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----- ।। उत्तर-काण्ड ५५ ।। -----

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बुधवार, २४ अगस्त, २०१६                                                                                                  

सिय केर सुचित मद मानद हे । तव सहुँ छदम न कोइ छद अहे ॥ 

न तरु हमहि न देवन्हि सोंही । यह कछु मन महुँ भरमन होंही ॥ 

हरहि तमस जिमि प्रगस पतंगा । दूरए मन  निभरम ता संगा ॥ 

कहत सेष मुनि जगद निधाता । भगवन जद्यपि सरब ग्याता ॥ 

बाल्मीकि एहि बिधि समुझायउ । सुनि मुनि अस्तुति सहुँ सिरु नायउ ॥ 

लषन सोंहिं बोलिहि एहि  बाता । सुमित्र सहित कृत करिहु ए ताता ॥ 

करएँ जुग कर बिनति सब कोई  । करौ सकार अजहुँ सुत दोई ॥ 
सती सिया पहिं चढ़ि रथ जाहउ। जमल सहित तुर आनि लिवाहउ ॥ 

मोर अरु मुनि केर कही कहियउ तहँ सब बात । 
अवध पुरी लेइ अइहौ कहत मात हे मात ॥ 

अहो भगवन अजहुँ मैं जइहौं । सीतहि मातु कहत समुझाइहौं ॥ 
सुनिहि जो आपनि प्रिय सँदेसा । आनि पधारिहि सो एहि देसा ॥ 

आइहि मोर संग सिय माई । होइहि तबहि सुफल मम जाई ॥ 
अस कह लखनउ आगिल बाढ़े । प्रभो अग्या सोंहि रथ चाढ़े ॥ 

अरु मुनिबर के सिस लय संगा । सुमित्र साथ रथ भयउ बिहंगा ॥ 
पति पतियारिन अति परम सती । होहि केहि बिधि मुदित भगवती ॥ 

ब्याकुलित  मानस अस सोचे । कबहुँ हरष करि कबहुँ सकोचे ॥
दोइ भाउ बिच मन बिरुझाईं । अतुरए आश्रमु दिए  देखाई  । 

एहि दसा पैठि रथ चरन पथ श्रमु गयउ सिराए । 
अतुरई पुनि जगन मई जननि देइ देखाए ॥ 





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