मंगलवार, ०२ फरवरी, २०१६
सेंचि अविरल कर्म जल हारी । निस दिन केतु माल कर धारी ॥
रितु बिनु पल्ल्वहिं न नव पाता । करिहु निरंतर भरमनि बाता ॥
अजहुँ भई बहु करम बड़ाईं । मम पुर सों तुर निकसौ जाईं ॥
सुरपति बिरचि केर करि बचना । बोधिहु मोहि कुटिल कर रचना ॥
रगुनन्दन चरन सेउकाई । सो जन कबहु गहि न अधमाई ॥
भगत सिरोमनि ध्रुव प्रह्लादा । दखु बिभीषन बिनहि प्रमादा ॥
राम भगत अरु अबरु जग माहि । होइँ पद पतित कबहु सो नाहि ॥
जोइ दुषठ निंदहि रघु राजू । करिहि छाए छल और न काजू ॥
बाँध पास तिन्हनि जमदूता । लोहित मुद्गल हतिहि बहूँता ॥
तुम ब्रम्हन तुम रघुबर सेबी । मैं दंड तोहि सकहुँ न देबी ॥
जाहु जाहु चलि जाहु तुम मोरे सौमुख सोहि ।
न ताऊ तुम्हरे प्रति कोउ मो सम बुरा न होहि ॥
सुरथ कहेउ बचन के साथा । तासु अनुचर गहे मुनि हाथा ॥
भए उद्यत देवन निकसावा । तब जग बंदित रूप दिखावा ॥
परिहारत पुनि सकल ब्याजा । बोले मधुर बचन जम राजा ॥
राम भगत नहि तुम सम कोई । मोरे मन प्रसन्न चित होईं ॥
देखि अबिचल भगति तुम्हारी । तुम तें अगम न कछु संसारी ॥
मागउ जो तव मन अभिलाषा । बनाए बहुंत अनर्गल भाषा ॥
तोहि प्रलोभन के प्रत्यासा । तोर बचन झूठहि उपहासा ॥
कूट कपट मुनि भेस बनाईं । सुब्रत किआ मैं बहुँत उपाईं ॥
तथापि रघुपति प्रति तोरि सेवा भई न भंग ।
अरु किन होए करिहहु तुम साधु सील सत्संग ॥
सेंचि अविरल कर्म जल हारी । निस दिन केतु माल कर धारी ॥
रितु बिनु पल्ल्वहिं न नव पाता । करिहु निरंतर भरमनि बाता ॥
अजहुँ भई बहु करम बड़ाईं । मम पुर सों तुर निकसौ जाईं ॥
सुरपति बिरचि केर करि बचना । बोधिहु मोहि कुटिल कर रचना ॥
रगुनन्दन चरन सेउकाई । सो जन कबहु गहि न अधमाई ॥
भगत सिरोमनि ध्रुव प्रह्लादा । दखु बिभीषन बिनहि प्रमादा ॥
राम भगत अरु अबरु जग माहि । होइँ पद पतित कबहु सो नाहि ॥
जोइ दुषठ निंदहि रघु राजू । करिहि छाए छल और न काजू ॥
बाँध पास तिन्हनि जमदूता । लोहित मुद्गल हतिहि बहूँता ॥
तुम ब्रम्हन तुम रघुबर सेबी । मैं दंड तोहि सकहुँ न देबी ॥
जाहु जाहु चलि जाहु तुम मोरे सौमुख सोहि ।
न ताऊ तुम्हरे प्रति कोउ मो सम बुरा न होहि ॥
सुरथ कहेउ बचन के साथा । तासु अनुचर गहे मुनि हाथा ॥
भए उद्यत देवन निकसावा । तब जग बंदित रूप दिखावा ॥
परिहारत पुनि सकल ब्याजा । बोले मधुर बचन जम राजा ॥
राम भगत नहि तुम सम कोई । मोरे मन प्रसन्न चित होईं ॥
देखि अबिचल भगति तुम्हारी । तुम तें अगम न कछु संसारी ॥
मागउ जो तव मन अभिलाषा । बनाए बहुंत अनर्गल भाषा ॥
तोहि प्रलोभन के प्रत्यासा । तोर बचन झूठहि उपहासा ॥
कूट कपट मुनि भेस बनाईं । सुब्रत किआ मैं बहुँत उपाईं ॥
तथापि रघुपति प्रति तोरि सेवा भई न भंग ।
अरु किन होए करिहहु तुम साधु सील सत्संग ॥