शुक्र/शनि, २९/३० अगस्त, २०१४
दनु देह बसी मति बिपरीता । एहि कारन निर्बल जिउ जीता ॥
परबोधत अस रबि कुल कंता । किए बली देइ बल रिपुहंता ॥
दानव के देह में विपरीत बुद्धि का वास हो गया है गया है यही कारण है कि वह निर्बल निरीह जीवों पर अत्याचार कर रहा है ॥ रघु कुल कान्त श्रीरामजी ने ऐसा प्रबोधन करते हुवे भ्राता शत्रुध्न को दानव के नाश हेतु दिव्य बल देकर उन्हें बलवंत कर दिया था ॥
लेइ संग निज तनुभव दोई । समर सूर जग जीतन जोईं ॥
पैहत आयसु सैन पयाने । निह्नादत नभ बजे निसाने ॥
तब शत्रुध्न अपने दोनों पुत्रों के संग लिया और संसार के पाठकों पर विजय प्राप्त करने हेतु वीर युयुधान को संजोया । जैसे ही सेना को उनकी आज्ञा प्राप्त हुई । वह नभ को निह्नादित करती हुई प्रयाण-पटह का वादन करते चली ॥
चाक चरन रथ दिए पथ दाने ॥ चले सहस दस छतर बिताने ।।
गरजत गज जूथ हय हिंसाए । धुर ऊपर धूरि धूसर छाए ॥
दस सहस्त्र रथ छत्रों से युक्त होकर अपने चक्रों से पथों पर चिन्ह अंकित किए चल पड़े । गज समूह गरजने लगे हाय हिनहिनाने लगे । धुर ऊपर धूलि की धूसरता छ गई ॥
दुंदुभि तुरहि संख मुख पूरयो । चपल कटक दनु लेइ घेरयो ।।
तरजें सुभट जूँ निसान हने । धनबन प्रति ध्वनि कहत न बने ॥
मुख से दुदुंभियां, तुरही, शंख आदि स्वर-नाद निह्नादित होने लगे । तब विशाल कटक ने लवणासुर को चपलतापूर्वक घेर लिया ॥ सैनिकों ने ऐसी जैसे नगाड़े ध्वनिवन्त् होते हैंउस तर्जना से आकाश में जिस भांति की प्रतिध्वनि उठी वह वर्णनातीत है ॥
भए अस घमरौले घमंक बोले जसघनब घन घनकयो ।
घनबाही बादे तस निह्नादे बरखत जल बल झरयो ।।
उम उमगाई तरंग के नाई सींवा पारगमन करियो ।
एक एक बीर बिंदु जुगत भए बृन्दु सिंधु सरि रूप बरियो ॥
वहां ऐसा घमासान मच गया, घूंसे मुष्टिक के प्रहार ऐसे बोलने लगे जैसे आकाश में घन मेघ गर्जना कर रहे हों । सैनिकों के प्रहार की धवनि हथौड़ी के चोट की धवनी जैसी ही थी ॥ उनका जल बना बल शत्रु के ऊपर बरस पड़ा ॥जैसे तरंग तटों पर उमड़ आती है वैसे ही वे सैनिक दनुज के नगर की सीमा पारगमन करने लगे ॥ सेना के एक एक शूरवीर एक एक वीर बिंदु परस्पर संयोजित होकर बिंदु-वृन्द हो गए, और उन्होंने सिंधु के जैसा रूप वरण कर लिया ॥
हँकारत चहुँ दिसि बाढ़त, कोट कलस चढ़ि आन ।
रजरत रथ चरन रवनत रव मुख अनक निसान ।।
शत्रुओं को युद्ध हेतु आह्वान कर युधवीर चारों दिशाओं में बढ़ते हुवे कोट के कंगूरों पर चढ़ गए ॥ उस समय धुलीवंत होकर रथ चरणों से ध्वनि कर रहे हैं ढोल एवं डंके मुख से ध्वनिवन्त् थे ॥
तेजस तुरग तजे मख बेदी । हर्ष घोष किए गगन बिभेदी ॥
अमित बिक्रमी बीर बहुतेरे । घार घेर चहुँ फेरी घेरे ॥
गगन विभेदी हर्ष धवनी करते शक्तिशाली एवं प्रतापी वीर एकत्र हो गए । यज्ञ वेदी से त्यागा हुवे तेजस्वी राज स्कंद को उन्होंने चारो ओर से घेर रखा था ॥
चले बाहि ले रथ कर पूला । छाए धुरोपर धूलहि धूला ॥
परिगत कोट कटक लिए घेरी। दुहु पाँख मुख बजे रन भेरी ॥
रथ रश्मियों को मुट्ठा किए सारथी रथ लिए चल रहे थे धुर ऊपर धूल ही धूल छा गई थी ॥ दनुज के गढ़ पर व्याप्त होकर उन्होंने उसकी सेना को चारों ओर से घेर लिया । फिर क्या था दोनों पक्ष से रण की भेरी बजने लगी ॥
निज निज स्वामि जब जय बोले। डोलि कुधर भू समुद हिलोले ॥
जोड़ जुगत निज निज बल केरे । बाहु बलि किए पल माहि ढेरे ॥
जब वे अपने अपने स्वामियों का जयकारा लगाते पर्वत डोलने लगते,भूमि कांप उठती, समुद्र छलकने लगता ॥ अपने अपने बल के अनुसार जोड़ी बनाकर सुभट प्रतिभट को पल में ढेर कर देते ॥
लरहि सुभट निज निज जय कारन । बर्नातीत रन बात्स्यायन ॥
कंठी माल किए काल कलिते । लवणासुर अनी भइ बिचलिते ॥
सभी भट प्रतिभट अपनी अपनी विजय हेतु रणोत्कंठित थे । हे मुनिवर वात्स्यायन ! यह युद्ध तो वर्णनातीत हुवा जा रहा है ॥ कारण की काल की कंठी माल को कलित किए लवणासुर की सेना विचलित हो गई ॥
चाप हरि चाप कटक घन, भए गरजन टंकार ।
होइहि नभ सन निरंतर , तीर तीर बौछार ॥
हस्तगत धनुर् इन्द्रधनुष हो गए, कटक घन स्वरूप हो गई है । प्रत्यंचा की टंकार मानो घन की गर्जना हो गई और नभ से निरंतर तीरों की वृष्टि होने लगी है ॥
धरे पुंग भए बान बिहंगा । उरत आन लगे अंग अंगा ।।
गूठे दनुज भयउ उतरंगा । पठइँ केतु मतंग एक संगा ॥
बलि सुबाहु बर सुत सत्रुहन के । अगुसरे मतंग मीच बन के ॥
जूपकेतु लघु तनय हँकारा । करत कोप बहु केतु पचारा ॥
दुष्ट दनुज तब किए छल छाया । सायुध सुर प्रगसे बन माया ।।
भरम भीत भट भए हत चेते । केहि हेत किए केहि अहेते ॥
धरे कर कुधर खंड प्रचंडा । परिगत परिघ किए खंड खंडा ॥
सैल सूल श्रृंगी सृक छाँड़े । आन कटक चढ़ि आगिन बाढ़े ॥
सहस्त्रो सहस्त्र ससस्त्र, असुर केर सुर जूथ ।
सत्रुहन जुधा भयउ त्रस्त्र, बिलखत बिबिध बरूथ ॥
रविवार, ३१ अगस्त, २०१४
उत दनुपत इत रघुबर नामा । नाद उभय पख किए जय कामा ॥
देखन्हि छल छाइ सुर ठट्टा । सु बिहिन भट्ट भयउ सुभट्टा ॥
तब अरिहत प्रभु दिए बल जोगे । खैंच सरासन बान बिजोगे ।।
जस तमहर कर अवनि अवतरे । तस सर दनु केरि माया हरे ॥
आँगन सुर बृंदा बिनु देखे । बीर सुबाहु काल भर भेखे ॥
एक गदीन त एक सूल धारी । भयउ चहुँ कोत हाहाकारी ॥
खाल कर माल सूल सँभारे । अस कह उरस गदा दिए मारे ।
किए घींच अघात अस तेजा । सूल बल तेज किए निहतेजा ॥
बान बिषिख काटे जाल, माया देइ बिखेर ।
लवनासुर मुरुछित परे, भूमि माझ भए ढेर ॥
सोमवार, १ सितम्बर, २०१४
लवनासुर चिट मुरुछा छाई । अघात खात भए धरासाई ॥
तब रन बांकुर कैटभ नामा । दानउ दल मह बल के धामा ॥
दलाधिपत हत चेतस देखा । धरे तड़ित सैम सूल बिसेखा ॥
जूपकेतु के सौमुख आवा । परम क्रोध किए संग जुझावा ॥
घात मर्म जब हिय दिए भेदा । छाए गहन घन बदन स्वेदा ॥
राम राम हाँ राम हँकारा । हत प्रभ लोचन भात निहारा ॥
सुबाहु जब हत बंधू बिलोका । हूँतत दनु चहुँपुर अबलोका ॥
लै त्रै कोटिक बान कराले । छाँड़त बहे रुधिरु परनाले ॥
इत दानउ कर सबहि बिधि, आजुध करत प्रजोग ।
झपटि दपटि इत उत लपटि, बारे सकल हठ जोग ॥
मंगलवार, २ सितम्बर, २०१४
इत रघुकुल दीपक अति आकुल । उत सुबाहु दनु करत ब्याकुल ॥
आए अचिरम भ्रात संकासे । लगे साँग उर देइ निकासे ॥
जूपकेतु सुहसित उठि ठाढ़े । बान निषंग मुठिक धरि बाढ़े ॥
निसिचर के चेतनहु जाग्यो । देख लगी आपुनी लाग्यो ॥
चल्यो भ्रात कुमुक लिए संगा । हारिहि संग सेन चतुरंगा ॥
साजि बाजि गहि हनत निसाना । कोप निधाना बहु बलबाना ॥
लवनासुर तब भए संक्रोधा । अरिहंत संग सीधहि जोधा ।।
उठे चिँगारी लागहि लोहा । रनांगण रज रुधिरु पथ जोहा ॥
दनुज माझ भट भीर, सत्रुहन तकि लिए लस्तकी ।
छाँड़े तेजस तीर, श्रीराम चरन सुरति किए ॥
बुधवार, ३ सितम्बर, २०१४
धनु गुन बिथुरत चले नराचा । मर्म भेद लिगु लगे पिसाचा ॥
सुने मरण दनु जब सुर बृंदा । धरे चरन घन जान अलिंदा ॥
चढ़ि चढ़ि नभ बैसत बहु हरषहिं । मुकुलित हस्त पुहुप पत्त बरखहि ॥
सत्रुहन तहाँ जुग नगर रचाए । सासन सूत दुहु तनय धराए ॥
नाम नगर सूरपुरी सुहाए । दूजे बिदित जिमि निगम कहाए ॥
सुबाहु भए सूरप महिपाला । बिदित देस नृप भए लघु लाला ॥
सचिवन्हि सुत रखत तिन संगा । अगुसरी पताकिनि चतुरंगा ॥
मेध अश्व किए सत्रुहन आगिन । भट सपयादिक भए अनुगामिन ॥
रजत रथ सुबरनइ रसन, बांधे बर बर बाहि ।
बरे गज गति सूर समर, अगूत अगुसर जाहि ॥
बृहस्पतिवार, ४ सितम्बर, २०१४
चलेउ गह गह कटकु अपारा । बही बहा जस लहि बहु धारा ॥
कंठ घोष जिमि केहरि नादे । भयबस सरबतसरि अवसादें ॥
एक सरि ताल चरन भू धरहीं । निज निज बल पौरुख उच्चरहीं ॥
हस्त मुकुल रबि मेघ गहाही । पथ पथ पख कौसुम बरखाही ॥
प्रहरषित अस प्रहरे पताका । जिमि तड़ाकत तड़ित अरि ताका ॥
नेकानेक नगर नग आली । भँवा कारि बहु संपन साली ॥
चले समीर बेगि हय हाँके । सरित बनिक बन सैल नहाके ॥
पँचाल कुरु कुरोतर देसे । नाँघ दसारन देस प्रबेसे ॥
इस प्रकार पाञ्चाल, कुरू , कुरोत्तर देशों को लाँघ कर मथुरा होते हुवे सेना ने दशार्ण ( मध्य भारत के विदिशा के आसपास का क्षेत्र ) में प्रवेश किया ॥
सुहा संपन सेन सहित, सत्रुहन जहँ जहँ जाएँ ।
जान जान मुख हरि कीर्तन, कानन श्रवन सुहाए ॥
शुक्रवार, ०५ सितम्बर, २०१४
हरिहि कीरत करत मृदु बानी । करएँ सुआगत तहँ जुग पानी ॥
जसोगान श्रुत सह संतोखे । याचकिन्ह बहु भाँति परितोखें ॥
बिधा प्रबीन अचल संग्रामा । रहिहि सचिउ एक सुमति सुनामा ॥
बलि संग बलि तेज सों तेजस । समर भूमि मैं सचित सचेतस ॥
रक्छत कच्छ आन सँग सोई । सत्रुहन के बर अनुचर होई ॥
तिनके संगति किए मह धीरा । हरिअ अस पैठि भारत भीरा ॥
नेक गाँउ किए जनपद किए पारा । अस्व किरन पर कोउ न धारा ॥
बिबिध देस धिनायक धिराया । समर सूर जानिहि बहु माया ॥
अतुलित बल संग संपन, जुगए कटक चौरंग ।
सरबतस दच्छ रहि जदपि सर्ब धुरिन के संग ॥
सेना -कक्ष