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----- ।। उत्तर-काण्ड ४७ ।। -----

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मंगलवार, ०२ फरवरी, २०१६                                                                                    
सेंचि अविरल कर्म जल हारी । निस दिन केतु माल कर धारी ॥ 
रितु बिनु पल्ल्वहिं न नव पाता । करिहु निरंतर भरमनि बाता ॥ 

अजहुँ भई बहु करम बड़ाईं । मम पुर सों तुर निकसौ जाईं ॥ 
सुरपति बिरचि केर करि बचना । बोधिहु मोहि कुटिल कर रचना ॥ 

रगुनन्दन चरन सेउकाई । सो जन कबहु गहि न अधमाई ॥ 
भगत सिरोमनि ध्रुव प्रह्लादा । दखु बिभीषन बिनहि प्रमादा ॥ 

राम भगत अरु  अबरु जग माहि  । होइँ पद पतित कबहु सो नाहि ॥ 
जोइ  दुषठ निंदहि रघु राजू । करिहि छाए छल और न काजू ॥ 

बाँध पास तिन्हनि जमदूता । लोहित मुद्गल हतिहि बहूँता ॥ 
तुम ब्रम्हन तुम रघुबर सेबी । मैं दंड तोहि सकहुँ न देबी ॥ 

जाहु जाहु चलि जाहु तुम मोरे सौमुख सोहि । 
न ताऊ तुम्हरे प्रति कोउ मो सम बुरा न होहि ॥ 

सुरथ कहेउ बचन के साथा । तासु अनुचर गहे मुनि हाथा ॥ 
भए उद्यत देवन निकसावा । तब जग बंदित रूप दिखावा ॥ 

परिहारत पुनि सकल ब्याजा । बोले मधुर बचन जम राजा ॥ 
राम भगत नहि तुम सम कोई । मोरे मन प्रसन्न चित होईं ॥ 

देखि अबिचल भगति तुम्हारी । तुम तें अगम न कछु संसारी ॥ 
मागउ जो तव मन अभिलाषा । बनाए बहुंत अनर्गल भाषा ॥ 

तोहि प्रलोभन के प्रत्यासा । तोर  बचन झूठहि उपहासा ॥ 
कूट कपट मुनि भेस बनाईं । सुब्रत किआ मैं बहुँत उपाईं ॥ 

तथापि रघुपति प्रति तोरि सेवा भई न भंग । 
अरु किन होए करिहहु तुम साधु सील सत्संग ॥ 




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