
 बैठे पंगत मुनि समुदाई । तीर तरंगित माल सुहाई ॥ 

भूपत चतबन सुखु न समावै । मुनि सन परिचय पूछ बुझावै ॥ 
तपों निधि मुनि संग सोइहि । पावन नदी नाउ को होइहि ॥ 

जल दर्पन नभ छाए छबि, किए तिसय अल्हाद । 
जहँ धरती गगन उपबन, मेल करें संवाद ॥ 

बृहस्पतिवार, ०४ दिसंबर, २०१४                                                                                                         

मंगल गिरा मुनिरु बिद्बाने । अद्भुद तीरथ महत बखाने ॥ 
तासु नाउ गण्डकी तटिनी । सालीगाउँ अरु नारायनी ॥ 

अवस्थित पबित परबत पासू । देवासुर दुहु सेविन जासू ॥ 
निर्मल जल उत्ताल तरंगा । करिअहि पातक जूह बिभंगा ॥ 

डीआरएस प्रस मन मानस संगे । कर्म जनित जल पान प्रसंगे ॥ 
जलधृत उद्धृत बानी ताईं । दहे अखिल पातक समुदाईं ॥ 

सनातन समउ पाप बिसेखे । लिपत प्रजा जब बिरंचि देखे ॥ 
गंड अस्थल जल कन ढुलिकाए । सो कन अघहन धेना जनाए ॥ 

कंठ कलित श्रीमाल  तरंगाई तुलित तीर । 
सूर किरन कर भाल  उज्जबल मुख लिए उतरी ॥  

शुकवार, ०५ दिसंबर, २०१४                                                                                                     

 परसत पौर जो पबित सलिला । किए चूरन घन पातक सिला ॥ 
अस पूण जल परसे जो कोई । तासु  गर्भ गह  पीर न होई ॥ 

भित चक चित पाहन परगासे । जिमि रतनन सन नद तन  लासे ॥ 
चक लखनक जस लक लाखी । सोए भगवन श्री बिग्रह साखी ॥ 

पूज्य परम हित हरि प्रभूता । तासु माहि भए  प्रादुर भूता ॥ 
लिए सालगांव चक चिन्हारे । जो भगता नित पूजन कारें ॥ 
सो सद अचारी अभरन भरें । लोभ लब्धन लालस न करें ॥ 
होत बिमुख परधान परदारा । किए पूजन सो परम पुजारा ॥ 

गण्डकी सालि गाँउ एक  दुअरिका चक चीन्ह । 
यहु दोउ सौक जनम के,  पातक हरन कीन्ह ॥ 

शनिवार, ०६ दिसंबर, २०१४                                                                                                

हो चहे सहस पापाचारहि । साल गाँउ जो चरन  पखारिहि ॥ 
आचमन पयस उदर गहाइहि  । पातक समूह पार लगाइहि ॥ 

चतुर बरन मग बेद बताइहि  । सूद्रहु पदरचत मुकुति पाइहि ॥ 
महामुनि कथनत पुनि कल कूजे । सलगांव पद तिया न पूजे ॥ 

जो को तिय कल्यान चहइहौ । साल गाउँ के पद न पुजइहौ ॥ 
बैदभ हो चाहे हो सिँधुरी । सील परस सों रखिहौ दूरी ॥

परिसिहि जोउ मोह के पासा । होही सकल सदकृत के नासा ॥ 
तासु सीस गहि पातक भारी । तुरतै मिलिहीं नरक दुआरी ॥ 

ब्रम्ह बधिक होए चाहे, केतक पापाचारि । 
अस्नान पयस पान होहि , परम पदक अधिकारि ॥ 

















----- ॥ उत्तर-काण्ड २५ ॥ -----

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तेहि समु एक जान मनोहर । देऊ लोक सों आन धरा पर ॥ 
हंस रूप उजरित मनियारा । चले पुलकस बैकुन द्वारा ॥ 

तहाँ निबास किछु समउ होरे । पंच कोस पिछु आनि बहोरे ।। 
तीन मुख कुल पुनि जनम जुगाए । पूज बिसुनाथ परम पद पाए ॥ 

जद्यपि रहि अति पापि सुभावा ।तथपि सुधिजन संग प्रभावा ॥ 
दिए जम दूतक पीर भयंकर । सिला परस कर लेइ सकल हर ॥ 

सालगाँउ के सिला अगाना । कथत कथानक हो न बिहाना ॥ 
तेहि ते में किछु कहा बखानी । करन पुनीत हेतु निज बानी ॥  

बिष्नऊ चरन को मरना सन को  हृदय भवन सिला धरें । 
ललाटपटल पर हरिप्रिया धर राम नाउ मुख सुमिरैं ॥ 
तुलसी दल दिए पद पयद पिए सो भव सागर सोंह उतरे । 
करन देह पावन भव सिंधु तरन हरि सिला पूजन करें ॥  

 सिला पूजन पान पयस, दे भव कूप निकार । 
बिंदु मह सिंधु समाहित, कहा किछु एकहि सार ॥ 

बुधवार, १७ दिसम्बर, २०१४                                                                                           

खत सुमति हे सुमित्रा नंदन । गंडकी गंग अनुपम बरनन ॥  
सुनत महातम सह भावारथ । रतन गींउ मन भयउ कृतारथ ॥ 

तेहि तहाँ तीरथ अस्नाने । तरपत पितृजन अर्चिष्माना  ॥ 
धन धान सहित भूरिहि भेषा । दिए दीनन कर दान बिसेखा ॥ 

सत्कृति कृत भए हरष बहूँता । बिष्नु सिला पद पूजन हूँता ॥ 
गहत नदी  हरी सिल चौवीसा । सदर पदुम पद धरे सीसा ॥ 

चन्दन तुलसी जल उपचारे । चढ़ा चरन पूजत सत्कारे ॥ 
तदनन्तर धीमान धरेसा । पुरुषोत्तम मंदिरु प्रबेसा ॥ 

एहि  बिधि क्रमबत पयानत, पहुंचे सो सुभ धाम । 
तरंगित पयधि पद जहाँ, सुरसरि करे प्रनाम ॥ 

गंगा -सागर 

बृहस्पतिवार, १८ दिसंबर, २०१४                                                                                       

सिथिल श्रम बहुल पथरिल पंथा । तहँ गत बिगत पथिल भए श्रंथा ।। 
पथ एक त्रइ मुख पथक बिसेखा ।  नीलांचल थरी पूछ देखा ।। 

जहँ के पाहन हिरन सकासे  । बसिहिं तहँ श्री हरिहि सुपासे ॥ 
देवासुर दुहु सीस नवावैं । कृपाकर सोइ ठाउँ बतावैं ।। 

भ्रमहं चित बहु अचरज होहीं । कहि बड़ सादर भूपत सोंही ॥ 
जिन भगता जग बंदित कहहीं । पावन परबत इहहि त रहहीं ॥ 

जान को कारन दरस न आए । पथक पुनि पुनि ए बचन दुहराए ॥ 
नीलाचल गिरी के अस्थाना । कृत फल दानत होहि महाना ॥ 

रहिही यहांहि सो थरी जहाँ मोहि अस्नात । 
चतुर्भुज रूप सरूपी दरसिहि कोल किरात ।। 

शुक्र/शनि , १९/२० दिसम्बर, २०१४                                                                                                    

प्रभु दरसन लोचन पथ जोईं । सुनि अस भूपत ब्यथित होईं । 
कहे दुखित मन बिप्रबर सोंही । मो पभु चरन दरस कस होहीँ ॥ 

नीलाचल गिरि दए देखाई  ।  तासु हेतु कहु को जुगताई ।। 
किए तन कंपन बदन हिलोले । बिचलित होत द्विजबर बोले ॥ 

हमहि समागम कर अस्नाना । तनिक समउ होरएँ एहि थाना ॥ 
गिरिरु दरस जब लग नहि होई । सिथिर इहाँ  सो फिरिहि न कोई ॥ 

भगत बछर कृपालु अघ हरहीं । हमहि सो अवसि उपकृत करहीं ॥ 
हरि भजन मह जासु मन लागा । भगत प्रभु कबहु करे न त्यागा ॥ 

सम डीठि लखें जग रछित रखेँ,  देवाधिदेउ सिरुमने । 
दरस जिग्यासु पथिबृंद तासु करौ कल सुकीर्तने ॥  
सुनी पथक गिरा होत अधीरा तट तीरथ सनान किए । 
पुनि पन धारी अनसन कारी प्रभु दरसन के प्रन लिए ॥ 

करत प्रभो गुन गान तिसनित कंठ आए प्रान । 
करे न पयसन पान, प्रभु दरसन मुख ररन धर ॥  

सोत बचन कहि दीन दयालू । जय जग जीवन जगत कृपालू ॥ 
सगुन श्री बिग्रह धारन हारे। खेल दल दलन लेहु अवतारे ॥ 

जासु  तनुभव भगत प्रह्लादा ।देइ दुसह दुःख दनुज प्रमादा ॥ 
ताहि सरिस नहि जग को ताता । देइ अगन नग सिखर निपाता ॥ 

दंड पास कर जल अवगाहा । रूप धरे तब तुअ नर नाहा ॥ 
संकट तंतु कटे तत्काला ।पीर परे तहँ प्रगसि कृपाला ॥ 

करे प्रभो अस मोहनि लीला । बसे गवन घन बिपिन करीला ॥ 
मात पिता के अग्याकारी । भगत बछर जग पालन हारी । 

देवन्हि मुनि सिरौमनि, हे दीनन के नाथ । 
कोटि अघ होत भसम तव चरन लगे जब हाथ  ॥ 

रविवार, २१ दिसंबर, २०१४                                                                                                

तव मानस जिन्हनि प्रिय माने । आए भगत जन सो अस्थाने ॥ 
देवासुर बंदित जगदीसा । जहँ तुहरे पद तहँ मम सीसा ॥ 

प्रभु महिमा कबहु न बिसराओ । पीर परे जहँ तुअ सुख दायो ॥ 
तुहरे नाउ जोकीर्त  कारी । सो पारगमन के अधिकारी ॥ 

सतजन मुख कहि सुनि सत होहीं । दरसन अवसिहि होहिहि मोही ॥ 
कहत सुमति भूपत एहि भाँती । प्रभु कीर्तन करै दिनु राती ॥ 

छिनु भर हुँत बिनु करे बिश्रामा । नीँद नयन बिनु सुख भए बामा ॥ 
चरत फिरत होरत एक साँसे । भासिनु को एहि कह संभासे ॥ 

आह अजहुँ त दरस परे, प्रभु के अनुपम झाँखि ।
भरे ह्रदय जर झरे भए नयन ढरे बिनु पाँखि ॥  

सोमवार, २२ दिसंबर, २०१४                                                                                                

तब करुनाकर जगदाधारे । कृपा पूरबक सोच बिचारे । 
करत महिमन मम भगति सहिता । ए जनपालक भए पाप रहिता ॥ 

आरत बस जस मोहि पुकारा । होइहि दरसन के अधिकारा ॥ 
हिय होत द्रवित प्रभु कंठ भरे । कहि मन मानस अजहुँ का करें ॥ 

जटा मंडल सिरु केस बनाए । कमंडल धार जति भेस बनाए ॥ 
धरि जब दाहिन हाथ त्रिदण्डा । मंजुल मुख लसि तेज प्रचंडा ॥ 

सगुन सरूप गयऊ समीपा । ब्रम्हन तपसी देख अधीपा ॥ 
ललकित लोचन पलक हिलोले । ॐ नमो: नारायन बोले ॥ 

सन्यासी सौंह सीस नवाए । अरग दए सादर आसन  दाए ॥ 

आउ भगत बिधिबत करत, बोले अस सुठि बोल । 
महमन मोरे भाग के  नहि जग महि को मोल ॥ 














----- ॥ उत्तर-काण्ड २६ ॥ -----

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 बृहस्पतिवार, ०१ जनवरी, २०१५                                                                                     

मत्स्यावतार तुम्ह धारे । श्रुति रच्छत संखासुर मारे ॥ 
माह पुरुख तुम सब कुल मूला । तुहरेहि सँग जगत फल फूला ॥ 

सेष महेसहु महि कह देखे । सारदहु का तुअ केहि न लेखे ॥ 
तिनके सहुँ कहँ मैं अग्यानी । कहँ मोरी अनबाचित बानी ॥ 

भगवन गन सकलन अस होई । तिन गावन समरथ नहि कोई ॥ 
गाँठ गदन सुठि बरन के पाँति । चढ़ा चरन राजन एही भाँति । 

बहुरि नत नयन करत प्रनामा । गदगद गिरा लेइ प्रभु नामा ॥ 
मंजुल  मुख मंगल मुद भ्राजू । नीति प्रीति पालक रघुराजू ॥ 

भाव भगति उर भरि अस भावा । उठए बन घन नयन जल छावा ॥ 
गदै बचन बानि सरबसु से । गहन सुमनसु श्रवन ससि रसु से ॥ 

रे बछर तुम्हरी भगति, मम सद भगत सरूप । 
प्रसादु पावत अजहुँ तुअ, होहु चतुर्भुज रूप ॥ 




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