रामचंद्र तब नगर अजोधा । लै सद सम्मति परम सुबोधा ॥
अश्व मेध कर कारज धारे । महा जज्ञ के अयोजन कारे ॥
तब फिर श्री राम चन्द्र ने अयोध्या नगर में समस्त श्रेष्ठ ज्ञानवानों के यथोचित विचार ग्रहण कर अश्वमेध का कार्य करने का निश्चय करते हुवे महा यज्ञ का आयोजन किया
जोड़न बिनु जज्ञ होए न भाई। एहुँत मृदा के सिय रच साईँ ॥
किए गठ जुग जज्ञ बेदी बैठे । बिमौट सह लव कुस तँह पैठे ॥
चूँकि बिना अर्द्धांगिनी के कोई भी यज्ञकार्य कारित नहीं होता इसी कारण वश भगवान श्री राम चन्द्र ने मिटटी की सीता को रचा । और उस अर्द्धांगिनी से गत जोड़ कर यज्ञ वेदी पर विराजमान हुवे इस अवसर पर महर्षि वाल्मीकि भी लव कुश के साथ अयोध्या नगरी आए ॥
दौनौ बाल पुर पुरौकाई । भँवर भँवर रामायन गाईं ॥
मधुर गान रहि अस रस बोरे। पागत श्रवन पुरौकस घोरे॥
दोनों बालक ने नगर में घूम घूम कर नगर वासियों महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित श्री रामायण महा काव्य का पाठ बांच कर सुनाया ॥ उनका मधुरित गायन रसों में इस प्रकार से डूबा हुवा था कि वह गहरा होकर नगर वासियों के कानों में घुलने लगा ॥
बाँधे लय जब दुहु लरिकाई । सुर मेली के गान सुनाईं ॥
संग राग छह रंगन लागे । पुर जन के मन मोहन लागे ॥
जब दोनों गदेले लय बद्ध होकर सुर को मिलाते हुवे रामायाण की गाथा गा कर सुनाते तब छहों राग साथ में तरंगित हो उठते, और उस गान ने अवध वासियों के मन को मोह लिया ॥
आगिन गवने सुत रघुराई । पाछू सब जन रमतत आईं ॥
मोद मुदित मुख निगदित जाते । जो तिन्ह जनि धन्य सो माते ॥
राजा राम चन्द्र के पुत्र जब थोड़ा आगे चले तो सब जन मुग्ध होते हुवे उनके पीछे पीछे चलने लगे ।। प्रसन्न चित एवं आनन्दित होते हुवे वे अपने मुख से कहते चलते कि जिस माता ने इन पुत्रों को जन्म दिया है वह माता धन्य है ॥
जन मुख कीर्ति कीरतन, श्रुत दोनौ निज मात ।
भए भावस्थ ग्रहत प्रवन, वंदन चरन अगाध ॥
नगर वासियों से अपनी माता की कीर्ति का कीर्तन श्रवण कर, वे भाव में लीन होकर उस कीर्तन का आशय ग्रहण कर वे भाव विभोर हो उठे, अपनी माता के चरणों में उनकी श्रद्धा और अधिक हो गई ॥
गुरूवार, २ ७ जून, २ ० १ ३
प्राग समउ मह भारत खंडे । रहहि लघु राज भू के खंडे॥
कहूँ नदिया कहूँ नद के धारी । घेर बाँध भू किए चिन्हारी ॥
प्राचीन समय में भारत वर्ष की भूमि,सुव्यवस्थित राजनीतिक क्षेत्रों की लघुत ईकाइयों का समूह था । कहीं लघु तो कहीं वृहत नदियों ही राज्य क्षेत्र की सीमाओं को चिन्हांकित करती थीं ॥
तेइ बयस मह देसिक धारे । रहहि न अबाधित अंतर सारे ॥
समाज सन रहि भेद अभेदे । भेद अभेद भेदीहि भेदे ॥
उन परिस्थितियों में राष्ट्रीयता की धारा अपने आतंरिक विस्तार में अबाधित नहीं थी अर्थात वे बाधित थी । पुरातन भारतीय समाज में भेद और अभेद दोनों ही था । भेदी अर्थात भेद अभेद का लाभ लेने वाले भेद-नीति अपना कर अपना उल्लू सीधा करते ॥
सस्य स्यामलि सुमनस सूमिहि । एक छत्र करतन भारत भूमिहि ॥
देस भूमि जन घेरन बंधे । चिन्ह तंत्र प्रद पाल प्रबंधे ॥
शस्य श्यामल, सौमनस्य, जल से परिपूर्ण इस भारत की भूमि को एकछत्र अर्थात सार्वभौम स्वरूप देने हेतु राज्य का क्षेत्र एवं उसके वासियों को अर्थात भारतीय गणराज्य को एक सीमा रेखा में बाँधते हुवे उसे चिन्हांकित कर शासन को एक प्रणाली प्रदान करने एवं राष्ट्र को संगठित करने के उद्देश्य से राज्य के प्रधान शासक ने : --
तेहिं कर जज्ञ के कल्प धारे । भारत भू एवम एकीकारे ॥
एक कौ अश्व मेध जज्ञ कहही । दूजन राज सूय यज्ञ रहहीं ॥
इस हेतु यज्ञ की कल्पना की कि इस यज्ञ विधि से भारत की भूमि का एकीकरण हो ॥ जिअस्के अंतर्गत एक यज्ञ को अश्व मेध यज्ञ खा गया दुसरा राज सूय यज्ञ कहलाया ॥
प्रतीकतह एक हय तजें, सकल राज के बाट ।
जे राउ तेहिं कर धरहि, जोधहीं सन सम्राट ॥
प्रतीक स्वरूप समस्त राज्यों की वीथीकाओं में एक घोड़ा छोड़ा जाता । जिस राजा ने उस घोड़े की रस्सियों को पकड़ लिया उसे सम्राट के साथ युद्ध करना पड़ता ॥
बिधि पूरनित पूजन बिधाने । सकल द्विज पति बहु सनमाने ॥
बिप्रबधु सुआसिनि जे बुलाईं । चैल चारु भूषन दिए दाईं ॥
बिधि विहित विधानों के अनुसार यज्ञ पूजा पूर्णकर भगवान् राम चन्द्र ने सभी श्रेष्ठ ब्राम्हण को अतिशय सम्मानित किया । और जिन ब्राम्हण वधुओं एवं पास पड़ोसिनों को निमंत्रित किया गया था उन्हें सुन्दर वस्त्र और आभूषण उपहार स्वरूप प्रदान किये ॥
आन रहहि जे पहुन दुआरे । भली भाँति सादर सत्कारे ॥
समदि सकल बिधि सबहि उयंगे । ह्रदय भीत भरि मोद तरंगे ॥
और जो आगन्तुक आए हुवे थे उनका उनका भाव पूर्ण स्वरूप में आदर सत्कार किया ॥ सभी प्रकार से सम्मानित होकर सभी जनों के हृदयांतर में हर्ष और प्रसन्नता की तरंगे उठने लगीं ॥
पूरनतस बिधि बोधनुसारे । अश्व मेध यज्ञ पूरन कारे ॥
रघुकुल कैरव गौरव नाथा । यज्ञ परतस ले एक हय हाथा ॥
ए बिधि परिहार तुरंग, जग कारिन जज्ञ कारि । अगहुँड़ हय पिछउ वाकी, पिछु कर धारिन धारि ॥
इसी विध्यनुसार जगत के पालन हार ने यज्ञ कार्य पूर्ण कर एक घोड़ा छोड़ा । आगे आगे घोड़ा चलता पीछे पीछे उस घोड़े की रस्सियों को संभाले, पीछे श्री राम की सेना चली ॥
शनिवार, २१ सितम्बर, २ ० १ ३
तुराबान रहि लहि गुन ग्रामा। स्याम करन रहहि तेइ नामा ॥
धरे किरन धरनी परिहारीं । चलइ धारि सन धारित धारी ॥
बाजी जिन जिन देस प्रबेसे । तेइ मेले राघव महि देसे ॥
जे राजन तिन कर पाहहिं । ते राम चन्द्र धारि जुधाहहिं ॥
(गुरूवार, २४ अक्तूबर, २ ० १ ३)
बहुरि एक दिन रयनि भुज घेरी। हेर प्रात के हिय पग फेरी ॥
सहस लोचन सन किरन जागी । सोए जगत जगावन लागी ॥
फिर एक दिन रात्रि,प्रभात को भुजाओं में घेरी उसका चितवन हरण कर लौट गई ॥ ( तब) सूर्य के साथ उसकी अर्द्धांगिनी प्रभा जागृत हुई और सुषुप्त संसार को जगाने लगी ॥
फिरत तपोबन है पथ भूला । गवन पैठ सों तमसा कूला ॥
जँह मह रिषि बाल्मीकि जी की । रह घिरी कर्नक कुटी नीकी ॥
उधर उस तपोवन में यज्ञ का अश्व पथ भूल गया ,और वहां जा पहुंचा जहाँ तमस नदी (जो गंगा में जा मिलती है ) के किनारे महर्षि वाल्मीकि जी का पत्तों,टहनियों एवं शाखाओं से घिरा सुन्दर आश्रम था ॥
तँह बहु रिषि मुनि रहत निवासे । हविर गेह गहि धूम अगासे ॥
अरु लव जात जानकी जी के । कुमारिन्ह सन मह मुनिही के ॥
वहाँ अनेकों ऋषि-मुनि निवास करते थे और आकाश यज्ञ कुंड का धुआँ ग्रहण किये हुवे था ॥ और माता जानकी जी का पुत्र लव और साथ में मुनि कुमार : --
जोग रसन जे जोजन हवने । प्रातकाल बन लेवन गवने ॥
तहाँ सुबरन पाति ते चिन्ही । ते अस्व तिन्ह दरसन दिन्ही ॥
यज्ञ कर्म करने के उद्देश्य से उसके योग्य समिधाएँ लाने के लिए वन में गये थे ॥ वहां उन्होंने, स्वर्ण पत्र से चिह्नित उस य्स्ग्य सम्बंधित घोड़े को देखा ॥
अस्व अठ गंध अरु कस्तूरी । बासत मधुर देह सन जूरी ॥
गाँठ गरु तन चरन गति तूरी । चरत उरि कनक सों धूरी ॥
वह अश्व अष्टगंध ( चन्दन, अगुरु, कर्पूर, तमाल, जल,कुंकुम, कुशीत, कुष्ठ इन आठ प्रकार के सुगन्धित पदार्थों के सार समिश्रण को अष्ट गंध कहते हैं ) और कस्तूरी की मधुर सुरभी उस घोड़े की देह से संयुक्त थी ॥ वह घोड़ा गठीला और तेजवान था चलते समय उसके चरणों से उठती धूल स्वर्ण कानों के सदृश्य प्रतीत होती थी ।
आनन महा तेजोमइ, चाल चलन तुरवाइ ॥
दरस तासु तिन्ह चितबन, उपजी कौतूहाइ ॥
उस घोड़े की मुखाकृति, महा तेजोमय थी और चालढाल तो तीव्र थी ही अत: उसके दर्शन प्राप्त कर लव सहित उन मुनि पुत्रों के चित्त में घोड़े के प्रति कौतूहल जगा ॥
लिए मुख चौंक चकित भाव , जोखत जवन तुरंग ।
भलबिधि परखन लउ तेइ,धर कर सोन सुरंग ॥
और उस तीव्रगामी अश्व का निरिक्षण करते हुवे उनके मुख पर विस्मय का भाव छा गया । फिर भली भाँती परीक्षण करने के पश्चात उनहोंने उस अश्व की स्वर्ण जैसी रस्सियों को पकड़ लिया ॥
शुक्रवार, २५ अक्टूबर , २ ० १ ३
अखिगत तिन लव पलक झपाई । मुनिहि कुँवरिन्ह पूछ बुझाई ॥
तुरंग सम यहु तूर तुरंगा । चरन हिरन रज बासित अंगा ॥
उसे देखते हुवे लव बस पलकें झपका कर मुनि कुमारों से पूछते हैं कि जिसके चरणों से धूलिका स्वर्ण सी हो गई जिसके अंग अंग से सुवासित यह घोड़ा, चित्त के समतुल्य है :--
चारु चँवर सन छबि छिनके । जे तुरगम कहु तो भए किनके ॥
आए तपोबन सों संजोगे । भूरि पथ का छत पत बिजोगे ॥
सुन्दर चँवर बंधे होने से इसकी शोभा जैसे छलक रही है यह तुरंगा कहो तो किसका है ॥ (तब मुनि पुत्रों ने कहा) यह तुरंग इस तपोवन में संयोग वश ही आ पहुंचा है । लगता है यह अपने छत्रपति से वियोगित होकर पथ भूल गया है ॥
सूर बंस रघुकुल के जातक । धनुर्धारिन प्रदल अति घातक ॥
तिन तुरग सन ऐसेउ सोहें । मनहु दुर्जय जयंतहिं होहें ॥
सूर्य वंश और रघुकुल का जातक धनुर धारी धातक बाणों के साथ उस तुरंग के समीप इस भांति से सुशोभित हो रहे थे जिसे जीता न जा सके मानो वह ऐसे राजा के पुत्र ही हों ॥
दस ध्रुवक के पटल ललाटे । बहत मसि पत आख़री लाटे ॥
धौल बदन जस पुष्कर नीके । जल पुष्कल सुदल पुंडरीके ॥
दस चिन्हों से युक्त उस अश्व के ललाट पटल पर अंजन के प्रवाह को अक्षरों की भित्तिका से बांधता हुवा एक पत्र था ॥ उसके श्वेत मुख पर वह पत्र जल से परिपूर्ण सुन्दर सरोवर में श्वेत कमल के पत्र सदृश्य प्रतीत होता था ॥
आखर आखर ओह , बादन धुनी अलंकरे ।
सिंधु सुता सुत सौंह, पत पंगत कंठ उतरे ॥
और अक्षर माला ? अहा ! यह शब्दायमान हो मोती मोती कर मानो पत्र की पंक्तियों के कंठ को अलंकृत कर रहे हों ॥
रवि/शनि , २२/२६ सितम्ब/अक्तूबर, २ ० १ ३
जब लेइ कर भाल पत देखे । पटीरिहि पटल रहि जो लेखे ॥
लोकत लव अखि कूटक लोले । घोरइँ रोषन राग कपोले ॥
लव ने जब उस भाल पत्र के सुन्दर पटल पर उल्लेखित सन्देश का अवलोकन किया ॥ उसे देखते ही उसकी आँखों के कोटर जो अब तक स्थिर थे, हिलने-डुलने लग गए । और गालों पर क्रोधवश अति गहरा राग छिटक गया ॥
दरसत दरसत मुष्टिक कासे । चरि साँस जस बायुर अगासे ॥
रद छादन पत फरकत लोले । धार धनु कर कुँवर सों बोले ॥
आऔर देखते ही देखते उसकी मुट्ठी कसने लगी । सांस ऐसे चलने लगी जैसे आकाश में आंधी चल रही हो । उस आन्ही से मुख पत्र फड़फड़ाने लगे । और हाथ में धनुष धारण कर लव मुनि कुमारों से इंगित होकर बोले : -
अह तासु पत भरे अभिमाने । आपनाप का मान न जाने ॥
कहत बचन एहि भरे अँगीठे । लाल लवन लव लोचन दीठे ॥
ओह ! इसका स्वामी तो घमंड से भरा हुवा बड़ा ही ढीठ है । न जाने अपने आप को क्या समझता है ॥ ऐसे वचन कहते हुवे लव की दृष्टी, भरी हुई अंगीठी के सदृश्य रक्त वर्ण सी किन्तु सुन्दर दिखाई दे रही थीं ॥
अरु तिरछन कर कहि तनि देखें । ताप बल पत जे महि लेखे ॥
कौन सत्रुहन कौन श्री रामा । का जेइ करि छत्रिहि कुल नामा ॥
और फिर तिरछि दृष्टी करते हुवे लव ने संकेत किया । और उस स्वामी का अपने बल और प्रताप का महिमा मंडन तो देखो ॥ ये शत्रुहन कौन है कौन है हैं ये शत्रुहन ? श्री राम वो कौन हैं ? छत्रिय वंश का नाम क्या इन्हीं के हाथों में है?
बीर छत्रिहि बर का हम नाहीं । अस बहुलित लव बचनन काहीं ॥
अरु अस्व किरन कस कै धारे । काख नयन है फेर निहारे ॥
क्या हम (दोनों भाई) श्रेष्ठ छत्रिय नहीं हैं ? ऐसे बहुंत -सी बातें सिय कुमार लव अपने मुख से उच्चारित करने लगे ॥ और अश्व की रस्सियों को कास के पकड़ते हुवे नयन और भौंहे तिरछे करते हुवे उस अश्व का चारों और से अवलोकन करते हुवे : --
सकल जग सूरन्ह जान, समतुल तृन तुष धान ।
जोगत पंथ कारिन रन, धनुर बान संधान ॥
जगत के समस्त राजाओं को तृण और धन्य -कवच के सदृश्य तुच्छ समझ कर धनुष में बाण संधान करते हुवे युद्ध हेतु उन राजाओं की प्रतीक्षा करने लगा ॥
रवि/सोम, २७/२८ अक्तूबर, २ ० १ ३
मुनि अंगज दृग जब जे दरसे । करन हरन लव है कर करसे ॥
चित के सुधी वदन के भोले । बचन रसन अस मधुरित बोले ॥
मुनि पुत्रों के लोचन ने जब यह देखा कि लव के हशव के हरण करने के विचार से उसकी रस्सियाँ हाथ में कासी हैं ॥ तब बुद्धि से समझदार और मुख के अबोध दिखने वाले उन मुनि कुमारों की जिह्वा ऐसे मधुरित वचन बोली : --
रे कुसानुज रे सिय कुँआरे । कृपा करत श्रुतु कथन हमारे ॥
कहें एक बचन तव हितकारी । जे कारज परि बहुसहि भारी ॥
हे! कुश के अनुज हे माता सीता के वत्स कृपया करके हमारे कथन को सुनो हम तुम्हारे हित करने वाली एक बात कहते हैं । यह अश्व हरण करने का कार्य तुम ना करो क्योंकि इस कार्य से तुम्हारी बहुंत हानि हो सकती है ॥
भए मह बिक्रमी बर बलबाने । अवध राउ गहि बहु सनमाने ॥
जासु जाल सकल जग ब्यापा । घन घमंड निज किए बल आपा । ॥
ये जो अवध के राजा श्री रामचंद्र हैं उनकी सैन्य शक्ति बहुंत अधिक है वह न केवल पराक्रमी है अपितु बहुंत बलशाली भी हैं ॥ जिनका रण कौशल सारे जग में प्रसिद्द है और जो अपने बल पर अत्यधिक घमंड करने वाले हैं
सोइ सुर पतहु जानत हेसी । हहरें धारन तिनके केसी ॥
कहत कुँवर तज हरन बिचारे । तिन है कर छोरें परिहारें ॥
वे देव् पति राजा इंद्र भी उसकी किरणों को पकड़ते हुवे कांपते यह जानते हुवे कि ये श्रेष्ठ अश्व उन राजा राम चन्द्र का है ॥ फिर मुनि कुमार कहते हैं : -- हे ! लव अब तुम इस अश्व के हरण का विचार त्याग कर इसकी किरणों को छोड़ दो और इसे जाने दो ॥
कहत लव तुम बेद बिदित, धर्म धुरंधर धीर ।
तव रच्छन मम धरम मैं, कुल जात रन बीर ॥
तब लव प्रतिउत्तर में कहते हैं : -- तुम मुनिकुमार वेद के ज्ञान में प्रकांड हो, और तुम धर्म के रक्षक हो । किन्तु मैं क्षत्रि कुल में उत्पन्न हुवा हूँ जिसका धर्म तुम्हारी रक्षा करना है ॥
श्रवनु जे तपोबन एक प्रदेसा । आश्रम धानिहि बन भू देसा ।।
अंत नेमि बन सींव सुधीते । हमरे गुरुकुल नेम बंधिते ॥
अब सुनो यह तपोवन एक प्रदेस है । और हमारा आश्रम इस वन देश की राजधानी है ॥ इसकी अंतिम परिधि तक हमने सीमाएं निबंध की हुई हैं ।जो हमारे गुरुकुल के विधानों से आबद्ध है ॥
चढ़ि हम पर तिनके बल दामे । गुरु के बिद्या बल किन कामे ॥
अजहुँ तिनके है हरे सीवाँ । पहले प्रगंड पुनि धरि गीवाँ ॥
यदि यह यज्ञ कर्त्ता हम पर चढ़ाई करते हुवे हमारा दमन करता है तब गुरु की दी हुई विद्या और यह बल किस काम आएगा । अभी तो इनके अश्व ने ही हमारी सीमाओं का व्यपहरण किया है फिर पहुंचा पकड़ते कहीं ये हमारे ग्रीवा तक न पहुँच जाएं ॥
अस कह ऊँटक केसरि काँधे । एक तरु लव ले रसरी बाँधे ॥
बाजी सह चारित जे धारी । आए जँह है बँधे एक डारी ॥
ऐसा कह कर लव ने अपने सिंह के जैसे कन्धों को उचकाया और एक विक्शा में उस अश्व की किरणों को बाँध दिया । फिर उस अश्व की रक्षा में जो सेना चल रही थी वह वहाँ आ पहुंची जहां वह अश्व एक शखा से बंधा हुवा था ॥
सैन सेउ जब है अबलोके । कहि रिसियत भए लाल भभोके ॥
आजु जमराजु कुपिते को पर । बाँधे तरुबर जो ए बाजि कर ॥
सैनिक, सेवक ने जब अश्व का निरिक्षण किया तो लाल भभूका होते हुवे क्रोधित होकर कहने लगे : -- आज यम राज किस पर कुपित हुवा है अर्थात किसकी मृत्यु आई है जो उसने इस अश्व कि किरणों को इस वृक्ष से बाँध रखा है ॥
मम पर अस कहि लव बलवंते । पूछ उतरु तिन देइ तुरंते ॥
अरु कहि जे को तिन निस्तारहि । तेइ करन सौ बारु बिचारहि ॥
'मुझ पर' ऐसा कहते हुवे बलवान लव ने उन सैनिक सेवकों के प्रश्न का तत्काल उत्तर दिया ॥ और फिर वह बोले जो कोई इस अश्व को छुड़ा कर ले जाएगा वो ऐसा करने से पहले सौ बार सोचे ॥
दुइ भ्रात हम धर्म रछ रच्छक । समर धुरंधर बल के कच्छक ॥
भ्रात भयउ अतुलित बल धामा । देव पतिहु तिन करत प्रनामा ॥
हम दो भाई रन कारित करने में धुरंधर और बल की कक्षा एवं धर्म के रक्षकों के रक्षक हैं । मेरे भ्राता अतुलित बल के भण्डार हैं स्वयं इंद्र भी उअनके सम्मुख नतमस्तक हैं ॥
जेहु अवाएँ हमारे सों, होहि कोप के भाज ।
आए चाहे स्वयं जो, काल देव जमराज ॥
जो भी सम्मुख आएगा, हमारे कोप का भाजक होगा । चाहे वह स्वयं काल के देवता यमराज ही क्यों न हों ॥
मंगलवार,२९ अक्तूबर २०१३
भ्रात बिसिख जब गगन ब्यापहि । तेज मुख जम का सबैं कापहिं ॥
आवइँ जो जम नम नत होहीं । बहुरत ते तुर निज पथ जोहीं ॥
मेरे बड़े भाई के बाण जब गगन में व्याप्त होंगे तब उनके तीक्ष्ण मुख से यम क्या सभी कांप उठेंगे ॥ यदि यम भी उनके सम्मुख आ जाए तो वह नट मस्तक होकर पीठ करके तुरंत अपना मार्ग पकड़ेंगे ॥
लव के बचन्ह भट हरु लेईं । बाल लेख कर सुरति न देईं ॥
बँधे किरन जब मोचन चाहीं । देख सकल दल बल बिचलाहीं ॥
लव के वचनों को सैनिकों ने हलके में लिया और उसे बालक समझ कर उस पर ध्यान नहीं दिया ॥ जब वे बंधे हुवे अश्व को छुड़ाने कि कामना करने लगे तब समस्त सेना यह देख कर व्याकुल हो कि : --
लेइ नयन लउ बिपुल अँगारे । कसत कासि कर कुटिल निहारे ॥
सकल सेन ऐसेउ पचारे । भेद धुनी जस घन धुँधकारे ॥
लव अपनी आँखों में अत्यधिक अंगारे भर कर मुष्टिका कसते हुवे उन्हें बड़ी टेड़ी दिष्टि से देख रहा है ॥ वह समस्त सेना को मेघ के समान गगन भेदक ध्वनी से ललकार रहा है ॥
औरु कहहि मुख सन सह क्रोधे । जबन मोचि जे मम सन जोधे ॥
धारि धारि भारी अभिमाना । लउ के बचन पुनि दिए न काना ॥
और मुख में क्रोध भर कर ऐसे कह रहा है कि जो इस अश्व निस्तारेगा उसे मेरे साथ युद्ध करना होगा ॥ वह सेना को अपनी शक्ति पर बड़ा भारी अभिमान हो चला था ( क्योंकि उसने रावण को परास्त किया थ ) उन्होंने लव के वचनों को फिर से अनसुना कर दिया ॥
अस्व किरन मोचन अगुसारे । दरसत जे लव कर धनु धारे ॥
करन पटी लग गुन बिस्तारे । सरर सनासन छुरपन छाँरे ॥
और अश्व की किरणों को मोचित करने हेतु वे आगे बढ़ने लगे । लव जब उन्हें ऐसा करते देखा तब हाथों में धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा अको कानों तक विस्तार दे कर शत्रुध्न के सेवकों पर सर्र सनासन करते हुवे क्षुरप्रों का प्रहार करना आरम्भ कर दिया ॥
हेर हेर एक एक सुभट, काटत किए भुज हीन ।
गवनि सकल सत्रुहन सरन , कटक कटक भइ दीन ॥
उन क्षुरप्रों ने ढूंड ढूंड कर एक एक सूर वीरों की भुजाओं को काट कर उन्हें भुजा हिन् कर दिया ॥ तब सारी सेना इस मारकाट से व्याकुल होकर शत्रुध्न की शरण हो गई ॥
लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटत साख को द्रुमदल जैसे ॥ मंद कांत मुख मसि मलीना । जस को बालक केलि हीना ॥ वह भुजा हीन सेना कैसे लग रही थी जैसे कटी शाखा वाले वृक्ष समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥
दरस दसा कटकिन्ह कटियाए । शत्रुहन कारन पूछत बुझाए ॥ सकल सुभट तब बिबरन दाईं । समाचार सब तिन्ह सुनाईं ॥ कटक की ऐसी कटी हुई दशा देख कर शत्रुहन ने जब इसका कारण पूछा । तब सभी रक्षकों ने स्थिति का विवरण देते हुवे अपनी दुर्दशा का सारा समाचार कह सुनाया ॥
कहत धरनी धर हे मुनि बर । भंग भुजा सत्रुहन दरसन कर ॥ नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥ इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु की अवस्था में देख कर । शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥
रदन दान रिस छादन धारे । करक करख रन बीर पुकारे ॥ सकल सेन अस थर थर कांपे । कम्प भूमि जस भवन ब्यापे ॥ क्रोधवश शत्रुहन ने अपने अधरों को दांतों से चिन्हित कर दिए । और तीव्रता पूर्वक कड़कते हुवे योद्धाओं से इस प्रकार सम्बोधित हुवे कि समस्त सेना ऐसे कांपने लगी जैसे भूमि के कम्पन से उस पर विस्तारित भवन कांपते हों ॥
बहुस रिसिहाए पूछ बुझाए दरसत निज भट बाहु कटे । कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥ कथने सत्रुहन सोई बलवन देवन्ह हुँत रच्छिते । गह बल कितनै मोरे कर तै पाए न सोइ मोचिते ॥ अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर बहुंत ही रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए फिर शत्रुधन ने कहा वह बलवान चाहे देवताओं ही रक्षित क्यों न हो उसने कितना ही बल ग्रहण क्यों न किया हो पर मेरे हाथ से नहीं बच पाएगा ॥
सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद । एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।। सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥
बुधवार, ३० अक्तूबर, २ ० १ ३
तब सत्रुहन बहिरत निज आपा । कासत करतल कर्कर चापा ॥ रननन अरिसन भए रन रंजन । भरत ह्रदय प्रतिशोध के अगन ॥ तब शत्रुध्न अपने आपे से बाहर हो गये । फिर कठोर कोदंड पर अपनी हथेली कसते, ह्रदय में प्रतिशोध की ज्वाला भरते हुवे शत्रु के साथ संघर्ष हेतु उत्कंठित हो उठे ।।
बुला पाल कँह आयसु दाईं । रन मूर्धन नउ नीति बनाईं ॥ समाजोग बिरंचित ब्यूहा । कलित अकार सकल भट जूहा ॥ और सेना नायक का आह्वान युद्ध के अगले मोर्चे की नीति बनाते हुवे, पालनार्थ हेतु उसे आज्ञा देते हुवे कहा कि सैनिक समूह को व्यूह आकर में सुसज्जित कर उसे तैयार करो ॥
जोग धार चढ़ पारहि जाहू । सकल जूथ रिपु घेर लहाहू ॥बाल बीर दरसेउँ न लघुबर । देव नाथ जिमि रुप स्वयं कर ॥ रथादि धारण कर पार जाते हुवे चढ़ाई करते हुवे सारी सेना शत्रु को चारों और से घेर लो ॥ वह वीर कोई साधारण बालक नहीं है । निश्चय ही उसके रूप में साक्षात इन्द्र होंगे ॥
पाए आयसु सेन चतुरंगी । कुंजर रथ चर चरन तुरंगी ॥ सकल संकलित कर कलि अंगे । जूथ कार ब्यूह निर्भंगे ॥ सेना पाल ने आज्ञा प्राप्त कर सेना का स्वरुप चतुरंगी करते हुवे हाथी, रथ, पदादिका और अश्व इन चारों अंगों को संकलित किया और सैन्य समूह को एक दुर्भेद्य व्यूह का आकार दिया ॥
सैन पाल जब जोग समाजे । लख कहि सत्रुहन भा बर काजे ॥ देइ आयसु गतु अचिरम आजि । जँह बालक तरु बाँध्यो बाजि ॥ सैन्य-प्रणेता ने समस्त सामग्री योजित कर फिर सेना सम्पूर्ण स्वरुप में तैयार कर दिया । तब शत्रुध्न ने उसका निरक्षण कर कहा : -- 'बहुंत बढ़िया' और फिर उसे अति शीग्र उस स्थल की और कूच करने की आज्ञा दी जहां उस बालक योद्धा ने यज्ञ के अश्व को बाँध रखा था ॥
बहुरि ब्यूह रचित सैन, गरज करि सिंह नाद ।
तब सैनपत काल जीत, किए लव सन संवाद॥ तदनन्तर व्यूह रचित उस कटक ने सिंह नाद के जैसे गरजना की । तब सैन्य-प्रणेता का जित ने लव को समझाने हेतु उससे संवाद स्थापित किये ॥
बृहस्पतिवार, ३१ अक्तूबर, २ ० १ ३
मोह मान मद ज्वर धराईं । चतुरंगिन आगिन बढ़ि आईं ॥ देइ बाल जो राम अभासे । वाके श्रीरुप प्रभु संकासे ॥ अधिक सम्मान के मोहवश एवं बल के मद धारण किये वह चतुरंगिणी सेना फिर आगे बढ़ी ॥ जो बाक श्री राम चन्द्र का आभास करा रहा था क्योंकि उसका रूप सौन्दर्य प्रभु श्री राम चन्द्र के ही सदृश्य था ॥
बहुरि लोकत बोलेउ बाहा । निरखत लव मुख छबि निज नाहा ॥ जिन्ह राऊ सों बिक्रम सोहें । हे कुँवर जे है तिनके होँहें ॥ फिर अव के मुख पर अपने राजा की छबि निहारते और उसका अवलोकन करते हुवे सेना पति ने कहा : -- जिस राजा के सम्मुख पराक्रम भी स्वयं शोभनीय हो हे कुमार ! यह श्रष्ठ अश्व उनका है ॥
जाके रुप सम तव आकारे । सौंपि तिन्ह है कर परिहारें ॥ दरस तोहि मैं भयउँ दयाला । कारन तव छबि सोंह कृपाला ॥ जिनके श्री रूप के सदृश्य ही तुम्हारा भी रूपाकृति है । इस अश्व की किरणों को छोड़ दो और उन्हें सौप दो । तुम्हारे ऐसे स्वरुप का दर्शन प्राप्त कर मैं भी दयावान हो गया हूँ । कारण की तुम्हारी मुख छवि जगत पर कृपा करने वाए श्री राम चन्द्र की ही है ॥
जो मम बचन तव मति न मानी । होहि तुम्हरी जीवन हानी ॥ कारन तुम भए एक लघु बालक । अरु मैं एक बृहद सेन के बाहक ॥ यदि तुम्हारी बुद्धि मेरे वचनों को नहीं मानती है तो फिर तुम्हारे जीवन की हानी भी हो सकती है । इस कारण कि तुम एक किसोर ही हो और मैं एक बड़ी सेना का बाहि हूँ अत:तुम्हारी और मेरी क्या बराबरी ॥
श्रवन बचन लव रन कारिन के । जूथ बाह रहि जे सत्रुहन के ॥ चौंक चकित एक छन ठाढ़े । दोइ चरन पुनि आगिन बाढ़े ॥ वह योद्धा जो कि शत्रुध्न कि उस सैन्य टुकड़ी का पालक था उसके वचनों को सुनकर एक क्षण के लिए लव (श्री राम चन्द्र से अपनी तुलना करने के कारण ) हतप्रद हो गया और स्तब्ध हो कर एक क्षण के लिए जड़ सा हो गया फिर उसने दो चरण आगे बढ़ाए ॥
मुख दर्पन दुइ छबि दरसाई । जल अकासित कमल की नाईं ॥ बिहस कमल छबि रोष सरूपा। निकसे ब्यंग बचन अनूपा ॥ मुख दर्पण दो प्रतिबिम्ब दर्शा रहा था । जैसे प्रफुल्लित कमल पुष्प का प्रतिबिम्ब सरोवर के जल में दर्शित हो रहा हो । विहास कमल रूप हुवा और क्रोध मानो उस कमल का प्रतिबिम्ब हो गया और उस मुख से ऐसे अद्भुद व्यंग वचन निकले ॥
जे मानो तुम हार, तो मैं है परिहर करूँ । दै सकल समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥ हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥
शुक्रवार, ०१ नवम्बर, २ ० १ ३
बचन मह त बल बहुस रिसाही । भुज दंड भीत आहिं कि नाहीं ॥ कहत काल जित काल सुधारें । तनिक काल अरु तव कर धारें ॥ वचनों में तो बहुंत बल टपक रहा है । तुम्हारी भुजाओं में भी यह है कि नहीं है ॥ ऐसा कहते हुवे का जित ने कहा आए हुवे अपने काल को सुधार लो । मैं तुम्हें किंचित और समय देता हूँ ॥
सूना मैं बीर रस मह सानी । तुम्हरी नीति जोगित बानी ॥ सकल ज्ञान रन कौसल लहहूँ । नीति धर्म मैं जानत अहहूँ ॥ हे वीर योद्धा ! मैने तुम्हारी रसों में गूंथी नीतियुक्त वाणी सुनी ॥ मैं सारा ज्ञान, सारा रन कौशल, सारी नीतियाँ और धर्म को जानता हूँ ॥
अरु कहउँ एक बात तव हीते । तव ही सम्मति जो सब रीते ॥ कह अस लव बहु मधुर मुखरिते । श्री प्रद भनन भनिते ॥ और एक बात तुम्हारे हीत की कहता हूँ जो सभी प्रकार से तुम्हारी सम्मति की है ॥ ऐसा कहते हुवे लव बहुंत ही मधुरता पूर्वक मुखरित हुवे विभूषित यह कल्याण कारी कथन कहने लगा ॥
नाम किरत करि नाम न होई । नाम धरन धरि नाम न सोई ।।भू भुवन भूरि भूति भलाई । कृत करमन करि सो जस पाई ।।
नाम का यशगान करने से यश प्राप्त नहीं होता,किसी यशस्वी का नाम रख लेने भर से कोई यशस्वी नहीं हो जाता ॥ जो अनंत और अनंता की विभूतियों हेतु अतिशय कल्याणकारी कार्य करता है वही यश को प्राप्त होकर अपने नाम की कीर्ति करता है ॥
नाम धरे जित भएसि न बिजिता । जो अरि हराए सोइ रन जिता ॥ काल नाम ते भएसि न काला । काल निज काल जोइ ब्याला ॥ तुमने नाम रखा है जित जिसका अर्थ यह नहीं है तुम युद्ध जित गए जिसने शत्रु को हराया वही युद्ध में रण जित होता है ॥ का नाम होने से का नहीं होते हैं का वही है जो भयंकर है और वह स्वयं काल ही है ॥
भय हीन रह नीचकिन भाला । अइसिहु बिदिया दिए मम पाला ॥ सिरौरतन को काहु न होही । आए कोटि चाहे तव सोई ॥ ऐसी विद्या मेरे पालक ने मुझे दी है, चाहे वीरों के शिरोमणि ही क्यों न हो या तुम्हारे जैसे करोंडो वीर ही सम्मुख क्यों न हों, भय हीन रहो सदैव मस्तक ऊंचा रखो ॥
निज गुरु मात चरन कृपा, धरुँ सिरु सुबरन धूर । निसंसअ तिन्ह जानु मैं, तुलित तूल के कूर ॥
अपने गुरु एवं माता के चरणों की कृपा और उनके स्वर्ण सदृश्य धूल को शिरोधार्य कर मैं निसंदेह उन्हें रुई के ढेर मानता हूँ ॥
शनिवार, २४ नवम्बर, २ ० १ ३
श्रुत बाल के बचन उदीरिते । अचरज कारत कहि काल जिते ॥ कान्त कमल छबि भानुमाना । उदीयमान उदरथि समाना ॥ बालक द्वारा वर्णन की गई ऐसी सूक्तियों को सुनकर सेनापति कालजित आश्चर्य चकित होकर कहने लगे । जल की कांती लिए तुम्हारी यह तेजोमयी छवि किसी उदीयमान सूर्य के समान प्रतीत होती है ॥
हे उग्रक तुम को कुल दीपक । तेज तिलक तुम को के धारक ॥ नाम बयस सह को तव थाना । बहुस बिचारि पर मैं न भाना ॥ हे बलवान ! तुम किस कुल के दीपक हो ?हे तेजस्वी ! तुम किस कुल के गौरव ही तथा तुम किसके पुत्र हो ? तुम्हारा स्थान आदि का विचार करने के उपरांत भी मुझे तुम्हारा नाम, अवस्था के साथ तुम्हारे द्वारा राज्य का मुझे नहीं होता ॥
बंस बिटप भव तव को मूला । कहहु त भयउ समर समतूला ॥ तुम पयादिक मैं रथारोही । कहु एहि बयस समर कस सोहीं ॥ तुम किस वंश वृक्ष के उद्भव ही और तुम्हारा मूल को यदि तुम मुझसे कहोगे तो यह युद्ध बराबरी का हो जाएगा ॥ अभी तुम पैदल और मैं चतुरंगी सेना का पति होकर रथा में आरूढ़ित हूँ । कहो तो ऐसी अवस्था में यह युद्ध कैसेसुशोभित होगा ॥ नाम सील कुल बयस न लहहू । रनी रनक रन कौसल कहहू ॥ हूँ मैं लव अरु मह लव लेसा । अरि भागित कर करुँ फल सेसा ॥ ( तब लव ने उत्तर दिया ) हे सेनापति ! नाम, शील, कुल, अवस्थादि पर मत जाओ योद्धा के रन उत्कट और उसके कौशल की कहो ॥
आधार अधिकांग, पर धरे गरब तुम्हार । लौ कारत तिन भंग, देउँ अबहि सम संग्राम ॥ और यह जो तुम्हारा घमंड है, यह सेना के अंगों पर ही आधारित है ? तो लो मैं इन्हें भंग करते हुवे यह युद्ध समतुल्य किये देता हूँ ॥
सोमवार, ०४ नवम्बर, २ ० १ ३
सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥
हमहु अधीन न अंगीकारी । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु लव ने ऐसा कहते हुवे फटकारते हुवे चिंघाड़ कर कहा कि पराधीनता स्वप्न में भी सुख नहीं देती ( तुम तो प्रकट स्वरुप ) हमें अधीनता स्वीकार्य नहीं है ॥
संग्राम सूर लव बलबाने । गहत धनुर सर गुन संधाने ।
प्रथम जनि पुनि सूरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥
फिर संग्राम में ऐसी वीरता प्रकट करने वाले बलवान लव ने धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा में बाण चढ़ाया और सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥
लगे छाँड़ेसि तेज तेजनक । कोटि क्रमबर करुख मुख सृंगक ॥
काल घटा सम सर छाए गगन । करएँ छनिक मह जो जीवन हन ॥
और फिर क्रमबद्ध स्वरुप में सिंग के समान तीक्षण नोक वाले दिव्य वाणों का प्रहार करना प्राम्भ कर दिया ॥
वे बाण जो तत्काल शत्रु के प्राण हरने वाले थे, वे काली घटा के सदृश्य आकाश में व्याप्त हो गए ॥
तमकि ताकि तिन धारिहि पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥
दरसत नभ गुन चाप चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥
उन्हें देख कर सेना पति कालजित बहुंत कुपित हुवे और क्रोध में ही अपने अधरों को भींचते हुवे उनकी आँखों में अरुणाई लिये गगन की ओर देखते हुवे अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और अपने रन कौशलता का परिचय देते हुवे : --
कास करन लग बान प्रहारे । किए तिन तिन खन काट बिँधारे ।।
पुनि छन गगन गुन चढ़ि चढ़ि धाए । बेगि लव के उर मुख पर आए ॥
फिर कान तक खिंच के बाणों का प्रहार करते हुवे लव के दिव्य बाणों को तिन तीन खण्डों में काट के सुधार दिए ॥ फिर प्रत्यंचा पर चढ़ कर बाण गगन में दौड़ने लगे और तीव्रता पूर्वक लव के ह्रदय भवन एवं मुख पर आने लगे ॥
आतुर लव तिन छरपन षंडे । करेसि एक एक के सत खंडे ।
बहुरि भयउ रन घमासाना । छाडेसि लउ धनुर अस बाना ॥
लव ने शीघ्रता पूर्वक उन बाण समूह के एक एक बाण को सौ सौ खण्डों में विभाजित कर दिया ॥ लव के धनुष से ऐसे बाण निकले कि फिर उस तपोवन में घमासान युद्ध छिड़ गया ॥
अरु सिय नंदन, लव दल गंजन, कास मुठिका लस्तके ।
बानाष्टकी ,लसे लस्तकी , दलपत अरि तमक तके ॥
बहुरि स्यंदन कियो बिभंजन, तेज प्रहार कारते ।
बिचलित दलपत, छत हतचेतत, गिरयो भूमि आरते ॥
और सीता पुत्र महावीर लव ने धनुष की मूठ को मुष्टिका कसी । धनुष पर अष्टक बाण दिखाई दे रहे थे और वह अपने शत्रु दलपति काल जित को क्रोध पूर्वक देख रहा था फिर उसनेअष्टक बाणों का तेज प्रहार करते हुवे शत्रु के रथ को छिन्न-भिन्न कर दिया ,जिससे दल पति काल जित अस्थिर होकर घायल और व्याकुल अवस्था में घबड़ाहट के साथ रन भूमि पर गिर गया ॥
स्यंदन के भंजन होत, निज बाँकुर के लाए ।
कुंजर सोइ बिराज पुनि ,रन कारन उठि आए ।।
रथ के नष्ट होते ही वह अपने सैनिकों के लाए हाथी पर विराजित होकर फिर से रण करने हेतु उठ खड़ा हुवा ॥
मंगलवार, ०५ नवम्बर, २ ० १ ३
गज पुंगव गति गहे तुरग तर । आनइ दान मद सत धार झर ॥
पाल काल जित दरसत तापर । सकल जयन्त लव लिए धनुरकर ॥
उस गजराज का परिचालन गौरव से परिपूर्ण था किन्तु उसकी गति तीव्र थी और उसके मस्तक से मद की सप्त धार स्त्रावित हो रही थी ॥ सेना पाल को गज ऊपर विराजित देखकर समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाले लव ने फिर हाथ में धनुष लिया : -
बिँधे बिहँस मारे दस बाना । देख पाल मन अचरज माना ॥
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारे । रिपुन्ह के जोउ प्रान हारे ॥
और हंसकर दस बाण से प्रहार करते हुवे उसे भेद दिया लव के ऐसे पराक्रम को देखकर सेनापति का चित्त विस्मय से भर गया ॥ फिर उसने प्रतिघात में छड़ जैसे भयानक अस्त्र का प्रहार किया जो शत्रुओं के प्राण हारने के योग्य था ॥
झपट झट लव कृंतन निबारे । आतुर कर धारा धर धारे ॥
छन मह नासे गज के नासा । अस जस नसत को कील कासा ॥
लव ने झपटते हुवे अति शीघ्रता पूर्वक उस अस्त्र को काट कर उसका निवारण कर दिया । और तत्काल ही तलवार धारण कर तत्परता पूर्वक गजपुंगव की लम्बी नासिका को काट कर ऐसे नष्ट कर दिया जैसे कोई प्रकाश स्तम्भ गिरा रहा हो ॥
उदक धान जों धनबन बाढ़ें । दन्त चरन धर सों गज चाढ़े ॥
तँह पत कवच करत सत खंडन । मूर्धन मुकुट किए सहसइ खन ॥
और जैसे बादल आकाश की ऊंचाइयों को स्पर्श करते हैं वैसे ही लव गज के दांतों पर अपने चरण रख कर उसके मस्तक पर चढ़ गया ॥ वहाँ उसने सेनापति कालजित के कवच को सौ खण्डों में विभाजित कर उसके मूर्द्धन्य मुकुट को खंड खंड कर दिया ॥
तज सकल केतु गदाला, कारत कुंजर कूह ।
अनीक पाल बेगि पतत, परे धम्म कर भूह ॥
सूँड़ कटने से वह गजराज अपने सभी सजावट चिन्ह पताक गदाला, छत्र आदि त्याग कर चिंघाड़ उठा । और सेना पति कालजित तीव्रता पूर्वक नीचे आते हुवे धड़ाम की ध्वनी करते, रन भूमि पर गिर पड़े ॥
बुधवार, ०६, नवम्बर, २०१३
गिरत उठत पुनि दलप बिरोधा । दहत गर्भ दहकत प्रतिसोधा ॥
धर धारा बिष जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥
गिरते ही विरोधी दल का नायक पुन: उठ खड़ा हुवा । फिर क्रोधाग्नि से भर कर वह प्रतिशोध में दहकने लगा ॥ और उसने ज्वाल संयोगित कृपाण धारण कर उसे ऐसे घुमाया कि हवा भी सनसना उठी ॥
सन्मुख आवत लव जब देखे । आतुर दाहिनि भुज खत लेखे ॥
परत घात तरबारिहि हाथे । करत नमन रन भूमि निपाते ॥
जब लव ने उसे अपने सम्मुख आते देखा तब शीघ्रता करते हुवे उसने उस दलपति की कृपाण धारी दाहिनी भुजा घायल कर दिया ॥
छत प्रकोठ पत दरसत लाजे । कोप क्रम परम पदक बिराजे ॥
पुनि गदगदिकत करतल बाईं । बढ़ि लवघाँ घन गदा उठाईं ॥
घायल प्रकोष्ठ ( कलाई से लेकर कुहनी तक का भाग, पहुंचा ) को देखकर दल नायक लज्जा से भर गए उसका क्षोभ का उपक्रम, चरम स्थान पर विराजित हो गया । फिर उसने हड़बड़ाहट में बाएं हाथ में गदा उठाई और लव की और बढ़ने लगा ॥
ऐतक मह लव छाँड़े बिसिखा । गिरे गदा भू लगत तिख सिखा ॥
गिरयो पाल सकल निर्जूहा । । कारत लव निर्जुगुतिक जूहा ॥
इतने में ही लव ने बाण छोड़े । बाणों के तीक्षण मुख लगते ही वह गदा भूमि में गिर गया ॥ फिर उसके समस्त शिरोभूषण को नीचे गिराते हुवे लव ने फिर सैन्य समूह को युक्ति रहित करते हुवे : --
बहोरि कालानल सरिस, बिकिरत कनिक ज्वाल ।
लिए खड्ग कर किए खत सिस, बन दलपत के काल ॥
चिंगारी छोड़ते हुवे कालाग्नि के सदृश्य कृपाण लेकर उस सेना नायक का काल बनाते हुवे उसके मस्तक को पर घाव कर दिया ॥
सोम /गुरु /शुक्र , २३/०७ /०८ सित/नव , २ ० १ ३
नायक जब मरना सन्न पाए । भट महा हाहाकार मचाए ॥
छिनु भर मह रिसियावत गाढ़े । करन काल लव आगिन बाढ़े ॥
जब सेना कि उस टुकड़ी ने अपने सेना पति को मरणासन्न पाया । तब सैनिकों के मध्य अतिशय चीख पुकार मच गयी ॥ लव के प्रति उनका क्षोभ क्षण भर में इतना अधिक हो गया कि वह लव का काल करने हेतु आगे बढ़ आए ॥
लखत तिन्ह लव लखहन भेदे । बाढ़े चरनन पाछिन खेदे ॥
करत सैन पत हत सर लागे । दीठ पीठ कर सैनिक भागे ॥ उनका लक्ष्य करते हुवे फिर लव ने उन्हें बाणों से भेद दिया और उनके आगे की और बढे चरणों को पीछे खदेड़ दिया ॥ वे सारे बाण सैनिकों के सर में लग कर उन्हें घायल करते हुवे निकल रहे थे उनके भय से सारे सैनिक युद्ध भूमि में पीठ दिखाकर भागने लगे ॥
डरपत कम्पत ऐसेउ धाए । दरस धाए जस प्रिया बनराए ॥ केतक भए छत सोई कूरे । केतक भूमहि अंतर भूरे ॥ वे भयभीत हो कांपते हुवे ऐसे दौड़ रहे थे जैसे वन में शेर को देखकर साँभर हिरन दौड़ता है ॥ कितने ही सैनिक घायल होकर वहीँ ढेर हो गए । कई तो अपने एवं विरोधी दल के राजा का अंतर करना ही भूल गए ॥
त्राहि त्राही कह हे गोसाईं । मुखर बान कहि कहु कँह जाईं ॥ पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥ और लव से ही जाकर कहने लगे हे स्वामी हमारी रक्षा करो किन्तु लव के बाण जो मुखरित थे कहने लगे कहो कैसे करें ॥ पुन: वे रक्षा करो ! हमारी रक्षा करो! ऐसा कह कर सारे भागते और सर्प के समान बाण उनका पीछा करते ॥
अगाउनी अवाइ अनी, छीत पाछिन धकियाए । उछाहु पूरित परिचरत, लव माझिन पैठाए ॥ (इस प्रकार) आगे आई सेना को लव ने चित्रित कर पीछे की और धकेल दिया और उत्साह पूर्वक विचरण करता हुवा वह उस सेना के बीच में जा घुसा ॥
मारे पुनि एक एक चिन्ही के । चरन करन कर नक् किन्ही के ॥ को के कवच त को के कुंडल । काटत किए छीतीछान सकल ॥ फिर तो एक एक सैनिक को चिन्ह चिन्ह के चोटिल करते हुवे किसी का पैर, किसी का कान किसी का हाथ किसी की नासिका काटते हुवे किसी का कवच तो किसी का कुंडल को छिन्न भिन्न करते हुवे उन्हें छतवत का दिया ॥
एहि बिधि दल पत होत हताहत । मर्कट कटक लहे बहु दुर्गत ॥ सकल सुभट दल लव अस छीते । पात पवन जस घन छितरीते ॥ इस प्रकार अपने प्रणेता के हताहत होते ही मरती कटती हुई सेना,अतिशय ही दुगति को प्राप्त हुई ॥ लव के द्वारा सारी सेना ऐसे तितिर-बितिर हो जैसे वायु के पाप्त होने से मेघ छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।।
मर्कट मर्दत रिपु समुदाई । ते चरन लव जयंत कहाई ॥ चेत अचल पथ लोचन जोरे । दूजन भट अगवान अगोरे ॥ शत्रु समूह को मार-काट कर मसलते हुवे युद्ध के उस चरण में लव विजयी घोषित हुवे, औ फिर वह सावधान होकर पथ पर आखें लगाए और दूसरे सैनिकों के आने की बाट जोहने लगे ॥
भाग बस भाग जोई कोई । जोइ संग्राम प्रान सँजोई ॥ तेहिहि भए दल भंजन दूते ॥ बरने बिबरन सत्रुहन हूते ॥ जो कोई उस संग्राम से भागा और भाग्यवश अपने प्राणों की रक्षा करने में सफल हुवा । शत्रुध्न के बुलाने पर वे ही उस चरण की हार के दूत बने और उन्हें युद्ध की सारी घटना -विवरण का दिया ॥
बलिन दलपत छतबत किन, का एक बाल किसोर । एतक अपूरब कौसल, किए भट सकल बहोर ॥ क्या एक बाल किशोर ने महाबली दलपति कालजित को हताहत कर दिया ?उसका रन कौशल इतना अद्वितीय है कि सारे वीर सैनिकों को दृष्ट-पृष्ठ कर दिया ?
श्रवन भटन्ह बिसमइ लहाऊ । सत्रुहन मुख अस कथन कहाऊ ॥ तिन बय बदन भाव अस ग्राही । जस काटो तौ रुधिरहु नाहीं ॥ सैनिकों के वचनों को सुनकर राजा शत्रुध्न इस प्रकार से विस्मय को प्राप्त हुवे मुख से ऐसी कहवाते कहीं ॥ उस दशा में मुखानन ने ऐसे भाव ग्रहण कर लिए जैसे की काटों तो उनमें रक्त ही न हो ॥
भए चितबत भट बोले सोही । का तुहरी मति भ्रामक होही ॥ कहु तो घेरिहि को माया । कारत कपट के छंद छाया ॥ वह स्तब्ध हुवे सैनिक से बोले कया तुम्हारी बुद्धि विभ्रमित हो गई है कहो तो छल कपट की प्रतिछाया कर इसे किसी मोह कारिणी शक्ति ने घेर लिया है ?
सोइ मरनासन्न कस होई । जम हुँतेहु दुर्धर्षा जोई ॥ तिन एकै बाल बिजिते कैसे । जोइ आपहि काल हो जैसे ॥ वह मरणासन्न कैसे हो सकता है जो यम के द्वारा भी दुर्धर्ष हो ॥ उसे एक ही बा किशोर ने कैसे पराजित कर दिया ? जो सवमेव में ही काल स्वरुप है ॥
श्रुतत सुभट सत्रुहन के भाषन । रक्त करबीर किए अस वादन ॥ ना हमको को माया घेरी । ना हम किन्ही के उत्प्रेरी ।। शत्रुधन का ऐसा भाषण सुनकर रुधिर से सने लाल कनेर से दर्शित होते उन वीर सैनिकों ने फिर ऐसा कहा : -- हे राजन ! न तो हमें किसी मोह कारिणी शक्ति ने ही घेरा है, और न ही हैम किसी के उत्प्रेरित ही हैं ॥
हे राउ अहहै हम पर, तव प्रतीत की सौंह । जोउ दरसे जेइ नयन, कहे जोंह के तोंह ॥ हे राजन ! हमको तुम्हारे विश्वास की सौगंध है इन आँखों ने जो कुछ भी देखा, वह हमने यथावत कह सुनाया ॥
शनिवार, ०९ नवम्बर, २ ० १ ३
नाहि हमहि घेरी को माया । नाहि छलाइ हमहि को छाया ॥ अहहैं साँच जे लव के कृते । भएउ हताहत जो कालजिते ॥ न तो हमें किसी मोहकारिणी शक्ति ने घेरा है न हमें किसी कपट की छाया ने छला है ॥ कालजित का हताहत हो गए हैं,यह सत्य है, और यह सब लव की ही करनी है ॥
अप्रतिम अतुल तासु रन कौसल । बाहु सिखर मह धरि केसरि बल ॥ बिलनी जस बिलगइ महि माखन । भई कटक तस तिन हुँत मंथन ॥ उसका रन कौशल ? अदर्शनीय, अतुलनीय उसके कंधों में तो सिंह का बल है और जैसे बिलौनी छाछ और दधिसार को मथ कर वियोजित कर देती है । वैसे ही उसके द्वारा सारी सेना मथी गई ॥ ताहि परत बहु सोच बिचारे । हे नाथ अब जोइ कछु कारें ॥सत्रुध्न मति बोधइ तत्काला । ए नहि कोउ साधारन बाला ॥ इसके पश्चात हे स्वामी ! अब आप जो कुछ नीति अपनाएं उसकी भली पकार से समीक्षा कर लें ॥शत्रुध्न को तत्काल ही यह ज्ञात हो गया कि वह कोई साधारण बालक नहीं है ॥
सुनि भट सत्रुहन रिपु रन जूझे । सुबुध सचिव सुमतिहि सौं बूझे ॥ तुम भानत तिन बाल ब्याजी । जोइ अपहरइँ हमरे बाजी ॥ सैनिकों को सुनाने के पश्चात शत्रु से लोहा लेने के लिए उनहोने अपने श्रेष्ठ बुद्धिवाले मंत्री सुमति से परामर्श करते हुवे पूछा : -- जिसने हमारे यज्ञ के अश्व का हरण किया है क्या तुम्हें उस दुष्ट बालक का कुछ भान है ?
रहि जो आपी आपइ काला । जलधि उदधि के सरिस बिसाला ॥ सोइ कटक के कारत नासे । कियो तासु कर जूथ बिनासे ॥ जो अति बलवान एवं स्वयं ही में काल है । और जो जल के आकर समुद्र के समान विशाल है ॥ उसने उस सेना का विनाश करते हुवे समस्त वीर सैनिक समूहों को नष्ट का दिया ॥
कही सुमति जे बिनइ बचन, हे मम नाथ नरेस ॥ सोइ मुनि बाल्मीकि के, तपो भूमि बन देस ॥ फिर श्रेष्ठ मंत्री सुमति ने यह विनयी वचन कहे । हे मेरे स्वामी ! हे नरेश ! वह स्थान मुनिवर वाल्मीकि का तपोवन है एवं वह भूमि उनकी तपोभूमि है ॥
रविवार, १० नवम्बर, २ ० १ ३
तहाँ बटु मुनिगन बासत आहिं । छत्र धरमन तँह निबासत नाहिं ॥ कही सोइ सुरनाथ त नाहीं ।पहिले तव जस संसय आहीं ॥ वहाँ ब्रह्माचारी बालक एवं मुनि गण वास करते हैं । वहाँ क्षत्रिय धर्मी निवास नहीं करते ।। वह वीर बालक सुरपति इंद्र तो नहीं जैसे पहले आपको संदेह हुवा था ॥
अरु ते उर मह अमर्ष धारे । अश्व मेध अपहारित कारें ॥ भा गिरिजा पत सम्भुहु संकर । प्रगसे जे तँह बाल भेष धर ॥ और उन्होंने ह्रदय में कोढ़ धारण का उनहोंने ही उस मेध के अश्व का हरण किया हो ॥ या वह गिरिजा पति शंकर शम्भू ने तो वह अश्व हरण किया हो जो वहाँ बाल स्वरुप में प्रकट हुवे हों (ऐसा कहा मंत्री सुमति ने झूठ-मूठ का भय दिखाया ) ॥
बहोरि दूजन को अस अहहीं । जो हमरे है हरनन सकहीँ ॥ मम सम्मति अब आपहिं गवनै । बीर सुभट सब राजन लवनै ॥ फिर दुसरा ऐसा कौन हो सकता है जो हमारे अर्थात सूर्य वंशी रघुकुल राजा रामचंद्र जी के अश्व को हरण करने में समर्थ है ॥ मेरे विचार से सभी वीर योद्धाओं एवं समस्त राजाओं को साथ ले जा कर अब युद्ध भूमि में आपको ही उतरना चाहिए ॥
जोइ संजोइ सकल सनाहे । भाल धनुर सर सह प्रतिनाहे ॥
औरु लिए संग सैन बिसाला । अधिकम करत करैं रिपु काला ॥ युद्ध सामग्रियों से सुसज्जित, समस्त रक्षा साधन ,तीर धनुष सहित समस्त चिन्हों से युक्त उस विशाल सेना को साथ ले अब आपको स्वयं ही शत्रु पर चढ़ाई कर उसका अंत कर देना चाहिए ॥
आप स्वमेव छेदनहारे । गत तिन बलबन बंधन कारें ॥ पुनि मैं रघुबर तहँ लेजाउब । तव रन के कौतुक देखाउब ॥ हे राजन आप तो स्वमेव में शत्रु का उच्छेद करने वाले हैं । युद्ध भूमि में जाकर आप उस बलवान बालक को बाँध कर लाने में भी समर्थ हैं ( अत: आप वहाँ प्रस्थान कीजिए) फिर मैं रघुबर को वहाँ ले जाकर ,आपके युद्ध का सारा कौतुक दिखाऊंगा ॥
सुन सचिव बचन बहुरी सत्रुहन कहत भट अनी लहनौ ॥ कलित सनाहा सह प्रतिनाहा सकल रन भू गवनौ ॥ तुम चलु आगिन अरु मैं पाछिन आवउँ तुम्ह संगिने । बली बाहु लहित बहु गरब सहित चलि कटक चतुरंगिने ॥ सचिव के इस प्रकार के वचन सुनकर फिर शत्रुध्न ने योद्धाओं को आदेश दिया कि सेना लो समस्त चिन्हों को एवं क्शा कवचों से युक्त होकर रन भूमि में प्रस्थान करो ॥ तुम आगे आगे चलो मैं पीछे पीछे तुम्हारे साथ ही आ रहा हूँ । फिर बाहुबलियों को ले कर बहुंत ही गर्वान्वित होकर वह चतुरंगिणी सेना युद्ध भूमि की और चल पड़ी ॥
परबत सरिस बीर सुभट, अनी पयोधि समान । दरस तिन आवत सों लव, ताकि सिंह के मान ।उसके वीर योद्धा पर्वत के सरिस थे और वह सेना समुदा की भाँती दर्शित हो रही थी । ऐसी सेना को अपने सम्मुख आते देख लव उसे हिरणों का समूह समझ कर, सिंह के समान ताकने लगे ॥
सोमवार, ११ नवम्बर, २ ० १ ३
पास पीठ मुख परिकर कारे । लव के चहुँ पुर घेरा डारे ॥ दरस तिन्ह अरु कोटर लोले । पलक अली बहु फरकत दोले ॥ फिर सेना के पार्श्व, पृष्ठ एवं अग्र भाग ने घूर्णन करके लव के चारों और घेरा डाल दिया ॥ उन्हें देखकर लव की आँखों की पुतलियाँ चंचल हो गई पळकावली अत्यंत कम्पन करती हुई दोलायमान हो उठी ॥
लव घेरे अस दरसत लाहू । सुभट हिरन सम सो बन नाहू ॥ जलित अनल सम हैलत हूते । लगे करन तिन भस्मी भूते ॥ लव का वह सैन्य परिच्छद इस प्रकार के दृश्य को प्राप्त हुवा जैसे कि वह कोई वन राज है ,औ सैनिक हिरणों से घिरा हुवा है ॥ फिर लव उन्हें ललकारते एव उनपर आक्रमण करते हुवे अग्नि ज्वाल के समान उन्हें भस्मीभूत करने लगे ॥
किन्ही के धारा धर सारे । घाउ करत तन चाम उघारे ॥ किन्ही के कर सर संधाने । मर्म भेद किए मरनी माने ॥ कृपाण प्रहार कर किसी की घायल करते हुवे शरीर की चमड़ी उखाड़ दी ॥ किन्ही को हाथमें धनुष चढ़ा कर जीवन स्थान अर्थात ह्रदय एवं शीश को भेद कर मरे के समान कर दिया ॥
नाना बर आजुध लीन्हि के । सार सकल किए हत चीन्हि के ॥ लखित चहुँ पुर सैन परिछेदे । काटत ब्यूह भाँवर भेदे ॥ फिर विभिन्न प्रकार के आयुध धारण कर एक एक को चिन्हित कर प्रहार करना आरम्भ किया । फिर सैनिकों के चारों और के चक्रों को लक्षित कर उनके समूह रचना को काटते हुवे सातों घेरों को छिन्न-भिन्न करने लगे ॥
पहिलै सह प्रासे, गंड गँडासे, भांवर भंजन कारी । दूज बहु बिसाला, धरी कर कुंत किए छतबत छतनारी ॥ तीजे किए भंजन पट्टिष परिघन, आजुध भुज धारी । सेष अनुरूप अगनै, बिसिखा लग्ने, भग्नै बारी बारी ॥ पाहिले घेरे को भाले, एवं मण्डलाकार फरसे से विभंजित किया । बरछी धारण कर फिर दूसरे विशाल चक्र के सैनिकों को घायल करते हुवे बिखरा दिया॥ फिर भुजा में पट्टिष(एक प्राचीन शस्त्र) एवं परिघ आयुध को धारण कर तीसरे चक्र को भंजित किया । फिर शेष चक्रों को अग्नि के अनुरूप बाणों के लगने से कमश: विभंजित हो गए ॥ चतुरंग चक्र ब्यूह , भेद सियपुत अस दरसे । धनबन मेघ समूह, जस पयस मयूख निकसे ॥ उस चतुरंगिणी सेना के चक्र समूह को भेद कर लव ऐसे दर्श रहे थे, जैसे आकाश में मेघ समूह से मुक्त होकर चंद्रमा निकल आया हो ॥ मंगलवार, १२ नवम्बर, २ ० १ ३
त्राहि मम त्राहि चहुँ दिसि छाई । भूरिहि बीर भए धरासाई ॥ लाख लखहा मुख लागन भागे । सकल भट बिमुख आगिन आगे ॥ (उनके बाणों से के मुख से )रक्षा प्रभु ! हमारी रक्षा करो प्रभु !! ऐसी ध्वनी चारों दिशाओं में व्याप्त हो गई ॥ बहुंत से वीर धराशाई हो गए । सारे सैनिक बाणों के विमुख हो आगे भागते, बाण उन्हें विदारित करने हेतु पीछ पीछे दौड़ें ॥
बीर पुष्कल देखि यहु दरसन । अगुसार भए समर मूर्धन ॥ लोचन मह भर रोख बहूँते । ठाढ़ौ ठाढ़ौ कह लव हूँते ॥ वीर योद्धा पुष्कल ने जब ऐसा दृश्य देखा । तब वे आगे आए और युद्ध प्रमुख बने ॥ आँखों में अत्यधिक क्रोध भरे वे 'खड़ा रह ' 'खड़ा रह' कहकर लव को ललकार रहे थे ॥ जब सुत तिन्ह निकट ले आयो । देख दसा लव अस समझायो ॥ बीर सुनौ सुसोहित बर बाहि । एक सुठि स्यंदन मैं तव दाहिं ॥ जब उनके सारथी उन्हें लव के निकट ले आए तब लव की दशा देखकर वे उसे इस प्रकार समझाने लगे ॥ हे वीर! सुनो मैं तुम्हे श्रेष्ठ अश्व से सुशोभित एक सुन्दर युद्ध रथ प्रदान करता हूँ ॥
तुम्ह पयाद मैं रथारोही । तुहरे सन कहु रन कस होही ॥ पहले भय दुहु पत एक सौंहे । बहुरि परस्पर जोधन होहे ॥ (क्योंकि ) तुम पदाधिका हो और मैं रथ में आरोहित हूँ । कहो तो तुम्हारे साथ यह युद्ध किस प्रकार शोभा देगा ॥ पहले दोनों की प्रतिष्ठा एक समान हो जाए फिर दोनों एक दूसरे से युद्ध करेंगे ॥
सुनु मोरि बलबान, मम कर अस तव हत न होइ । तुम न रथ न पद त्रान, एहि बय रन बिजय न लोइ ॥ हे बलवान ! मेरी बात सुनो, तुम जिस दशा में हो ऐसे तो मेरे हाथ से तुम्हारा हनन नहीं होगा । तुम रथहिन् हो , तुम्हारे तो चरणों में त्राण भी नहीं है, ऐसी अवस्था में मेरी विजय कैसे शोभित होगी ॥
बुधवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३
सोइ पल पुष्कल सकुचइँ कैसे । बीरबर कालजित के जैसे ॥ श्रवनत सियपुत तिनके भाषन । देवत उतरु बोले अस बचन ॥ उस पल पुष्का कैसे संकोच कर रहे थे?जैसे महा बलवान सुरथ ॥ पुष्कल के भाषण को सुनकर, सिया पुत्र लव ने उसका उत्तर देते हुवे ऐसे वचन कहे : --
जो मैं तव दायक रथ धरहूँ । तापर राजत जदि रन करहूँ ॥ वाके पातक लागहिं मोही । अरु जय पावन संसय होहीं ॥ हे वीर पुष्कल ! यदि मैं तुम्हारे दान के रथ को धारण कर उसपर विराजित होकर युद्ध करता हूँ ॥ तो मुझे उस पाप का दोष लगेगा और मेरे निमित्त विजय संदेहास्पद हो जाएगी ॥
हम छत्र धर्म न को भुँइ देवा । किये हमहि दान पुनि सेवा ॥ दहत गर्भ पुनि लव कर दापे । करइ भंज पुष्कल बार चापे ॥ हम (दोनों भाई) क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले हैं । वेद पाठी ब्राह्मण नहीं है ॥ अत: हम दान ग्रहण नहीं करते अपितु स्वयं ही प्रतिदिन दान, पुण्य सेवा करते हैं ॥ किए रथ खंड जब हँसत हाँसे । तब पुष्कल मुख अचरज लासे ॥ आजुध बिहिन धनुर रथ भंगा । चाढ़े लव पर धार निषंगा ॥ और जब लव ने हंसी करते हुवे रथ को खंडित कर दिया । तब पुष्कल क मुख पर अचरज विलास करने लगा ॥ वह आयुध विहीन एवं भंजित धनुष-रथ के ही केवा तुणीर हाथ में लिए लव पर चढ़ बैठा ॥
श्री राम सिया कुँवर कासिकर । कटि तरौंस बर पीतम परिकर ।। तूनि तूनीर तीर निकारे । फनिक सरिस सिख तीख बिष घारे ॥ श्री रामचंद्र एवं श्री जानकी जी के कुमार लव ने फिर कटी के तट पर फेरे हुवे पीतम वस्त्रों में कसा तुणीर में से तुरंत ही तीर निकाला जो सर्प के सरिश्य तीक्ष्ण विष ग्रहण किये हुवे था ॥
त्रासिन तेजस तेजनक, धनु सार संधाए । तरत गुन सनासन करत, पुष्कल त्रस बिंधाए ॥ उस पीड़ा देने वाले दिव्य बाण को फिर धनुष में संधान किया जो उससे उतर कर सन-सन करता हुवा पुष्कल के ह्रदय में समाहित हो गया ॥
गुरूवार, १ ४ नवम्बर, २ ० १३
अरु सोइ महाबीर सिरुमने । निपतित भुँइ पाइ मुरुछा घने ॥ देखि बीर पुष्कल मुरुछाई । पवन तनय तिन तुरत उठाईं ॥ फिर वह शिरोमणि महावीर भूमि पर गिरा और मूर्छा को पाप्त हो गया ॥ पुष्कल की अचेतना को देखकर पवन पुत्र हनुमान ने उसे तत्काल ही उठाया : --
भुज अंतर कर तिनके गाता । किए अर्पन रघुबर लघु भ्राता ॥ दुःख भर शत्रुहन ताहि बिलोका । स्याम बदन छाए घन सोका ॥ और उसक शरीर को अंकवार करते हुवे, रघुवीर के लघुत्तम ब्राता शत्रुधन को अर्पित किया ॥ उसे ऐसी अवस्था में देखके शत्रुध्न अत्यंत दुखी हो उठे उनकी श्यामल मुखाकृति पर जैसे शोक के बादल छा गए ॥
रिपु रन कौसल काटि निबारे । सकल बलसील भट हत कारे ॥ पाए अधोगत कटक मनोबल । भयउ हताहत दलपत पुष्कल ॥
हतास्वासश्रय सिरु नायो । का करैं अजहुँ समुझि न पायो ॥ छनि होरत सत्रुहन कछु लेखे । पुनि पवपुत हनुमत मुख देखे ॥
सत्रुहन नैन मुखरित भए, बानी बनि संकेत । पवन तनय लिए गदा धर, चरि उतरन रन खेत ॥
फरकत बजरागी अंग, प्रनदत किए घन नाद । गहु पुरब प्रसरे प्रसंग, तिनके परच प्रसाद ॥ महाबली हनुमान के अंग भी फड़कने लगे और वे घन नाद के सदृश्य गर्जना करने लगे । इससे पूर्व की यह प्रसंग आगे बढे महाबली बजरंग का परिचय-प्रसाद ग्रहण करते चलें ॥
गुरूवार २६ सितम्बर, २ ० १ ३
तरु मृग मारुत सुत हनुमंता । किए जे पयोधि पार तुरंता ॥ बर कबहुक लघु रूप रचाईं । पठतइ निकसे मुख सुरसाईं ॥
कनक कोट के चमक चकासे । हट बट चौहट नगर निकासे । सैल सरि सर लंका बनबारि। चित्र चितेर कर देइ लंकारि ॥ पुनि परबत मह इंद्र उछंगे । पाट पयधि सत जोजन लंघे ॥ जामि घोष जाजाबर केरे । जामिन जब लंका पुर घेरे ॥ समर सूर गन घर घर हेरे । राम बोधिते आँगन घेरे ॥ हेर बिभीषन रावन भाई । तेइ परच सिय कथा बुझाईं ॥
माता सीता बन रह जहवाँ । मसक सरिस रूप गवने तहवाँ ॥ बैसत तरुबर मुँदरी डारी । राम नाम बर अंकित कारी ॥
प्रभु अंकन सिय जब पहचाने । आवै तब सौमुख हनुमाने ॥ मैं राम दूत कहि हे माता । तुहरे हमरे जनि सुत नाते ॥
पुनि कर जोर निज श्री मुख, किये राम गुन गान । कहत हरत मात के दुःख, तव हेरन मैं आन ॥ शुक्रवार, २७ सितम्बर, २ ० १ ३
सुरत नाथ नयनन घन घारे । साख सुमन सरि जवल कन झारे ॥ पूछीं हिय पिय मोहि बिसारीं । भूर भई का ऐतक भारी ॥
देइ संदेस हनुमत तेही । धैर हिया तब धरि बैदेही ॥ राम चन्द्र तव लेवन आहीं । तनिक दिवस अरु धीर धराहीं ॥
पाए सिया कर सीस आसिषे । प्रेम पाग कपि नयन जल रिसे ॥ चरण नाइ कपि लेइ बिदाई । करन चले लंका उजराई ॥
सकल निसाचर करि संघारे । मर्द मर्द महि मरतएँ मारे ॥ इंद्राजीत लंकेस कुमारे । अर्थ कर दिए धोबी पछारे ॥
एहि श्रवनत दनुपत दुर्बादे । परचत तिन कपि क़िए संबादे ॥ कह बत हनुमत बहस समुझाए । प्रभु राम धरा धिया बहुराएं॥
तुम साखामृग मति मंद, हम भरू भूमि बिलास । कँह चित चित्ती कँह चंदु, कहि दनुपत कर हास ॥
शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३
दसानन कपि हन आयसु दाए । पुनि दनुगन तिन्ह मारन धाए ॥ कहि बिभीषन कर बहुस बिनिते । दूत हनन नय नीति बिपरिते ॥
कहत दसानन लिए अटहासे । बसत कपि के पूँछ भित साँसे ॥ तेल बुरे पट देइ बँधाईं । कहत दनुज पुनि लाग लगाईं॥
करतल सकल जन धुनी देईं । फेर चहूँत पुर पूँछि जरेईं ॥ पवन ताने धर अगन लगारी । जारत फिरि भू भवन अटारी ॥
लपट लपट ऐसेउ झपटाए । जस तिन तूल संबाहिन पाए ॥ अकुल बियाकुल लख लगन लाहि । कहत त्रसत तस त्राहि मम त्राहि ॥
मंजुल मंडित सोन सुबरनित भंजन भवन भू भूति । दहन केतु धर धुरियन ऊपर दिए गगन धूनन धूति ॥ कर्पुर घारि द्वीप दुआरि दहत धूमलाभ लहे । मानहु लंका करि निज डंका आपन रुप कलुख कहे ॥ उथल पुथल कर सिंहला, सोन सुबरन दहाइ । बहुरि बली मुख निमज्जत, पयोधि पूँछ बुझाइ ॥
शुक्रवार, १५ नवम्बर, २ ० १ ३
तेइ लव लखि अवतरे आँगन । लेइ हनन हनुमन मन कामन ॥ आवत छतरित सैन सँवारे । गगन भेदि घन नाद उचारे ॥ लव को हनन करने की मनोकामना लिए वे ही महाबली हनुमान रन क्षेत्र में अवतरित हुवे । आते ही उनहोंने छितरित सैन्य समूह को सुनियोजित किया ॥ औ फिर गगन को भेद करने वाली ध्वनी से गरजना की ॥
कपि बल बिपुल भुज दल गहियाए । देख तिन लव बहु बिस्मय पाए ॥ बजरी देह सैल सम लागहि । लाल लोचन बरखावत आगहिं ॥
दिए ऐँठ तनि भुजा पद गाते । करकत तरु दुइ डारि निपाते ॥ चरतईं आए जब लव धूरे । लौहितेछन सन लगे घूरे ॥
कास मुठिका दन्त कटकाईं । मार धुमुक लव दूर गिराईं ॥ छनु भर मह लिए पूँछ लपेटे । देवत बल दिए दुइ तिनु फेंटे ॥
बाँध बाँगुरिन कसकत गहनी । उठैं गगन कभु अवनि ठनमनी ॥ टसकत लव जनि सुमिरन कारे । पुनि एक महा मुठिका प्रहारे ॥
दिए धौसत धुनकत धुनत, गहनति गहन प्रघात ॥ बानर भयउ बहु बिहबल, बिहुरि बल बिलबिलात ॥
शनिवार, १ ६ नवम्बर, २ ० १ ३
बहुरि बाहु लव बिहुरत फेंटें । दिए गुंठित धर पूँछ उमेठे ॥ घुर्मि घुर्मि हँसि केलिहि करहीं । महा बीर हनुमत चिक्करहीं ॥ फिर लव ने अपनी भुजाओं को उस लपेटे से छुड़ा कर हनुमान जी की पूँछ को गाँठ देते हुवे उसे गुरमेट दिया ॥ और घुमा घुमा कर हँसते हुवे खेल करने लगा । उधर महावीर हनुमान कष्टमई होकर चीत्कार उठे ॥
साध सकल बल लेइ छोड़ाए । रिस भरे देइ गदा घुरमाए ॥ तासे परत चपेटिन आने । बाँचत लव किए नत सिरहाने ॥ फिर अपना सारा बल लगा के किसी प्रकार से पूँछ को लव से छुड़ाया । और क्रोध में भरकर गदा को तीव्रता पूर्वक घुमा दिया ॥ इससे पहले कि लव उस गदे के चपेट में आते । उन्होंने अपना शीश झुकाया और स्वयं की रक्षा की ॥
छूटत गदा बहु उरेउ गिरे । भयउ कुपित कपि आपा बहिरे ॥ बहोरि एक बर सेल उपारे । लखि कर लव मस्तक दे मारे ॥ लक्ष्य हिन् गदा मारुती नंदन के हाथ से छूट गया और दूर जा गिरा । इससे वे क्रोधवश आपे से बाहर हो गए । फिर उन्होंने एक बड़ा भारी पत्थर को उखाड़ा और लव के मस्तक का लक्ष्य कर उसपर दे मारा ॥
एहि लख सो भए लाल भभूका । छाँड़ प्रदल तिन किए सौ टूका ॥ कन लग गुन धन्वंतर सारे । उरूज अरि बनाउरि उरारे ॥ यह देखकर लव अत्यंत क्रोधित हो उठा और बाणों का प्रहार कर उस पत्थर के सौ टुकड़े कर दिए । फिर उन्होंने की प्रत्यंचा को चार हाथ की माप तक प्रस्तारित किया और उस समय शत्रु स्वरुप वीर हनुमान पर चढ़ाई करते हुवे बाणावली की बौछार कर दी ॥
उरि उरंग सों उरस बिँधाई । अरु हनुमत चित मुरुछा छाई ॥ गवने बलि भट सत्रुध्न पाहीं । मुरुछा प्रसंग कहत सुनाहीं ॥उड़ते हुवे सर्प की भांति ( एक दुर्लभ प्रजाति का विषधारी सर्प जो पेड़ों पर रहता है, और एक पेड़ से दुसरे पेड़ पर छलांग मारता है इसका रंग हरा होता है छलांग मारने के कारण यह उड़ता हुवा प्रतीत होता है, जो छत्तीसगढ़ में पाया जाता है ) वे बाण वीर हनुमत के ह्रदय को भेदने में सफल हुवे फिर उनके चित्त पर मूर्छा छा गई ॥यह देख वीर सैनिक शत्रुध्न के पास गए और हनुमत की मूर्छा का प्रसंग कह सुनाया ॥
पावत सत्रुहन कान, हनुमत अचेत आगान । हिय बहुसहि दुःख मान, भए बिहबल यह सेष कहे ॥ भगवान शेष मुनि वात्स्यायन से कहते हैं हे मुने ! : -- हनुमत की अचेतना के वृत्तांत को सुनकर शत्रुधन के ह्रदय ने बहुंत ही दुःख माना और वे शोक से विह्वल हो उठे ।।
सकल सेन तब सत्रुध्न केरी। सिया कुँवर लए चहुँ पुर घेरी ॥
कबि महा रिषि बाल्मिकी, जब जे दरसन पाए ।
गवन तुर कुँवर कुस पहि, ते बिबरन बरनाए ॥