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----- ॥ टिप्पणी ७ ॥ -----

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>> वर्तमान में भारत की आर्थिक विषमताओं का प्रमुख कारण यहाँ के धनपतियों की  दरिद्रता है..... 
>> कच्छे में रहने वालों के बनाए नेता दस लखटकिया सूट में रहते हैं ? और ये कुछ कहते भी नहीं.....आश्चर्य  है..... 
 >> खाता वाली योजना के बारे एक 'हमाल 'तक का कहना था = पइसा सकलत हें : = अर्थात तरलता अवशोषित  कर रहे हैं महंगाई तो बढ़ेगी ही..... 

>> राजू : -- हमरे नगर में भी एक ठो झोझरू पारा है वहां भी आज तक कोई पी एम नहीं आया.....
                    
"उ बाजू के नगर में तो दो ठो हैं....." 

>> राजू : -- ऐतना ऊँचा चढ़ के बाँग देने की क्या आवश्यकता थी, नीचे से सुनाई दे जाता..... 

>> हमरे नगर में भी मना था ई गुंडे लोगन का त्यौहार, अब जहाँ गुंडे होंगे वहां अभद्रता तो होगी न..... 
>>ईश्वर का आह्वान कर्म, भक्ति ( पूजा पाठ ) व् ज्ञान से किया जाता है जिन्हे त्रय काण्ड कहते है.....

>> स्वप्न अचेतन मस्तिष्क के चिन्ह है, विश्वास अंधा  न हो ,   विचार ऊँचे हों,  निर्णय न्यायपरत हो,  मृत्यु को लक्ष्य करता सफल जीवन हों..... 

>> जोइ है अरु जैसा है है सो अपने देस । 
      पाप पोष बहु दोष किए कोइ पड़ा परदेस ।। ६ ॥ 
भावार्थ : --  जो है जैसा है वह अपने देश में ही है । कोई तो परदेश में पड़कर पाप को पोषित करते हुवे दोष पर दोष किए जा रहा है ॥  

----- ।। उत्तर-काण्ड ४० ।। -----

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बुधवार, १६ सितम्बर, २०१५                                                                       

वात्स्यायन  महिमन साथा । बोले मृदुलित हे अहि नाथा ॥ 
हरन भगत कर  पीर दुखारा । किए कीरत जो बिबिध प्रकारा ॥ 

श्रवण कथा सो रघुनन्दन की । पूरन होत न मोरे मन की ॥ 
कथा कंज तुम कलित कमंडल । कंठ तालु तल करिहैं कल कल ॥ 

भयउ पिपास मोर जिग्यासा । तासु बिनहि साँसत मम साँसा ॥ 
जस जस तुम्ह  कंज का दाईं । बढे पिपास अधिकाधिकाई ॥ 

धन्य धन्य सो बेद निधेई ।  जग जीवन जन दरसन देई ॥ 
बिनास धरमि देहि परिहाई  । तजिअ  प्रान सौमुख रघुराई ॥ 

नाथ कृपाँ कर मोह जनावा । मेधि है पुनि केहि पथ धावा ॥ 
गयउ कहु कहँ गहे कर केही । उपमातीत रमा प्रिय जेही ॥ 

किए आरती आरतिहर जिनके चरन जुहार । 
ऐसो कंत  के कीरति को बिध गहि बिस्तार ॥

बृहस्पतिवार, १७ सितम्बर, २०१५                                                                  

ससिकर सैम मुनि गिरा तिहारी । रुचबर पूछ बहु मनहारी ॥ 
धीमन धुरीन धर्म धाम के । जग मंगल गुन ग्राम राम के ॥ 

सुनिहु तुम्ह बहु देइ ध्याना । मानिहु मुनि जस देइ न काना ॥ 
लाह लहन बस अनभिग सोहीं । बारहि बार पूछेउ मोही ॥ 

सुभग कथा सो सुनु अब आगे । अलस प्रभात सूर जब जागे ॥ 
केहरि नाद बीर बहुतेरे । मेधि तुरग करि ताके घेरे ॥ 

महर्षि आश्रम सों निकसावा । फिरत नर्बदा तट पहिं आवा ॥ 
देऊरचित नगर सुर नाउब । भंवर मनोहर पथ तहँ आउब ॥ 

फटिक मनि भीतिका धरि जहँ गहगहि गेह दुआरि । 
अधबर पाँख गवाँख लिए लाख रहइँ फुरबारि ॥ 

शुक्रवार, १८ सितम्बर, २०१५                                                                      

बास बास जस रजत अटाला । पास देस गह अतिगौ साला ॥ 
कंठनि जब कल कंकनि बाजे । रागिह जिमि छहुँ राग बिराजे ॥ 

गहे गोप गन गोपुर नाना । सो रचना नहि जाइ बखाना ॥ 
गचि पचि गज मुकुता के पाँती । खच रचि हरिन मनिक बहु भाँती ॥ 

 गहे गगन रस खन सस माला  । कर्षन सन सम्पन सब काला ॥ 
पद पद निर्झर नदि  नद ताला । गगन परसित परबत बिसाला ॥ 

रहैं बीर मनि नगर नरेसू  । धर्म सील तै  अघ नहि लेसू ॥ 
एक सुपूत ते राउ  के आही । नाऊ  रुक्माङ्ग अस ताही ॥ 

अमित बिक्रम अतुल अतिबल अचल सूर संग्राम । 
अमित्र घात तापत सदा देइ बिजअ परिनाम ॥ 

शनिवार, २० सितम्बर, २०१५                                                    

एक बार रमनीअ सँग माही ।  सो नृप सुत प्रमोद बन आही ॥ 
मुख पुर मधुर मनोहर रागा ।  प्रमुदित मन बन बिहरन लागा ॥ 

तेहि अवसर बर बुधवंता के  । राजधिराज जगत कंता के  ॥ 
सुहसील राज बाह बिसेसा । सोइ प्रमुद बन देस प्रबेसा ॥ 

बाँध सिख बदन सुबरन पाँती । दमकिहि देहि धौलगिरि भाँती ॥ 
चंवर चामि कर  चारु चरचिता । तासों दरसिहि कछुक हरिता ॥ 

गहि गति अस सो जमणिमन् जमन  । करिहि बिनिंदित जमनगत पवन ॥
 हरिद असम सम  ग्रास मुख धरे । तासु सरूप कौतुहल भरे ॥

मंगल मौली  मण्डलित  सोहित सुबरन पाँति । 
सब रमनी चित्रबत भई चितबत चित्रकृत  कांति ॥ 









             

----- ।। उत्तर-काण्ड ४१ ।। -----

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बृहस्पतिवार, ०१ अक्तूबर, २०१५                                                                    

ममहय हेरे हेर न पायो । कतहुँ तोहि कहु दरसन दायो ॥ 
काज कुसल बहु हेरक मोरे । गयऊ मग मग मिलिहि न सोरे ॥ 

नारद बीना बादन साथा । गाँवहि रूचि रूचि भगवन गाथा ॥ 
राम राम जप कहँ सुनु राऊ । अहँ  नगर यह देउपुर नाऊ ॥ 

तहँ जग बिदित बीर मनि राजा । बैभव बिभूति संग बिराजा ॥ 
तासु तनय बिहरन बन आइहि । हिंसत हय सहुँ बिचरत पाइहि ॥ 

हरन हेतु सो गहे किरन कर । समर करन लिए गयौ निज नगर ॥ 
नयन धरे रन पथ महराजू । अजहुँ तुम्ह रन साज समाजू ॥ 

गह बल भारी देइँ हँकारी बर बर समर ब्यसनी । 

ब्यूहित जूह सहित समूह सों  सैन सब भाँति बनी ॥  
अतिकाय अनिप करिहि गर्जन धनबन घन बन गाजिहैँ । 
होइ धमाधम नग बन सो जुझावनि बाजनि बाजिहैं ॥ 

कवलन काल पुकारिया समर बिरध बलबीर । 
राजन धनुधर रनन रन कास लियो कटि तीर ॥ 


शुक्रवार,०२ अक्तूबर, २०१५                                                                                    

अतएव जोग जुझावन साजू । पूरनतस तुम रहौ समाजू ॥ 
रहिहउ अस्थित भू भट जूहा । रचइत सुरुचित सैन ब्यूहा ॥ 

ब्यूहित जूह रहए अभंगा । प्रबसि होए न केहि के संगा ॥ 
बाहु बली बहु बहु बुधवंता । अहहीं एकसम प्रतिसामंता ॥ 

नाहु बाहु जस सिंधु अपारा । अंतहीन जल सम बल घारा ॥ 
तापर बहु बाँकुर अवरूढ़े । पार न भयउ गयउ सो बूढ़े ॥ 

एहि हुँत तासहु सुनु मम भाई । परिहि जुझावन अति कठिनाई ॥ 
तद्यपि तुम सत धर्म अचारी । होहि जयति जय श्री तुम्हारी ॥ 

जगभर में अस बीर न होई । सके जीत सत्रुहन जो कोई ॥ 
भगवन के अस करत बखाना ।नारद भयउ  अंतरधियाना ॥ 

दुहु दल के संग्राम भए देवासुर संकास । 
ताहि बिलोकन देवगन हरष ठहरि आगास ॥ 

शनिवार, ०३ अक्तूबर, २०१५                                                                                

इहाँ अतिबलि बीर मनि राई । अनिप रिपुबार नाउ बुलाई ॥ 
हनन ढिंढोरन आयसु दाए । चेतन नागरी नगर पठाए ॥ 

डगर डगर जब हनि ढिंढोरा । करिए गुँजार नगर चहुँ ओरा ॥ 
घोषत जो कछु बचन कहेऊ । तासु गदन एहि भाँति रहेऊ ॥ 

गहे बिकट जुव भट समुदाई । कहि न सकै सो दल बिपुलाई ॥ 
जूह बांध बहु जोग निजोगे । बधि हय लहन जुझावन जोगे ॥ 

रघुकुल भूषण राजन जाके । सैनाधिप लघु भ्राता ताके ॥ 
अहहि नगर जो को बलि जोधा । समाजु सो सब भिरन  बिरोधा ॥ 

वादित श्रोता गन मध्य  भयऊ  अस निर्वाद । 
कर सूचि निपातहि महि करहि सोए निह्नाद ॥ 

रविवार, ०४ अक्तूबर २०१५                                                                                          

जेहि केहि बलबन अभिमाना । परम बली जो आपन जाना ॥ 
राजायसु लाँघिहि जो कोई । सो नृप सुत भ्राता किन होई ॥ 

दोषारोपित राज बिद्रोही । सो सब बकबुधि बध जुग होंही ॥ 
पुरजन मति जब कछु नहि  लेखे ।  नयन जुहार एक एकहि देखे ॥ 

बहुरि बहुरि रन भेरि हनाईं । निगदित गदन गयउ दुहराईं ॥ 
सुनौ बीर अस सुनि अतुराई । रहें करकनीज करतब ताईं ॥ 

यह राजग्या लाँघे  न कोए  । आयसु पालन बिलम नहि होए ॥ 
नरबर नृप कर भट बलबना । घोषित बचन सुने जब काना ॥ 

कर धनुधर कटि सर सजी काया कवच सुहाहिं । 
मन महुँ भरे रन रंजन, गवने भूपति पाहि ॥ 

सोमवार, ०५ अक्तूबर, २०१५                                                                                  

मान समर माह परब समाना । आए बीर भट भरि भरि बाना ॥ 
उर्स उदधि भए हरष तरंगा । उमग उमग उम परस उतंगा ॥ 

करे गुँजारि भीड़ अति भारी । राजित रज रज राज दुआरी ॥ 
तुरग तूल तुर रथ संचारा । आए बेगि पुनि राज कुमारा ॥ 

कला कलित कलाप के पूला । गह रत्ना भूषन बहु मूला ॥ 
फर धर खडग कवच कर गाता । सुभाङ्गद नाऊ लघु भ्राता ॥ 

करे पयान प्रान परहेला । आन अतुर रन परब समेला ॥ 
बीर सिंह भूपति के भाई । आजुध बिद्या महुँ कुसलाई ॥ 

अस्त्र सस्त्र सो सबहि बिधाना । लच्छ सिद्धि कर गहै ग्याना ॥ 
राजग्या अनुहारत सोई । राज दुआरी राजित होई ॥ 

महाराज के राज में दए आयसु अस होइ । 
बिपरीत मति होत ताहि लाँघ सकै नहि कोइ ॥ 

मंगलवार, ०६ अक्तूबर २०१५                                                                        

भूपति केरि बहिनि कर तनुभौ । आन सोउ हेले रन उत्सौ॥ 
पुरजन हो चह परिजन कोई । अमित बिक्रम बल बीर सँजोई ॥ 

चतुरंगिनि बार कटकु बनाईं । गयउ अनिप नृप पाहि जनाईं ॥ 
सबहि भाँति गह साज समाजा । तदन्नता चढ़ि ध्वजी अधिराजा ॥ 

ऐसेउ को आयुध न होहीं  । जुगावनि  जोइ राउ न जोहीं ॥ 
रचित मनोहर मनि बहु रंगा । चरिहि चरन जिमि गगन बिहंगा ॥ 

कहे सरन रहुँ ऊँचहि ऊंचे । रहउँ तहाँ जहँ रज न पहूँचे ॥ 
बाजिहि मधु मधुर मंजीरा । पुरयो सप्तक सुर दुहु  तीरा ॥ 

बजावनहार बजावहि बाजनि बहु चहुँ फेरि । 
दसहु  दिसा गुँजारत पुनि उठी रन भेरि ॥ 

बुधवार,०७ अक्तूबर, २०१५                                                                                

गहन रूप बाजत रन डंका । चले कटकु सन बहु बहु बंका ॥ 
हेल मेल पथ चरनन धरायो  । धूसर घन सों गगन अटायो ॥ 

सबहि कतहुँ घन घन रव होई । कहैं एकहि एक सुनै न कोई ॥ 
उर्स हरष मन जुगत उछाहा । नियरत रनाङ्गन नरनाहा ॥ 

जिन सों कबहूँ सस्त्र न अंगा । सिद्ध हस्त अस रथी प्रसंगा ॥ 
लेइ संग तिन सैन समूची । राजन सों रन भूमि पहूँची ॥ 

धुर ऊपर घन धूर गहायो । चारि कोत कोलाहल छायो ॥ 
राउ अनी आगम जब देखे । सत्रुहन सुमति सोंह कहि लेखे ॥ 

गहे जोइ मोरे बर बाहू । आएँ लिए निज सैन सो नाहू ॥ 

गाहे हस्त समरोद्यत बँधे माथ कर पाँति । 
ता सोहि मुठ भेटौँ मैं कहौ सुबुध किमि भाँति ॥ 

बृहस्पतिवार, ०८ अक्तूबर, २०१५                                                                      

हमरे पहिं भट को को होहिहि । जोइ समर जुझावन जोइहि ॥ 
बुधिबल सकिअ रिपु संग जयना ।जोग जोख करिहौ अस चयना ॥ 

चयन तेहि अनुसासन दीजौ । सुनहु सखा अब बिलम न कीजौ ॥ 
बोलि सुमति हे मम गोसाईं । अस तो सबहि गहे कुसलाईं ॥ 

पुष्कल महा बीर मैं बीरा । जोग जुधान रतन में हीरा ॥ 
आयुध बिद्या मैं बिद्बाना । घात करन में परम सुजाना ॥ 

नील रतन सम  अबरु ग्याता । सस्त्रीबर बहु कुसलाता ॥ 
महामहिम  के जो मन भाईं । समर बीर सो करिहि लड़ाई ॥ 

महाराज बीर मनि अरु गंगाधर सहुँ  होहिं । 
नाथ बयरु तुम कीजियो अगुसर ताही सोहि ॥ 

शुक्रवार, ०९  अक्तूबर, २०१५                                                                                      

सो महिपाल काल सम बीरा । अमित बीकाम अति अति रनधीरा ॥ 
अहहीं चतुर तुम्हारिहि नाईं । द्वंद युद्ध भा एकु  उपाई ॥ 

भिरत समर सो भूपत तुम्हहि । जितिहहु तामें किछु संसय नहि ॥ 
अबरु उचित तुअ जनि मन जैसे । करिहौ हित कृत करतब तैसे ॥ 

तुम्ह स्वयमहु परम सुजाना । खेत करन गह सबहि ग्याना ॥ 
सुनत बचन एहि सुमिरत रामा । प्रतिद्वंद्वी कर दल दामा ॥ 

रन जुझावन संकलप लेई । भिरन बीर अनुसासन देईं ॥ 
प्रतिपारत कहि निज नरनाहा । समरु कुसल उर भरे उछाहा ॥ 

अनी अगन आयसु पवन भट भट भए  चिङ्गारि । 
धू धू करत ताप धरत , समार भूमि पद धारि ॥ 

जनि = समझे 

शनिवार, १० अक्तूबर, २०१५                                                                               

कटि सर षंड कोदंड हाथा । भयउ गोचर सबहि एक साथा ॥ 
सुभट नयन उठि लखे दिवाकर । छाँड़ निषंग चढ़े जीवा पर ॥ 

चले आतुर झूँड के झूँडा । लगिहि चरन उर सिर भुजदंडा ॥ 
प्रदल खलभल केहि नहि लाखा । भयऊ पल महि बिकल बिपाखा ॥ 

छन महुँ  बहुतक बीर बिदारे । त्रासित हा हा हेति पुकारे ॥ 
सुने जब निज सेन संहारा । मनिरथ राजित राज कुमारा ॥ 

दुति गति सम गत आयउ आगे । ताके कर सर सरसर भागे ॥ 
चले गगन जिमि पुच्छल पूला । होए  दुनहु दल तूलमतूला ॥ 

चढ़े घात निपात नेक सुभट ब्याकुल होए । 
त्राहि त्राहि गुहार करे हा हा करि सब कोए ॥ 

रवि /सोम , ११ /१२  अक्तूबर, २०१५                                                                                 

बल जस सम्पद माहि समाना ।रुक्माङ्गद निज जोरि जाना ॥ 
पचार सत्रुहन भरत कुमारा । समर हेतु घन गरज पुकारा  ॥ 

कोटि कोटि भट कटक बिडारे । केत न केतक गयऊ मारे ॥ 
निर्बल घात करिहौ प्रहारा । धिग धिग धिग पौरुष तुम्हारा ॥ 

तासु मरन कछु लाह न होहीं । बीर रतन करु रन मम सोहीं ॥ 
सूर बीर बीरहि सहुँ सोहा । बिपरीत चरन बीर न होहा ॥ 

अस कह रुक्माङ्गद पचारा । सूरबीर पुष्कल हँस पारा ॥ 
छाँड़ बेगि पुनि सर संघाती । राजकुँअर करि  भेदिहि छाँती ॥ 

मर्म अघात परत भूमि उठत बहुरि अतुराए । 
 धरि भू चरन सरासन रसन खैचत श्रवन लगाए ॥ 

मंगलवार, १३ अक्तूबर २०१५                                                                                   

भयउ जर जर कोप कर भारी । बदन अंगीरि नयन अँगारी ॥ 
करक दरस दस सायक बाढ़े । आत सहुँ रिपु घात पर चाढ़े ॥ 

धकरत पुष्कल उरस दुआरी । धँसे भीत पट देइ उहारी ॥ 
करिहि एकहि एक कोप अपारा । दोउ ह्दय चहि जय अधिकारा ॥ 

देत बहुरि बहु गहन  अघाता । रुकमाङ्गद कहे अस बाता ॥ 
समर बीर प्रचंड बल जोरे । देखू अमित पराक्रम मोरे ॥ 

राजित रथ रहिहौं रसि कासा । अजहुँ तोर आठ उरिहि अगासा ॥ 
अस कहत कछु मंत्र उचारेसि  । बहुरि भँवरकास्त्र  देइ मारेसि ॥ 

हथत रथ दृढ चरन घुरमायो  । एक जोजन पुर दूर गिरायो ॥ 
आठ जोजक बहु जुगत लगावा । थिर परन  महि चिक्करत पावा ॥ 

सँभारत रथ भरत तनय किए थिर केहि बिधान । 
गिरत परत पुनि लेइ गत  पूरबबत अस्थान ॥ 






























----- ॥ टिप्पणी ८ ॥ -----

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>> रक्त दान तब जब ग्राही किसी का जीवन न ले.....

>> नरभक्षण भी हो रहा हो तो आश्चर्य नहीं होगा.....यह विकासराज है कि दानव राज.....

>> इस पांचवीं में पांच बार अनुत्तीर्ण को ये नहीं पता कि धान का कटोरा किसको बोलते हैं.....
किसी प्राथमिक पाठशाला में भेजो इसको.....

>> महामहिम राष्ट्रपति जो भारतीय धर्म सम्प्रदाय व् जाति  का मुखौटा लगाने वालों  के कृपापात्र हैं, को  अपने शब्दों पर दृढ न रहने व् कुर्सी से चिपकने का रोग है, कृपया कोई उपचार बताएं.....

>> ये इन सत्ताधारियों के सोलहवें मार्गदर्शक हैं ९२ में शंकर दयाल शर्मा थे.....
>>  बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक गणपति उत्सव की प्रथा बंबई से प्रारम्भ  की थी.....

>> अब तो सूट छुड़ाने वाले पीरो-मौला आ गए हैं.....
एक ज्ञान तो बताइये ये पूर्व पी एम और राष्ट्रपति की काहे नहीं छुड़ाए.....
राजू : - खुद की  छूटे तो न, ए फोटो वाले.....तनिक अमरीका में दारु के साथ वाली फोटो दिखाओ तो .....

>> इन नरभक्षी पियक्कड़ दानवों के  मार्गदर्सक प्रति  पांच वर्ष में बदल जाते हैं,
एक ज्ञान तो बताइये ९२ में मार्गदर्सक कौन थे ?

राजू : -- अब उस समय कोई हो तो ज्ञान दे, तनिक अपनी पाटी का इतिहास भी पढ़  लेना चाहिए.....
>> मांस भक्षण  करके ,  गले तक चढ़ा के सब कुछ दो दो दिखता है.....दीवाली भी.....

>> नाम व् उपनाम किसी जाति व् सम्प्रदाय विशेष के  द्योतक होते हैं इन्हें धर के  इधर-उधर नहीं जाना चाहिए.....
दुनिया कहती है देखो गुजराती गौ भक्षी हो गए हैं  और गौपालक भारत क्या से क्या हो गया.....

राजू : - हाँ ! एक बात और जब ग़दर-ग़दर खेलना नहीं आता तो खेलते काहे हो.....

>> अरणों में अरण है वर्णों में है भाव । 
      शब्दों की पतवार है कागज़ की है नाव ॥ 

>> एक ज्ञान तो बताइये ये कुत्ते बिल्लियों की चाय पिता कौन था.…।  ? 

>> एक बात तो बताइये ये लोग अनशन करते थे कि गवाशन करते थे..... 

>> राजू : -- ये भी साधुसंत है  इसकी भी मत पूछो.....जात और क्या.....ज्ञान इसके पितरों से पूछ लेंगे.....
>> विद्यमान समय में विश्व को न केवल आतंक अपितु उसके समर्थकों से भी सावधान रहने की आवश्यकता है.....

----- ।। उत्तर-काण्ड ४२ ।। -----

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शुक्रवार, १७ अक्तूबर, २०१५                                                                   

सीस चरन धर कर धरि काना । दहत दहत महि गिरे बिहाना ॥ 
तेहि अवसर समर मुख पीठा । हा हा हेति पुकारत दीठा ॥ 

राज कुँअर मुख मुरुछा छाईं । दरसत ताहि बीर मनि राई ॥ 
दहन गरभ गह आँगन आवा । गहन गरज पुष्कल पुर धावा ॥ 

करिउ चित्कार अतिउ घन घोरा । जिमि बल्लिका गुँजहि चहुँ ओरा ॥ 
इहाँ कपिबर बीर हनुमाना । देखत उमगत सिंधु समाना ॥ 

कटक भीत धरि रूप कराला ।बीर मनि जस भयऊ ब्याला ॥ 
जोरि जोग निज बिनहि बिचारे । झपट डपट भट धरि धरि मारे ॥ 

बज्राघात करि  बीर कचारे। पाहि पाहि सब पाहि पुकारे ॥ 
पुष्कल संकट घेरे घिराए । अचिर प्रभ गति सम अचिरम धाए ॥ 

धावत आवत द्युति गति जब निज कोत बिलोकि । 
धीर बँधावत एहि कहत पुष्कल हनुमत रोकि ॥ 

निर्बल बिकल मोहि न बुझावा । महाकपि कहु केहि कर धावा ॥ 
तृनु तुल तुहीं यह कटकाई । कहु त अहहीं केत रे भाई ॥ 

रथि कछु रथ कछु गज कछु घोड़े । जानिहु मैं गनि महुँ बहु थोड़े ॥ 
असुर सैन सरि सिंधु अपारा । राम कृपा जस करिहौं पारा ॥ 







----- ।। उत्तर-काण्ड ४३।। -----

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 शुक्रवार, २० नवम्बर, २०१५                                                                  
 झाँक चकत अस रकत प्रकासा । ढाक ढँकत जस फुरिहि पलासा ॥ 
सूल सूल भए फूलहि फूला । सोइ दसा गहि हस्त त्रिसूला ॥ 

पुनि पुष्कल जय राम पुकारा । काटि निबार पलक महि पारा ॥ 
बिकट रूप धर गर्जहि कैसे । ताड़त तड़ित गहन घन जैसे ॥ 

छतज नयन उर जरइ न थोरे । कोपवंत पुष्कल रथ तोरे ॥ 
निज त्रिसूलन्हि कटत बिलोका । भयउ प्रबल रन रहइ न रोका ॥ 

रुद्रानुचर के बेग प्रसंगा । भंजेउ रथ भयउ बिनु अंगा ॥ 
गयउ पयादहि रथ परिहारे । बीर भद्रहि कसि मूठि प्रहारे ॥ 

बहुरि एकहि एक मुठिका मारएँ  । घात घहट दुहु मानि न हारएँ ॥ 
लरिहि बिजय दुहु करि अभिलासा । चहहिं परस्पर प्रान निकासा ॥ 

रयनि बासर निरंतर जुझत रहै एहि भाँति । 
लरत बिरते चारि दिबस, पर नहीं उर साँति ॥  


शनिवार, २१ नवम्बर, २०१५                                                                                 

पंचम दिवस कोप के साथा । बीर भद्रन्हि कंठ गहि हाथा ॥ 
बाहु मरोरत महि महुँ  डारा । चोट गहत  भै पीर अपारा ॥ 

बीर भद्रहु पुष्कल पग धारिहि  । घुर्मावत नभ बारम बारहि ॥ 
भुज उपार पछाड़ महि पारे । मरति बार पुष्कल चित्कारे ॥ 

मुने अस बीर गति गहि पुष्कल । कासित करन्हि कंचनि कुंडल ॥ 
काट सो सिर गरज घन घोरा । फेरीबार फिरिहि चहुँ ओरा ॥ 

भंगी भय अस रन भूमि ब्यापे । जो देखिहि सो थर थर काँपे ॥ 
कुसल बीर सत्रुहन पहि जाईं । समाचार एहि कहि सिरु नाईं ॥ 

पुष्कल घेऊ बीर गति बीरभद्रहि कर सोहि । 
सुनेउ अस त सत्रुध्नन्हि करन भरोस न होंहि ॥ 

रवि/ सोम , २२/ २३  नवम्बर, २०१५                                                                             

भरे नयन सुनि सकल बखाना । सत्रुहन मन बहुतहि  दुःख माना ॥ 
कंपत ह्रदय धरा सम डोलिहिं । सोकाभिभूत नयन हिलोलिहि ॥ 

उठे ताप  घन पलक जल छाए । बरख घन बिरमन बदन भिजाए ॥ 

सोक मग्न सत्रुहन जब पायो । सिव संकर बहु बिधि समझायो ॥ 

कठिन जे दुःख न जाइ बिलोका । तथापि रे तुम परिहरु सोका ॥ 

जेहिं समुख मह प्रलयंकारी । पंच दिवस लग किए रन भारी ॥ 

देइ प्रान रच्छत निज पाला । धन्य धन्य सो बीर निराला ॥ 

जोए दच्छ महत्तम निज जाना । जासों होएसि  मम अपमाना ॥ 

तेहि मारि संघारिहि जोई । येहु  बीर भद्र अहहीं सोई ॥ 

एतेउ तुम्ह सोक परिहारौ । हे मह बली उठौ रन कारौ ॥ 

सत्रुहन परिहर सोक, पुनि कोप करत संभु प्रति । 
नयनायन जल रोक, धरि धनु लोहितानन किए ॥ 

मंगलवार, २४ नवम्बर, २०१५                                                                                   

बहुरि बान संधान धनुरयो । रघुबंसि के पानि महुँ पुरयो ॥ 
ताकि तमक बितान झरि लाईं । दरसिहि धारा सार के नाईं ॥ 

उत सहुँ सिव संकर के छाँड़े । बिदार बदन द्युति सम बाड़ें ॥ 
गयउ गगन बे गुत्थमगुत्था । दुहु दलगंजन के सर जुत्था ॥ 

काल गहन नभ घन गम्भीर । भिरिहि घन सैम एकहिं एक तीरा ॥ 
अवलोकत ऐसेउ घमसाना । सबन्हि जन के मन अनुमाना ॥ 

जहँ लोक संहारन कारी । सम्मोहक प्रलयंकर भारी ॥ 
चेतन हरत सबन्हि मन मोहीं । अवसि प्रलय के आगम होंही ॥ 

दुहुरनकार निहार के कहै निहारनहारि । 
एकु अधिराज रामानुज, दूजे त्रय सिक धारि ॥ 

बुधवार, २५ नवम्बर, २०१५                                                                          

भयऊ बिमिख पासपर दोई । राम न जाने अब का होई । 
दोनउ बीर बिराम न लेहीं । गहिहीं बिजय कलस कर केहीं ॥ 

एहि बिधि सत्रुहन अरु ससि सेखर। करिहिं सतत संग्राम भयंकर ॥ 
दिवस एकादस लग एहि भाँती । समर भूमि उर परे न साँती ॥ 

दिवस दुआदस संभु बिरुद्धा । तर्जत अति सत्रुहन बहु क्रुद्धा ॥ 
तोय तीर तूनीर त्याजे । चढ़ि गुन गगन टी गढ़ गढ़ गाजे ॥ 

चलेउ ब्रम्हायुध बिकराला । चहसि अबोध बधन मह काला ॥ 
रहेउ जिमि मह देउ प्यासे । पयसिहि हँस हँस पयस सकासे ॥ 

तासों सुमित्रा नंदनहि भइ अचरज अति भारि । 
करिए चहिअ अब कृत कवन लगे ए करन बिचारि॥ 

बृहस्पतिवार, २६ नवम्बर, २०१५                                                                           

एहि बिधि सोच बिचारत रहिहिं । देबाधिदेउ एकु सर लहहिं ॥ 
तासु बदन सिखि कन छतराइहिं । सत्रुहन के उर सदन उतराइहिं ॥ 

भयउ बिकलतर बेध्यो हियो । सत्रुहन हतचेत धरनि गिरियो ॥ 
हय कि गज कि रथी कि पदचारी । तेहि अवसर भरे भट भारी ॥ 

सकल सेना हां हा हँकारी । पाहि पाहि मम पाहि पुकारी ॥ 
गहे तीर गह  पीर बिसेखा । सत्रुहन जब मुरुछित गिरि देखा ॥ 

हनुमत तुर गत भुज भरि ल्याए । प्रथम तिन्ह स्यंदन पौढ़ाए ॥ 
रच्छन हुँत पुनि राखि रखौते । आप जुझावन होंहि अगौते ॥ 

सीस ससि सिर गंग गहे भूषित कंठ भुजङ्ग । 
जोगत बाहु बल हनुमत, कोपत भिरि ता संग ॥ 

शुक्रवार, २७ नवम्बर, २०१५                                                                                                  

एकै नाम निज रसन अधारे । राम राम हाँ राम उचारे ॥ 
रिसभर खरतर पूँछ हलराए । निज दल बीर के हर्ष बढ़ाए ॥ 

समर सरित तट चरन धरायो । बहोरि  तरत रुद्र पहि आयो ॥ 
देबाधिदेब बधन कर इच्छा । ऐसोइ कहत करिहि प्रदिच्छा ॥ 

धरम बिपरीत चरन करिअहहु । राम भगत हति हनन करि चहहु ॥ 
जो रघुबीर चरन अनुरागी ।भै अजहुँ मम दंड के भागी ॥ 

बीएड बिदुर मुनि मुख कहि पारा । सुना ए पुरबल बहुतहि बारा ॥ 
पिनाक धारि रूद्र अस होहू । राम चरन  सुमिरन रत होहू ।। 

मुनि बर  बदन कहे बचन, असत  भयउ हे राम । 
राम भगत सत्रुहन संग करिहहु तुम संग्राम ॥ 

शनिवार, २८ नवम्बर, २०१५                                                                              

जब ऐसेउ कहा हनुमंता  । कहे ए  निगदन गिरिजा कंता ॥ 
हे कपिबर तुम बीर महाना । तुहरी  कही फुरी मैं माना ॥ 

धन्य धन्य तुम पवन कुमारा । ध्न्य धन्य प्रभु पेम तिहारा ॥ 
राम जासु जस आप बखाना  । तुहरे  काज जगत कल्याना ॥ 

अगजग जिन बंदिहि कर जोरे । जथारथ में सोइ पति मोरे ॥ 
भगवान जेहि तुरग परिहाई । बीरमनि तिन्ह बाँधि लवाईं ॥ 

रघुबर जिन्ह तुरग करि  रखे । सो सत्रुहन तेहि हरनत लखे ॥ 
जोइ बीर रिपु दल दमनावा । रच्छत हय  तापर चढि  आवा ॥ 

तासु भगति बस आपनि पायउँ । ताहि रच्छन रन भूमि आयउँ ॥ 

भगवान भगत सरूप है भगत रूप भगवान । 
भगत राख करि चाहिये राखें जेन बिधान ॥ 


सोमवार, ३० नवंबर, २०१५                                                                    

सुनत बचन सिउ भगवंता के । भरि रिस सों उर हनुमंता के ॥ 
छोभित एकु सिलिका कर धारे । ताहि तासु बहि महि दै मारे ॥ 

गहे स्यंदन सील अघाता । भंजित हति रन भूमि निपाता ॥ 
कतहुँ त सारथि कतहुँ त चाका । कतहुँ केतु अरु कतहुँ पताका ॥ 

चितबत नंदी पत रथहीना । लरत पयादहि बदन मलीना ॥ 
 उठेउ तुरत अस  निगदत धाए । भगवन मोरे पुठबार पधाएँ ॥ 

भूतनाथ नंदी करि बाही ।मारुत सुत  बयरु  बरधाही ॥ 
लोहितानन गाढिहि अतीवा । पारग भयउ कोप के सींवा ॥ 

लम्ब बाहु बरियात पुनि लिए एक साल उपार। 
घोर पुकार हनेसि  उर किए बहु बेगि प्रहार ॥ 

मंगलवार, १ दिसंबर, २०१५                                                                            

ज्वाल सरिस तीनि  सिखि षण्डा । गाहे हस्त अस सूल प्रचंडा 
अगनाभ टूल तेजस जाका । रहि तेजोमंडित मुख वाका ॥ 

अहो गोल सम सूल बिसेखे ।  आपनि पुर जब आगत देखे ॥ 
हनुमत ताहि बेगि करधरके । किए भंजित पुनि तिल तिल कर के ॥ 

दिसत दिसत भए खंडहि खंडा । गहे हस्त पुनि सक्ति प्रचंडा ॥ 
बदन कि उदर कि पुठबार कि पुच्छल । सबहि कतहुँ सों अहहीं लोहल ॥ 

लागि सक्ति उर संभु चलाईं । छनभर हनुमत बहु बिकलाईं ॥ 
भयऊ श्रमित कछु मुरुछा भई । छन महुँ अनाइ  छन महूँ गई ॥ 

बहोरि एकु अति भयंकर बिटपन्हि लिए उपाऱ । 
अहि माली के उर माझ हनेसि घोर पुकार ॥ 

बुधवार, ०२ दिसंबर, २०१५                                                                                 

अहि भूषन  कर कंठ लपेटे । महाबीर के चोट चपेटे  ॥ 
 हहरत इत उत सकल ब्याला । सरर प्रबिसिहि बेगि पाताला ॥ 

बहुरि मदनारि मुसल चलाईं । करत रखावनि कुसल उपाई ॥ 
महाबली भुज अस बल घारे । बिरथा गयऊ सबहि प्रहारे ॥ 

तेहि अवसर राम के दासा । कोप वसन कर बदन निवासा । 
उपात् परबत लिए एक हाथा । डारि संभु उर बहु बल साथा ॥ 

सैल धारासार बौझारे । ताकि त्मक लक तकि तकि मारे ॥ 
धरिहि उपल खंडल बहु खंभा । पुनि बरखावन लगे अरंभा ॥ 

सागर सरित भयउ उदवृत जिमि भयक्रांत भू कंपिहि । 
खन खन भित भित भिदरित गिरि अस सिरपर जस गिरहि महि ॥ 
प्रमथ मह झोटिंग गन सहित भई भयाकुलित सकल अनी । 
 सत्रुध्नन्हि सैन बाहिनी इत लागिहि बहु भयावनी ॥ 

होइहि उपल प्रपात नंदी बिहबल दरस्यो । 
छन चन खात अघात महदेउ ब्याकुल भयो ॥ 

बृहस्पति/शुक्र , ०३/०४  दिसंबर, २०१५                                                                       

देखि संभु महबीर प्रभाऊ । बोले मृदुलित हे कपिराऊ ॥ 
कमल नयन पद केर पुजारी । धन्य धन्य सेबिता तिहारी ॥ 

तुहारे भुज जस बल दरसायो । भगत प्रबर तुम मोहि अघायो ॥ 
तव बल बक्रम कीन्हि बड़ाई । मोर कोस सो सबद न भाई ॥ 

दान जाग यत्किंचित तप तैं  । रे भगत हेतु सुलभ नहीं मैं ॥ 
बेगसील हे बीर महाना । एतएव मँगिहु को बरदाना ॥ 

संभु अस कथ कथन जब लागे । हनुमत हँसत तब भय त्यागे ॥ 
पुनि मनमोहि गिरा कर बोले । हे डमरू धर हे बम भोले ॥ 


हे  गिरिजा पति गिरि बंधु अरु किछु  चाह न मोहि । 
रघुबर चरन प्रसाद सों दिए  समदित सब किछु होहि ॥ 

सियापति रघुनाथ के नाईं । मम रन कौसल तोहि अघाईं ॥ 
एहि हेतु तव कहे अनुहारा । माँगिहि बर यह  दास  तिहारा ॥ 

गहे बीर गति बीर भद्रहि कर । लरत भिरत हत परेउ भूपर ॥ 
अस कहत हनुमत कहि ए पुष्कल । हमरे पाख केरे बीरबल ॥ 

यह रामानुज सत्रुधन होई । मुख मंडल मुरुछ गहि सोई ॥ 
अबरु बहुतक सूर ता संगे ॥ गहे बान तन भयउ निषङ्गे ॥ 

होवत छतबत गहत प्रहारे । मुरुछा गहिं गिरि महि हारे ॥ 
रखिहु तिन्ह निज गन के साथा । धरिअ रहिहौं सिरोपर हाथा ॥ 

खँडरन तन प्रभु होए न तिनके । सिउ सनक जतन करें जिनके ॥ 
द्रोन गिरिहि अस औषधि होंही । निरजीउ जिउ जियावत जोंही ॥ 

 लेन गिरिहि सो औषधी मोही आयसु दाहु  । 
संभु द्रवित हिय सों कहे हाँ हाँ अवसिहि जाहु ॥ 

शनिवार, ०५ दिसंबर, २०१५                                                                      

देवधिदेव अनुमति दयऊ । सकल द्वीप उलाँघत गयऊ ॥ 
आए छीर सागर के तीरा । आए अचिर  हनुमत महबीरा ॥ 

 इहाँ सिव संभु निज गन सहिता । पुष्कलादि के भयउ रच्छिता ॥ 
उत पहुंचत गिरि द्रोन महाना । औषध हुँत उद्यत हनुमाना ॥ 

हस्त गहत परबत हहराहीँ । राखनहर सुर निरखत ताहीं ॥ 
कहत एहि बत भए कुपित बहुँता । को तुम आइहु इहँ केहि हुँता ॥ 

छाँड़ौ सठ अस कस तिन गहिहू । परबत कहँ कत लिए गत चहिहू ॥ 
सुरन्हि केर बचन दए काना । बिनयंनबत बोले हनुमाना ॥ 

बीर मनि के नगरी में होइँ बिकट संग्राम । 
एक पाख अहैं सिउ संभु  दूज पाख श्री राम ॥ 

सोमवार, ०७ दिसंबर, २०१५                                                                 

तब हनुमान घटना क्रम बँधाए । उभय दिसि  की सब कथा सुनाए  ॥ 
जोधत बहु बलबीर हमारे ।  रूद्र कर तैं गयउ संहारे ॥ 


तिन्हनि हुँत मैं गिरि लए जैहौं । जीवनोषधिहि देइ जियैहौं ॥ 
जिन्ह के बिक्रम अपरम होईं । प्रदरस् तिन्ह गरब  करि जोईं ॥ 

परबत लिए गत जो अवरोधहि । सो सठ  मोरे संगत जोधिहि ॥ 

तीन पापिन बहु रन खेलइहौं । एकै पलक जम भवन पठइहौं ॥ 

अब औषधिहि चहे गिरि दाहू । गहे बीर गति बीर सुबाहू ॥ 

लेइ ताहि में अचिरम जैहौं । निर्जीवन जन जीवन दैहौं ॥ 

पवन कुमार केर बचन सुनि करि सकल प्रनाम । 
ते औषध कर देइहीं जासु सजीवन नाम ॥ 

----- ।। उत्तर-काण्ड ४४ ।। -----

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सोमवार ०७ दिसंबर,२०१५ 

पुनि सियापति राम  के हेता । लए औषध आइहिं रन खेता ॥ 
औषध सहित गयउ जब आवा । निरखत हनुमन सब सुख पावा ॥ 

भेंट तासु रिपु हो कि मिताईं । साधु साधु कह करिहिं बड़ाईं ॥ 
कपि गण महुँ अद्भुद कपि मानिहि । बली माहि बलवन पद दानिहि ॥ 

महामना माहि महातिमही । बुला मंत्रिबर सुमति सों  कहीं ॥ 
जो निर्जिउ जिय देइ जियाइहिं । करिहौं अब मैं सोइ उपाइहिं ॥ 

लए भुजदल पुष्कल पुठबारे । पुनि हरिहर उर औषध धारे ॥ 
धर ते बिहुन तासु सिर लीन्हि । जुगत मन जुत जुगावत दीन्हि ॥ 

जुगे जोहि धर सोहि सिरु, पुष्कल देह सँभारि । 
भरे हरिदय हँकारि के कथे कथन हित कारि ॥ 

बुधवार, ०९ दिसंबर, २०१५                                                                                   

एहि निगदन मुख निकसिहि जोहीं । बीर सिरोमनि पुष्कल तोहीँ ॥ 
जीअत उठि बैठे हरषाईं । भेंटत सकल हरष उर लाईं ॥ 

कटकटात पूण दन्त रिसायो । सहज सरूप समर भुइँ आयो ॥ 
बजे पुनि घन घोर रन डंका । पचारि चला बयरु सो बंका ॥ 

गयउ कहाँ सब राम बिद्रोही । आजु ताहि हठि मारिहुँ ओही ॥ 
कहँ सर गन कहँ मोर निषंगा । बोलत  अस फरकिहिं अंगंगा ॥ 

तानि कान लग कटु कोदंडा । संधान रसन बान प्रचंडा ॥ 
दरसत ऐसेउ कपिबर ताहि । कहेउ कोमलि आन तिन पाहि ॥ 

बीर भद्र मारेसि तोहि, तुम जीवन्मृत होहु । 
रघुबर चरन प्रसादु सों पुनि नव जीवन जोहु ॥ 

शुक्रवार, ११  दिसंबर, २०१५                                                                                 

रामानुजहू मुरुछित होंही । जिअन सजीवन जोहत ओहीं ॥ 
लागेउ सिउ संभु के बाना । पीर परत भए साँसत प्राना ॥ 

परेउ पूण हताहत जहँवाँ  । अस कह दोनउ गयऊ तहँवाँ ॥ 
साँसत साँस बहोरत आने । तब हनुमत औषध उर दाने ॥ 

परेउ मुरुछि कहत रे भाई । मही माहि कादर के नाईं ॥ 
तुम बिक्रमी तुम मह बलबाना । नहि को बीर तुहरे समाना ॥ 

जो मैं जतनबंत जनिकाला । अहउँ बम्हचर के परिपाला ॥ 
त सत्रुहन उठि बैठु छन माही । न तरु ब्रम्ह चरनिहि मैं नाही ॥ 

देइ पलक पट डीठ दुआरे । जिअत सत्रुहन ए  बचन उचारे ॥ 

सिउ कहँ संकर कहँ संभु, गयऊ कहँ रन छाँड़ि । 
 कहत अस रिस दहत नयन लपट बदन पर बाढ़ि ॥ 

संग्राम सूर बीर बहुतेरे । पिनाका धारिहि मारि निबेरे ॥ 
महत्मन मह बीर हनुमंता । जतनत सबन्हि किए जीवंता ॥ 

तब सब गातबरन सजोहीं ।  साजत निज निज रथ अबरोहीँ ॥ 
रोष पूरनित हरिदे संगे । करेउ धुनि घन सब रन रंगे ॥ 

बजे भेरि पुनि धनबन भेदी । चले रिपुपुर चढ़े रन बेदी ॥ 
बीरमनि सन सुभटन्हि घेरे । चले आपहिं अबहिं के फेरे ॥ 

भिरन जैसेउ सम्मुख होंही । देखि ताहि सत्रुहन अति कोहीं ॥ 
तापर दहना अस्त्र चलाईं । तासों सकल कटक दवनाईं ॥ 

अरि अरि दवारि समतूल दहत धुरोपर छाए । 

लपट चहुँ दिसि चपेटन्हि प्रचंड रूप धराए ॥  

शनिवार, १२ दिसंबर, २०१५                                                                        

देखि महायुध के दहनाई । सीवा पार कोप किए राई ॥ 
जार जार  ज्वाल कन जागे । प्रत्यरथ बरुनास्त्र त्यागे ॥ 

मरम भेदि प्रहार के ताईं । सीतारत अनीक अकुलाईं ॥ 
कंपत  जब आरत अति गाढ़े । सत्रुहन तापर बायब छाँड़े ॥ 

चले बेगि बहु बात कराली । बिभंजन (रथ ) घन भई बाताली ॥ 
घोराकार घटा घन काला । धाए धार जिमि बदन ब्याला ॥ 

होइ जोहि बाताल अधीना । चहुँ दिसि छतबत भई बिलीना ॥ 
जोइ सैन रहि सीत दुखारी । बीतत दुःख पुनि होइ  सुखारी ॥ 

बीर मनि निज अनीक दिखि जब पीर गहाहि  । 
निबारक रिपु संहारक पर्बतास्त्र चलाहि ॥ 

रविवार, १३ दिसंबर, २०१५                                                                                     

बाताली परिहरै न कोपा । लेइ केतु करि चहुँदिसि रोपा ॥ 
परा समुख परबत गतिरोधा । बिहनए भए पूरन प्रतिसोधा ॥ 

पसर बिनु जब चरन पयाने । त सत्रुहन बज्रास्त्र संधाने ॥ 
मारि चोट अघात किए घोरा । बिनसिहि उपरुध उपल कठोरा ॥

बहोरि सिल पट रहे न कोई । तिल तिल कर सब कन कन होईं । 
रिपुदल बीर बिदारन लागिहि । अंग अंग सुरंग में पागिहि ॥ 

रिसत रुधिरु कं सोहहिं कैसे । सुबरन संग सुभग के जैसे ॥ 
दरसि दिरिस यह बिसमय कारी । देख न हारे देखनहारी ॥ 

बहोरि होत रिसान, सीवाँ पार कोप करत । 
ब्रम्हास्त्र संधान बीर मनि कसै कोदंड ॥ 

सोमवार, १४ दिसंबर, २०१५                                                                                

ब्रम्हास्त्र बहु अचरजकारी । जहँ जा लागिहि तहँ रिपु जारीं ॥ 
सोए बीरमनि सन रन रंगा । चढ़ेउ रसना छाँड़ निषंगा ॥ 

तासों छूट चला रिपु ओरा । छुटत  टँकारिहि गुन घन घोरा ॥ 
 तब लग सत्रुहन कर सोहा । तुरत आन आयुध मन मोहा ॥ 

बिद्युत गति सम धाए प्रचंडा । बम्हास्त्र छन किए दुइ खंडा ॥ 
राउन्हि उर घन अघात करे ।मुरुछित बिकल धरनि खसि परे॥ 

कोपि  तीब्र लोचन न समायो । ओहट रथ सिउ निप पहि आयो ॥ 
सत्रुहन औचकहि तेहि औसर । चढ़ा प्रत्यंचा  कसे धनु सर ॥ 

आयउ बढ़ि त्रै लोचन आगे । करि गहन रन जुझावन लागे ॥ 
एक पख रामानुज एक संकर । भयउ बीच संग्राम भयंकर ॥ 

चलेउ सस्त्रास्त्र बिकट, आयुध बहुंत प्रकार । 
परे चमक चिङ्गारि कन सबहि दिसा उजियार ॥ 

बुध/बृहस्पति , १६/१७  दिसंबर, २०१५                                                                             

लरत भिरत त्रै लोचनसंगा । भए सत्रुधन्हि सिथिर सब अंगा ॥ 
आकुल हिअ अरु जिअ नहि जोहीं । तब हनुमत उपदेसन सोही ॥ 

सुमिरै मन ही मन गोसाईं । आरत नाद करत रे भाई ॥ 
धरे संभु रन रूप भयंकर । लेहि प्रान हाँ गहे धनुषकर ॥ 

तरस देन जिअ लेन उतारू । पाहि पाहि प्रभु पाहि हमारू ॥ 
राम राम जो राम पुकारे । भए भव पारग सो दुखियारे ॥ 

कहि गए साधक सिद्ध सुजाना । दीन दयाकर कृपानिधना ॥ 
मिटे दोष सब मोर हिया के । दुराइहौ दुःख एहु दुखिया के ॥ 

सत्रुहन निगदित ए गदन जोहीं । प्रगसिहिं सम्मुख रघुबर तोहीं ॥ 

कुण्डलाय सिरो कुंतलम् । लसितम्  ललित ललाटूलम् ॥
नयनाभिराम नलीन सम । श्रीराम श्याम सुन्दरम् ॥

परम धाम ज्योतिः परो । सर्वार्थ सर्वेश्वरम् ॥

सर्वकाम्योनंत लील:। प्रद्युम्नो जगद्मोहनम् ॥

कंदर्प कोटि लावण्यम । तीर्थ कोटि समाह्वयं ॥

शम्भुकोटि महेश्वराय । कोटीन्दु जगदानन्दम् ॥

सर्वदेवैकदेवता : । जगन्नाथो जगदपिता: ॥

श्री नित्य श्री : निकेतनम् । नित्यवक्ष स्थलस्थ श्रीधरं ॥

हृषिकेशाय हंसो क्षरो । पीयुषोत्पत्ति कारणम् ॥ 

स्मृतसर्वाघनाशन: । तीर्थमयी जनार्दन: ॥ 

श्रीरामो भद्र शास्वता । विश्वामित्रप्रियो दांता ॥ 
खरध्वंसी कौशलेय : । जामदग्न्य दर्प दलन: ॥ 

वेदांतपारात्मनम् । कामद् कोदंड खण्डनम् ॥ 
सत्यवाच्य विक्रमो व्रते । श्रीमान जानकी: पते ॥ 

दासरथि सद्गुणार्णव: । रविवंश रामो राघव: ॥ 
पित्राज्ञा त्यक्त राज्य : । कंदरार्पितैश्वर्य: ॥ 

चित्रकूटाप्त रत्नादृ: । यथेष्टामोद्यास्त्र: ॥  
पीताम्बरी धनुर्धर: । श्याम मनोहरम् शूर: ॥ 

महासार पुण्योदयो । ब्रह्मण्यो मुनिसोत्तम: ॥ 
देवेंद्रनंदनाक्षिहा ।  मारीचध्न : विराधहा ॥ 

 निर्गुणीश्वरादि देवा । ध्वस्तपाताल दानवा ॥ 
दण्डकारण्यवास कृते । ताडकांत कृते रघुपते ॥ 

वालि प्रमथन जनार्दन: ।  सुग्रीवस्थिरोराज्यप्रद:॥ 
जटायुषो ग्नि दातार: । धीरोदत्तगुणोत्तर : ॥ 

सिंहल द्वीप ध्वंशनम् । सुबद्धे सेतु :सागरम्  ॥  
द्वितीय सौमित्रि लक्ष्मण: । प्रहतेन्द्रजिता राघव : ॥ 

विराध दुषण त्रिशरो S रि: । दशग्रीव शिरो हर: हरि: ॥ 
पौलत्स्य वंश कृन्तन: । कुम्भकर्ण च रावणिध्न :॥ 

परं ज्योति: परं धाम । पराकाशो परोत्पर : ॥ 
परेशोपारो पारग: । सर्वभूतात्मक: शिवा ॥  




































  



----- ॥ टिप्पणी ९ ॥ -----

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>> जाति क्या है इस भू. पू. प्रधानमंत्री की.....?

लड़का जब "आवारा गेंद"हो जाए तो वो मोटरसाइकिल उठाए फिरता है,
और कोई प्रधानमंत्री जब "आवारा गेंद"हो जाए तो वह हवाई जहाज उठाए फिरता है.....

हत्यारा डाकू धरे डाकू पकड़े चोर । 
पकड़ो पकड़ो चोर कह चोर मचावै सोर ॥ 

राजू : - सोर नहीं बाबा श्योर श्योर,

"ये शोर वाला शोर है "
राजू : - ये श्योर है
,तेरे को ज्यास्ती आता है

नई तेरे को आता है

पंजे छक्के कहीं के

चुप बे फूल

"बैठ जाओ.....बैठ जाओ.....
हराम खोर सहिंष्णु बन.....
अच्छा तू बना दे.....
ये भी कोई तरीका है.....
ये हमारी राष्टीय माँ  है.....
अच्छा फिर दादा कौन है.....
ये ले कुर्सी.....
ये ले अंडे.....
ये ले ये ले.....

सेवक स्वामि सबहि कू, पेट भरन सो काज । 
घुप अँधेरी नगरी में अनजाने करि राज ॥  
भावार्थ : - जहां सेवक हो अथवा स्वामी सभी स्वार्थ के परायण होकर अपने पेट की चिंता में ही लगे रहते हैं वहां नीति व् नियमों के अभाव में फिर पराए का शासन हो जाता है ॥ 














----- ।। उत्तर-काण्ड ४५ ।। -----

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शनिवार २६ दिसंबर, २०१५                                                                                           
सदा रघुबर सरन महुँ रहियो । कर छबि नयन चरन रहि गहियो ॥ 
स कह सर्जन के करतारी । जग पालक जग प्रलयंकारी ॥ 

उपदेसत  पुनि सिउ भगवाना । भयउ आपहु अन्तरध्याना ॥ 
एहि बिधि तज सुर नगर निवासा । अनुचर संग चले कैलासा ॥ 

बहुि बीर मनि भंवर समाना । भगवन पदुम चरन करि ध्याना ॥ 
आपहु लेइ कटक चतुरंगा । चले महबीर सत्रुहन संगा ॥ 

राम चरित जस सिंधु अपारा ।  एहु एकु तीर तरंगित धारा ॥ 
करत जे जसगान अवगाहीं । गावहि सपेम सुनिहि सुनाहीँ ॥ 

रोग सोक बियोग संग तिन संताप न जोहिं ।  
सिअ राम पेम रस पाए के जीवन रसमय होंहि ॥ 




----- ।। उत्तर-काण्ड ४६ ।। -----

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रविवार, १७ जनवरी, २०१६                                                                                               

सुरापीत जम दूत कराला । पिआवहि तपित लौहु रसाला ॥ 
कर्म गति  कह मुनिरु बिद्वाने । सतत रूप एहि बचन बखाने ॥ 

जो बर बिद्या बरआचार । सों परिपूरित भरे हँकारा ॥ 
गुरु जनन्हि के करिहि अनादर । जाएँ गिरि छारा सो मरनि पर ॥ 

बहिर भूत निज धर्म समाजा । करहिहि तासु बिपरीत काजा ॥ 
दुखारत जहाँ पीर अपारा । जाएँ पतत सो नरक दुआरा ॥ 

जो उद्बेजक बचनन ताईं । पीठ फिरे लगि कारन बुराई ॥ 
दंद सूक मुख बल गिरि जाईं । दंद सूक तें जाएँ डसाईं ॥ 

पापिहि हुँत अनेक नरक, एहि बिधि भूप सुजान । 
भुगतिहि बहुतक जातना पतत तहाँ गिरि  आन ॥   

राम सरस घन कथा सुबारी । आस पिआस मनोमल हारी 
कामकोह मद मोह नसावनि । हरिदै ते संताप मिटावनि ॥ 

जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । तेहि कर पर उपकार न होए  ॥ 
निपटत सकल नरक बधि पाँती । भुगतिहि तहँ दुःख सो सब भाँती ॥ 

जिन्हनि अतिकर सुख इहि लोका । दुःख न बियोग न रोग न सोका ॥ 
सुराग ताहि हुँत यह संसारा । न तरु परिहि सब नरक अगारा ॥ 

दान धरम सात कर्महि लागे । रघुबर पदुम चरन अनुरागे ॥ 
तपोधन तें तीर्थाटन तें । जाइहि सब दुःख परिताप  नसें ॥ 

पाप पंक लपटाइआ ता हुँत एकै उपाए । 
हरि कीरत कल कूलिनी अवगाहत पखराए ॥ 

मंगलवार, १९ जनवरी, २०१६                                                                                 

तासु अबरु एही बिषयन माही । कोउ बिचार करिअ चहि नाही ॥ 
के भगवन के मान बिभंगा । ताहि बिमल करि सकै न गंगा ॥ 

पबित ते पबित तीरथ कोई । करिअ अमल सो बल नहि जोईं ॥ 
रामहि नाम ग्राम गन सीला । राम कीरत राम कर लीला ॥ 

 बदन नयन बिनु दरस समाना । इंद्रिअग्राम गहइ न ग्याना ॥ 
हाँसत तासु चरित परहेले । कलप लग नरक निबुक न मेले ॥ 

संकट परि तव हय हे नाहू । परिहरन हंट अजहुँ तुअ जाहू ॥ 
कहत सुनत रघुपत गुन गाना । सेबक सहित करिहौ बखाना ॥ 

धार रूप बहिहि सुर धुनि जब श्रुति रंधन माहि । 
चलन फिरन के गयउ बल ता संगत बहुराहि ॥ 

शौनक मुनि अस बचन बखानी । सुनी सत्रुहन परम सुख मानी ॥ 
करिहि प्रदछिन चरन सिरु नाईं । खत सेष पुनि आयसु पाईं ॥ 

सेबक सहित चले तहँ संगा । संगहि ताहि चली चतुरंगा ॥ 
अचिरम अचर तुरग पहि आईं । पवन तनय हरि चरित सुनाईं ॥ 

रामकथा ग्यान गुन रासी । बड़ ते बड़ दुर्दसा बिनासी ॥ 
कहहिं संत मुनि श्रुति अस गावा । मिटिहि तमस प्रभु तेज प्रभावा ॥ 

कीर्तन करत  करत बिहाना । कहत देव हे कहि हनुमाना ॥ 
आम गन कीर्तन पुन संगा । होहु बियद गत जान बिभंगा ॥ 

बिहरत निज बिहार देस बाँधे बंध न कोए । 
एहि अधमतस जोनि संग तुहरे निबहन होए ॥ 

बृहस्पतिवार, २१ जनवरी, २०१६                                                                           

कहा सो देव श्रुत एहि निगदन । हरि चरित श्रुत भया  मैं पावन ॥ 
बिधि निषेध कथा यह नीकी । सीता पति की रघुबर जी की ॥ 
बिधि निषेध = क्या करें की न करें 

अजहुँ मोहि निज लोक पयावन । सानंद आयसु देउ महमन ॥ 
ब्रम्ह देव अस बचन बखाना  । चले सुरग पुनि पौढ़ बिमाना ॥ 

दरस दिरिस यह कौतुककारी । सत्रुहन मन भए अचरजु भारी ॥ 
सेवकहू  बहु बिसमय करिहीं । देव केर श्राप जस हरिहीं ॥ 

भए जड़ता ते मुकुत तुरंगा । प्रमुदित उपबन भरे बिहंगा ॥ 
होत बिहागन संग बिहागा । आतुर चहुँ पुर बिहरन लागा ॥ 

कहैं सेष भगवान पुनि मन यह भारत देस । 
चहुँ पास जहँ  एक ते एक अहँ भरपूर नरेस ॥ 

एहि बिधि भमरत चहुँ दिसि ताहीं । बिहरत सत दिनमल बिरताहीँ  ॥ 
आगत हिमगिरि संकासे । भमरिहि बहुलक देस सुपासे ॥ 

अंग देस हो कि चाहे बंगा । नृप परिपूरित देस कलिंगा ॥ 

तहाँ केरे सबहि भूपत गन । भली प्रकार किए तुरग स्तवन ॥ 

बहुरि तहँ सो चरन अगुसारे । अगत्य सुरथ  नगर पैसारे ॥ 
अदितिहि कुण्डलु निपतित होंही । भए जग बिदित नगरि ता सोही ॥ 

बन उपबन गिरिगन भरपूरी । सकल पुरीं जहँ तहँ फर फूरी ॥ 
भवन भवन बहु बरन बनाईं । बसे बसति सब भाँति सुहाईं ॥ 

पुरजन पबित पुनीत पुरंजन । करिहि न कबहुक धरमु उलंघन ॥ 
निसदिन तहाँ बहु पेम सहिता ।  सुमरित गाँवहि नित हरि चरिता ॥ 

पूजत असवत्थ तुलसी जन जन निजहि निवास । 
पाप दूरावत सबहि रहि भगवन के दास ॥ 

शनिवार, २३ जनवरी, २०१६                                                                                             

 कंचन मनी लस  कलस कँगूरा । भीत बहिर रचि पचि अति रूरा ॥ 
मंदिर मंदिर तहँ श्री साथा । सोहित रहि राजित जगनाथा ॥ 

जनमानस चेतस बहु सुचिता । बंच बिहीन छलु कपटु रहिता ॥ 
पूजिहिं जब प्रतिदिन तहँ जाईं । कूजिहिं खंकन संख पुराईं ॥ 

रसन रसन करि कंठन घाला  । राम नाम के आखर माला ॥ 
करिहि परस्पर बैर न कोई । सबहि बिपुल सुख सम्पद जोईं ॥ 

तसु हृदय हरि नाम ध्याने। कबहुँ करम फल सुरति न आने ॥ 
पावन पबित सबहि बपुधारिहि । राम कथा कथ  मनहि बिहारिहि ॥ 

जीवन जोग जुग जीउती दुरब्यसनी न होइ  । 
सबहि सदाचरनी रही द्यूति कार न कोइ ॥ 

धर्मात्मन् सदा सत भाषी । तहँ महबली नृप सुरथ बासिहि ॥ 
छबि भगवन मन दर्पन जिनके । कहँ लग बरनउँ महिमन तिनके ॥ 

पेम मगन सुनि प्रभु गुन गाथा । रहहि सदा अनंद के साथा ॥ 
तासु सकल गुन भुइँ बिस्तारिहि ।जन जान के पातक निस्तारिहि ॥ 

एक समउ पुनि कछु राज अनुचर ।रहहि बिहरत भँवरत सो नगर ॥ 
चन्दन चर्चित अस्व बिसेखे । नगर भीत पुनि आगत देखे ॥ 

नियरावत जनि यहु मन मोही । रघुबर तईं त्याजित होंही ॥ 
गयउ फ़िरट लए एही जनाईं । हर्षित राज सभा चलि आईं ॥ 

सभोचित सभासद बीच राजत रहीं नरेस । 
उतकंठित मन भाव सों अनुचर देइँ सँदेस ॥ 

सोमवार, २५ जनवरी, २०१६                                                                                   

साईं अवध नगर गोसाईं । दसरथ नंदन श्री रघुराईं ॥ 
तासु मेधीअ तुरग त्याजिहि  । भमरत चहुँ पुर इहाँ बिराजिहि । 

सुबरन पतिया सीस बँधावा । अनुचर सहित नगरु नियरावा ॥ 
धौल बरन बहु भूषन साजा । मनोहारि मनि रतन समाजा ॥ 

पीठ पर्यान बसन सुरंगा ।  गंध सार चर्चित सब अंगा ॥ 
बरनातीत मनोहर ताईं  । गहौं महानुभाव तिन जाईं ॥ 

सुरथ बहुरि एहि बचन उचारे । धन्य भाग भए आजु हमारे ॥ 
जग कर जुग जिन सादर बंदा । दरसिहि सो प्रभो मुख चंदा ॥ 

कोटिन समर सूर तैं घेरे । आए इहाँ भमरत चहुँ फेरे ॥ 

बँधहि रसना गहि अवसिहि बीर अजहुँ मम सोहि  । 
छाड़िहउँ ताहिं तबहि जब रघुबर दरसन होंहि ॥ 

मंगलवार, २६ जनवरी, २०१६                                                                                  

चिंतन रत जेहि चिरकाल सों । करिहि कृपा मो पर कृपालु सो ॥ 
मोर नयन जिनके पथ जोंइहिं  । तिनके अब सुभ आगम होइहिं ॥ 

कहत सेष अस बोलि बिहाने । भूपत अनुचर आयसु दाने ॥ 
कहैं अबिलम बेगि करजाहू  । तुरग बरियात धरि गहि लाहू ॥ 

होइ सौमुख संभरत केहू । केहि बिधि तेहिं छाँड़ न देहू ॥ 
मम मानस भरोसा ए होही । लहि लाह बड़ कहउँ मैं तोहीं ॥ 

जेहि सुलभ डीसी सकें न कोई । बिधि सुरपहु सो दुर्लभ होईं ॥ 
तेहि रघुनाथ के पद पंकज । होइहिं दरसित सुलभ बहु सहज ॥ 

धन्य सो स्वजन सुत बन्धुजन धन्य सो बाहन बाहना । 
जासु सरल सुलभ संभावन भए रघुबीर के लाहना ॥ 
मनोगति नुहार बेगि हिरनै पतिया सीस सँवार चले ।
बाँध्यौ बाँधनी पौरि तेहि मंजुल जो मनियार चले ॥ 

महराउ कहत बचन पुनि दूत द्रुत तहँ जाइँ । 
सभागत सादर अरपिहि बाँध गहि कर ल्याइँ ॥  

कहैं सतत पुनि मुनिबर ताईं । सुनिहौं अजहुँ बहुंत लय लाईं ॥ 
 सुरथ  राज अस मनुष न कोई । पर दार अपबाद रत होईं ॥ 

पर धन सम्पद दीठ धरावा । अस लम्पट तहँ कोउ  न पावा ॥ 
जीह जीह रघुबर जस गाईं । अरु को अनुचित बात न आईं ॥ 

एकु नारि ब्रति नर सब कोई । मन बच क्रम पति हितकर होईं ॥ 
करी अनहित धरि झूठ कलंका । बयरु अकारन बिरथा संका ॥ 

चलिहि बेद बिरुद्ध पथ माही । अस मानस को एकहू नाही ॥  
कृत काज कर राज के सैनी । निसदिन रघुनन्दन मुख बैनी ॥ 

तहाँ  न कोउ पापाधम सबहि धर्मानुसार । 
सुरथ देस केहि मन मति नहि को पाप बिचार ॥  


  


 





  



  






----- ।। उत्तर-काण्ड ४७ ।। -----

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मंगलवार, ०२ फरवरी, २०१६                                                                                    
सेंचि अविरल कर्म जल हारी । निस दिन केतु माल कर धारी ॥ 
रितु बिनु पल्ल्वहिं न नव पाता । करिहु निरंतर भरमनि बाता ॥ 

अजहुँ भई बहु करम बड़ाईं । मम पुर सों तुर निकसौ जाईं ॥ 
सुरपति बिरचि केर करि बचना । बोधिहु मोहि कुटिल कर रचना ॥ 

रगुनन्दन चरन सेउकाई । सो जन कबहु गहि न अधमाई ॥ 
भगत सिरोमनि ध्रुव प्रह्लादा । दखु बिभीषन बिनहि प्रमादा ॥ 

राम भगत अरु  अबरु जग माहि  । होइँ पद पतित कबहु सो नाहि ॥ 
जोइ  दुषठ निंदहि रघु राजू । करिहि छाए छल और न काजू ॥ 

बाँध पास तिन्हनि जमदूता । लोहित मुद्गल हतिहि बहूँता ॥ 
तुम ब्रम्हन तुम रघुबर सेबी । मैं दंड तोहि सकहुँ न देबी ॥ 

जाहु जाहु चलि जाहु तुम मोरे सौमुख सोहि । 
न ताऊ तुम्हरे प्रति कोउ मो सम बुरा न होहि ॥ 

सुरथ कहेउ बचन के साथा । तासु अनुचर गहे मुनि हाथा ॥ 
भए उद्यत देवन निकसावा । तब जग बंदित रूप दिखावा ॥ 

परिहारत पुनि सकल ब्याजा । बोले मधुर बचन जम राजा ॥ 
राम भगत नहि तुम सम कोई । मोरे मन प्रसन्न चित होईं ॥ 

देखि अबिचल भगति तुम्हारी । तुम तें अगम न कछु संसारी ॥ 
मागउ जो तव मन अभिलाषा । बनाए बहुंत अनर्गल भाषा ॥ 

तोहि प्रलोभन के प्रत्यासा । तोर  बचन झूठहि उपहासा ॥ 
कूट कपट मुनि भेस बनाईं । सुब्रत किआ मैं बहुँत उपाईं ॥ 

तथापि रघुपति प्रति तोरि सेवा भई न भंग । 
अरु किन होए करिहहु तुम साधु सील सत्संग ॥ 



----- ।। उत्तर-काण्ड ४८ ।। -----

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बोले सुमति बचन ए हितप्रद । सस्त्रास्त्र विद जुद्ध बिसारद ॥ 
महाराज यहँ सब बिधि केरे । पुष्कलादि रन बीर घनेरे ॥ 

होत उपनत अधिकाधिकाई । लएँ लोहा रिपु संगत जाईं ॥ 
बायुनन्दन बीर हनुमाना । अहहि सूरता सन धनवाना ॥ 

 देहि बिसाल बजर सब अंगा । एतएव जाएँ भिरे नृप संगा ॥ 
रिपुदल गंजन  घन समुदाई । प्रबल  पवन इब करिहि पराईं ॥ 

कहत सेष महमति महमाता । एहि भाँति जनावत रहि बाता ॥ 
तबहि समर भू भूप कुमारे । धुनुरु टँकार चरन पैसारे ॥ 

पुष्कलादि बीर बलवन भूमि बिलिकत ताहि । 
निज निज रथोपर रोहित धरे धुनुरु बढ़ि आहि ॥ 

बृहस्पतिवार, २५ फरवरी, २०१६                                                                         

भिरिहि परस्पर समबल जोधा । कौतुक करत लरइ करि क्रोधा ॥ 
अस्त्र कोबिद भरत कै बेटा । करिअ गरज चम्पक तै भेंटा ॥ 

रच्छित महाबीर जी ताईं । द्वैरथ रन नीति अपनाई ॥ 
इत लख्मीनिधि जनक कुमारा । रन उछाह उर भरे अपारा ॥ 

बालसील कुस धुजा ले संगा । गरजत भिरे मोहक प्रसंगा ॥ 
बिमल रिपुंजय देइ हँकारी । दुर्बारन्हि सुबाहु पचारी ॥ 

बलमोद ते बालि सुत भिरेउ । प्रतापागरय प्रतापी तेउ ॥ 
नीलरतन लरि हरयछ संगा । सहदेउ सत्यवान प्रसंगा ।। 

महबलबंत बीर मनि राई । भूरिदेउ ऊपर चढ़ि आई ॥ 
असुताप लड़ भिरन बढ़ि आवा । उग्रासय ता संग जुझावा ॥ 

ते सबहि सूर नीति मत कर्म कुसल सब कोइ । 
आयुधि कर बिद्या संग बुद्धि बिसारद होइँ ॥ 

कूदि माझ मुनि भूमि बहोरा । करिहि द्वंद जुद्ध घन घोरा । 
मारु मारु धरु धुनि नभ छाईं । एहि बिधि बेगि सुभट सब धाईं ॥ 

हाहाकार मचइ घमसाना । निपतिहि आयुध कुलिस समाना ॥ 
बहुतक कटकु गयउ संहारी ।  परेउ जब प्रतिपख अति भारी ॥ 

पुष्कल आनत कटक सँभारे । चम्पक पुर बहु करक निहारे ॥  
जोधन पुरबल पूछ बुझाईं । कहु निज नाम जनक कर भाई ॥ 

धन्य तुम्ह तव करौं बढ़ाई । ठानिहु जो मम संग लराई ॥ 
बीरबर कुल नाउ के ताईं । यहां लराइ लरी नहि जाई ॥ 

तथापि मोर नाउ सुनि लीजो । कुल अरु बल के परचन कीजो ॥ 

बोले चम्पक ऐसेउ बिनए बचन के साथ । 

मोरे बंधु बाँधो अरु जनक जनी रघुनाथ ॥ 

अहहीं रामदास मम नामा । राम बसे जहँ तहँ मम धामा ॥ 

रघुनाथहि मोरे कुल देवा ।   प्रनमत ताहि करौं नित सेवा ॥ 

रघुकुल कीरति कीरति  मोरी  । मम बिरदाबली कछु न थोरी 

पहुमि पहुमि रन सिंधु अपारा । भगत कृपालु लगाइहि पारा ॥ 

जे हरि परिजन हिलगन कहेउँ । लौकिक दीठि परचन अब देउँ ॥ 

राजाधिराज सुरथ मम ताता । पूजनिआ बीरबती माता ॥ 

अहहीं तरु एक नाउ धर मोरा ।  ता संगत सोहित चहुँ ओरा ॥ 

बसंत रितु तरु फुरित बिकासी । तासु पुहुप जस रस कै रासी ॥ 

तथापि मधु मोहित मधुप त्याजत  तासु निकट न आवहीं । 
ताहि जोइ कहत पुकारि सोइ मनहारि नाउ मम अहहीं ॥ 
 भाल भिड़ंत कि सर संग्राम मोहि जीत सकै सो कोउ नहि । 
अजहुँ मैं दिखाउँ तोहि जे अद्भुद बिक्रम मम बाहु गहि ॥ 

बरनन केरे ब्यंजन बातन के पकवान  । 
 रसियात अघात पुष्कल कर कोदंड बितान ॥ 

शनिवार, २७ फरवरी, २०१६                                                                                   

आगत तुरई भूमि मझारी । लगे करन कोटिक सर बारी ।
गहे चाप पुनि पनच चढ़ावा । चम्पकहु बहु कोप करि धावा ॥ 

बहुरि बिदारत रिपु समुदाई । तीछ बान लख धरत चलाईं ॥ 
गाजिहि बहु बिधि धुनि करि नाना । जाहि श्रवन कादर भय माना ॥ 

इत पुष्कलहु बान बौछारें । पलक माहि सब काटि निबारे ॥ 
देखि चम्पक त भए प्रतिघाती । बाँध सीध पुष्कल कर छाँती ॥ 

संधान छाँड़ेसि सत बाना ।पुष्कल  ताहिअ तृण तुल जाना ॥ 
बन बृष्टि पुनि करिअ प्रहारा । टूक टूक करि दिए महि डारा ॥ 

निज धनु कीन्हि बलाहक सायक बिंदु अपार ।
गरजत गगन सों निपतत भए जिमि धारासार ॥ 

सोमवार, २९ फरवरी, २०१६                                                                                     

देखि बान झरि निज पुर आईं । साधु साधु कह करिहि बढ़ाईं  ॥ 
चम्पक कर सर छूटत जाहीं । कीन्हि घायल भल बिधि ताहीं ॥ 

चम्पकन्हि बीरता जब जाने । पुष्कल ब्रम्हास्त्र संधाने ॥ 
चम्पकहु कछु थोर न अहहीं । सस्त्रास्त्र बिदिया सब गहिहीं ॥ 

जानि अबरु उपाय नहि  कोई । छाँड़ेसि ब्रम्हास्त्र सोई ॥ 
दुहु अस्त्र कर तेज एक जूटे । जरि जवलमन जलन कन छूटे ॥ 

कहिहि पुरजन एकहि एक ताईं । लागिहिं प्रलयकाल नियराईं ॥ 
दोउ तेज जब भयउ एकायन । चम्पक करि देइ ताहि प्रसमन ॥ 

पुष्कल चम्पक केर यह अद्भुद कर्म लखाए ।  
ठाढ़ रहु ठाढ़ रहु कहत अनगन बान चलाए ॥ 

बुधवार, ०२ मार्च, २०१६                                                                                                 

चम्पक घात  करत परहेले । पलक प्रदल दल देइँ सँकेले ॥ 
प्रतिहति रामास्त्र परजोगे । त सर सर करिअ पनच बिजोगे ॥ 

आवत देखि बान भयकारे । काटन तिन करि रहब बिचारे ॥ 
तबहि फिरैं सो आनि सकासा । बँधि पुष्कल रन कौसल पासा ॥ 

चम्पक पुनि भुज बल दिखरायो । कासि तासु निज रथ पौढ़ायो ॥ 
भट बरूथ बँधेउ पत जाने । हार नुमान लगइँ डेराने ॥ 

मरति बार जस काल हँकारी । हाहाकार करिअ अति भारी ॥ 
सत्रुहन पहि जब गयउ पराना । देखत पूछिहिं हे हनुमाना ॥ 

मोरि पताकिनी बिजय बिलोकनी कमनिअ कोदंड धरे । 

बीर आभूषन पताका बसन संग बहु सिंगार करे ॥ 
कर कंचन दल पुनि केहि सों केहि कारन ब्याकुल भई । 
बोलि नीति पूरित बचन हनुमन तब बीर रिपुहंत तईं ॥ 

चम्पक अनि परचार पुष्कल बाँधि लेइ गयउ । 
निज दल हार बिचार सब कंचन कल कल करिहिं ॥ 

सुनि अस बचन जरिअ करि क्रोधा । रिपुहं बोलि लेउ प्रतिसोधा । 
यह हनुमान तुम अतुरै जाहू । भरत कुँअर तुर लाइ छंड़ाहू ॥ 

साधु कहत बिनु पलक गवाईं । मोचन हेतु चले कपि राई ॥ 
कुँअरु बिमोचन आगत देखा । चम्पक मन भए कोपु बिसेखा ॥ 

सतक सहस छाँड़े सर लच्छा । चलेउ नभ निभ सरप सपच्छा ॥ 
गहे गगन कर ताल पसारे । खंड खंड करि छन महि डारे ॥ 

बहुरि लमनाइ करिअ बिसाला । मारि देइ कर गहि एकु साला ॥ 
चम्पक रहि बलवंत न थोड़े । महाबीर हनुमन के छोड़े ॥ 

काटि साल करि टूक टूक तिल प्रवान तुल जान । 

गहेउ  पुनि बहुंतक सिल खंड छेप लगे हनुमान ॥  

शुकवार, ०४ मार्च २०१६                                                                                              

ताहि सबन्हि धूरि करि डारा । हनुमन उर भए कोप अपारा ॥ 
एहि बलबीर बिक्रमि बहुताई । ए सोच करत तासु पहिं आईं ॥ 

रजबल रासि कासि गहि हाथा । लिए उड़ि गयउ गगन निज साथा ॥ 
चम्पकहु ठाढ़ ताहि प्रसंगा । लगेजुझन तहहीं ता संगा ॥ 

हनुमन करन लगै मल क्रीड़ा । किए चोटिल चम्पक दए पीड़ा ॥ 
 ता सम्मुख पुनि बल दिखरावा । हाँसत कासत गहि एकु पाँवा ॥ 

सटक बार नभ फेरि फिरायो । देइ पटकि गज कुण्ड गिरायो ॥ 
धरा सयत मुख मुरुछा छाई । तासु कटकु दल तब अकुलाई ॥ 

तेहि समउ  हाहाकार करहि घोर चिक्कार । 
धावत छतवत गयउ जस गिरिहैं कतहुँ पहार ॥ 

देखि सुरथ हत सुत महि पारा । स्रबत देहि रुधिर की धारा ॥ 
चढ़ि रथ गयो हनूमन पाहीं । कहत ए बचन सराइहिं ताहीं ॥ 

अहहउ धन्य तुम्ह हनुमाना । तुहरे बिक्रम न जाइ बखाना ॥ 
तीन तैं रुधिरासन पुरि जारे । रामचन्द्र के काज सँवारे ॥ 

ताहि सँगत कछु न सँदेहा । तुम बत्सल हरि परम स्नेहा ॥ 
तुहरी सेवा केरि बड़ाई । केहि भाँति सो कहि नहि जाई ॥

मम सुत जस महि दियो गिराईं । सूरपन हुँत कहौं का भाई ॥ 
मारिहु अस भट केतनि केता । कपिबर अब तुम होउ सचेता ॥ 

एहि समउ बाँध निज नगर लै जैहौं में तोहि । 
जो कहा सो सत्य कहा, यहु मोरे प्रन होहि ॥   










































-----॥ हे राम ! ॥ -----

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>> तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही ॥ 
तपस्वी धनवंत हो गए हैं बहुंत धन लगाकर कुटिया बनाते व् उसको सजाते हैं । हे तात ! कलयुग की लीला कुछ कहि नहीं जाती ॥

>> द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन । को नहीं मान निगम अनुसासन ॥ 
द्विज वेदों का व्यापार करने लगे हैं  राजा सी प्रजा को खाने दौड़ते हैं कहते हैं हम व्यापारी हैं क्या !

जाकें नख अरु जटा बिसाला । सोई तापस पसिद्ध कलिकाला ॥ 
। जिसके लम्बे लम्बे नाख़ून व् विशाल जटाएं हैं कलियुग में वही साधु संन्यासी है ॥

धनवंत कुलीन मलीन अपी । द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी ॥ 
धन से ही लोग मलीन व् कुलीन माने जाते हैं । ब्राम्हणों का चिन्ह जनेऊ मात्र रह गया । नंगे रहना तपस्वी का ।  
मातु पिता बालकिन्ह बुलावहि । उदर भरे सोई धरम सिखावहिं ॥ 
माता-पिता बालकों को वही धरम सिखाते हैं जिससे पेट भरे


----- ॥ गोस्वामी तुलसी दास ॥ -----




----- ।। उत्तर-काण्ड ४९ ।। -----

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फरकिहि लोचन कोप उर छाए । चढ़े रथ तुरत सुरथ पहि आए ॥ 
कहि तुम्ह बर बिक्रम दिखराहू । पवन तनय गहि लियो बँधाहू ॥ 

मोर सुभट गिराए कहँ जइहउ । तेजस तीर अजहुँ उर खइहउ ॥ 
सुनी अस बीरोचित सम्भाषन । चिंतत हरिपद नृपु मन ही मन ॥ 


कहि तुहरे दल सकल प्रधाना । पुष्कल कि महबीर हनुमाना ॥ 
घाउ बजा बहु धरनि गिरायउँ । अब  तुम्हरे सोंह मैं आयउँ ॥ 

 सुमिरन रत रघुपत  पथ जोहू । जो इहँ आगत रखीहि तोहू ॥ 
न तरु जुझत मम पौरुष सोही । तुहरे जीवन जतन न होंही ॥ 

अस कह घात घायल किए, चले सहस सर जूथ । 
कासि सरासन रिपुहनहु, निरखत तेहि बरूथ ॥ 


----- ।। उत्तर-काण्ड ५० ।। -----

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लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटे साख को द्रुमदल जैसे ॥ 
 कांत मुख भए मंद मलीना । जस को बालक केलि बिहीना ॥ 
( ऐसा कहते )परकटी सेना कैसे प्रतीत हुई  जैसे वह कटी हुई शाखा वाले वृक्ष का समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥ 

त्राहि कहत कहरत कटकाई । बल न अरु बली भेस बनाई  ॥ 
रिपुहन हरिदै दहए अतीवा । कुठार पन के रहे न सींवाँ ॥

सुनि पुनि  बालक हरिहि तुरंगा । ज्वाल नयन जरइ सब अंगा ॥ 
कहत धरनि धर सुनु हे मुनि बर ।  भंग भुजा केरे दरसन कर ॥ 

नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥ 
सकल कटक अस थर थर काँपिहि । भूमि कम्प जस भवन ब्यापिहि  ॥  
इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु की अवस्था में देख कर । शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥ 


पीसत दंत गरजत हँकारे । पचार लवन्हि बदन पसारे ॥  

दिए रदन गन अधर दल चीन्हि । कोपु बिबस चिन्हारी दीन्हि  ॥ 

बहु रिसिहाईं  पूछ बुझाईं  दरस कटक बाहु कटे । 
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥ 
कहत पुनि सोइ  बाल बलबन्हि रच्छिहैं किन देवहीं । 
गह बल केते बाँच न पाइँहि जो मोरे हस्त गहीं  ॥ 
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर बहुंत ही रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए फिर शत्रुधन ने कहा वह बलवान चाहे देवताओं ही रक्षित क्यों न हो उसने कितना ही बल ग्रहण क्यों न किया हो पर मेरे हाथ से नहीं बच पाएगा ॥ 

सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद । 
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।। 
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥ 

शुक्रवार, ०८ अप्रेल , २०१६                                                                                 
सुनि एकु बालक हरिहि तुरंगा । छोभअगन किए नयन सुरंगा ॥ 
बोलि बिमूढ़  हठि बालक एहू । करन चहसि सठ जमपुर गेहू ॥ 

तब रिपुहन बिहरत निज आपा । कसेउ ताल कठिन कर चापा ॥ 
दहन तपन हरिदै न  समाहू । संग्राम हेतु होत उछाहू ॥ 

सेनाधिप काल जित बुलायो । नीति बनाउन आयसु दायो ॥
 कहि दलपति अग्या यह मोरे । सब रन साजु सँजोइल जोरें ॥ 

रचिहु अदम दुर्भेद ब्यूहा । जुगावत सबहि जेय समूहा ॥ 
अहहैं रिपु एकु बीर जयंता । बिपुल तेज बल अति बुधवन्ता ॥ 

हमरे तुरग हरिहि जो कोई । सो बालक सधारन न होई ॥ 
एहि अवसर सुनु करन चढ़ाई । चौरंगीनि लेउ बनाई ॥ 

द्युतिसमन दरपन सहुँ दै आसन सकल प्रसाधन निहार के । 
सब साज सुसाजित करिहु समाजित चातुरंग सिँगार के ॥ 
राम प्रतिरूप रूप न थोड़े सो बीरबर सुकुमार के ।  
सुनु लागत लगन समर सदन पुनि करिहु सम्मुख सँभार के ॥ 

द्योतिसमन दरपन सहुँ चातुरंग सम्भार । 
समर साज प्रसाधन सों करि सुठि सब सिंगार ॥ 

अरिहन अग्या सेन पत सकलत अदम समूह । 
सब रन साज सजाइ  के रचिहि अभेद ब्यूह ॥ 

आनि लेइ रिपुहन समुहाई । निरखत सजी धजी कटकाई ॥ 
हरनहार जहँ बालक पायो । तहाँ पयावन कहि समझायो ॥ 

इत चतुरंगिनि आगिन बाढ़िहि । पंथ जुहारत लव उत ठाढ़िहि ॥ 
दरसत बालक रूप अनूपा । कहि दलपत अह  राम सरूपा ॥ 

कहत कुँअरु हे पलक न पारे । परिहरु देउ तुरंग हमारे॥ 
अवध पति जिन्ह के गोसाईं । तिन्हके  बिकम बरनि न जाई ॥ 

गहेउ तपसि राम सम चेले । ताहि सरूप रूप तव मेले ॥ 
दरस तोहि मैं भयउँ दयालू  । कारन तव छबि सोंह कृपालू ॥ 

जिअ बिसुरत निज सुध बुध भूला । होइ चहु तुम्ह तूलमतूला ॥ 
अब लग जग जिअ हारि न काहू । तासु हृदय तुम जीतन चाहू ॥ 

सुनहु हे बीरबर कुँअर मानिहु बात न मोरि । 
रोपिहु हठ एहि अवसर त होहि राख कस तोरि ॥ 

शनिवार, ०९ अप्रेल, २०१६                                                                                      

लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि  बाहा ।  
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु ।  निज जीवन  बिरथा बिनसानिहु ॥ 

मैं बहु बिरधा तूम  एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥ 
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥ 

मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥ 
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥ 

हृदय तरंग माल उमगाईं । एकु  तरि आईं एकु तरि जाईं ॥ 
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥ 

जे तुम मानिहु हार, मैं तुरग परिहर करिहउँ । 
कहिहु ए समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥ 
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और  श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥ 

लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि  बाहा ।  
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु ।  निज जीवन  बिरथा बिनसानिहु ॥ 

मैं बहु बिरधा तूम  एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥ 
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥ 

मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥ 
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥ 

एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥
नाउ धर केहि नाउ न होही । होत कीरत करनि कृत सोई ॥ 

कहत चकित तब काल जित जनमिहु तुम कुल केहि । 
कहौ बिदित सो नाउ निज तोहि पुकारसि जेहि ॥ 

रविवार, १० अप्रेल, २०१६                                                                                          

सीस जटा जुट बिबरन चाहीं  । करिहहु रन धुनि मुनि तुम नाही ॥ 
तन जति बसन बिचरहु बन एही । बसिहउ गाँव नगर कहु केही ॥ 

कहहु बीर तव नृप को होंही । तुहरी दसा जनाउ न मोही ॥ 
राज लच्छन सब अंग सुहाए । में रथि अरु तुम  पयादहि पाएँ ॥  

तुमहि कहौ दुर्दम में ऐसे । अधर्मतस तोहि जितौं कैसे ॥ 
कहत सियसुत नगर कुल नाउ । कहौ तो लेन दसा ते काउ ॥ 


सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥ 
हमहु अधीन न अंगीकारी  । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥ 
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु पराधीनता स्वपन में भी सुख नहीं देती लव ने  फिर यह उद्दीप्त होकर कहा  हमें अधीनता  स्वीकार्य नहीं है ॥ 

में लव अहिहउँ अरु लव माही । जितिहउँ समर बीर सब काहीं ॥ 
सकुचउ न मोहि जान पयादहि । बिनहि रथि करि देउँ में तुम्हहि ॥ 
में लव हूँ और लव का अर्थ  निमेष होता है में निमेष मात्र में ही सभी शूर वीरों  को जीत लूँगा । तुम मुझे प्यादा जानकर संकोच न करो लो मैं तुम्हें भी प्यादे में परिणित कर देता हूँ  ॥ 

असि बत कहि कह सो बलवाना । चढ़ा पनच कोदण्ड बिताना ॥ 
प्रथम जनि पुनि सुरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥ 
सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि  का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥ 
लगे बरखावन घन घन बान बिकट बिकराल । 
रिपुगन के जो काल बन प्रान लेइ तत्काल ॥ 


बिकट बिसिख गन बरखन लागे । घानत घन रिपु जीउ  त्यागें ॥ 
 करत कालजित कोप प्रचंडा । गहेउ तमक कठिन कोदंडा ॥ 

निरखत नभ गच पनच चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥ 
छूटत सरगन गगन घन छाए । लगे जो जिय सो जीव न पाए ॥ 

लपकत ताहिं बीर बरबंडा । किए एक एक के सत सत  खंडा । 
अष्टबान पुनि प्रतिहत मारे । निपत नीच दलपत भू पारे ।। 

चढ़े घात भए रथहु बिभंगा । दुहु पयादिक भयउ ता संगा ॥ 
तुरत तमीचर  करि लय आईं  । सपत धार मददान रिसाईं ॥ 

चढ़ बैठें पति छन ताऊपर ।  रन दुर्मद चलिअ अति बेगिकर॥ 
गजारूढ़  भूआलहिं देखा ।  रिपु जयंत सो बीर बिसेखा ॥ 

मारि बिहस कुल बान दस तमक तकत दल राय । 
झपटि भीतत बिंध दियो हरिदै भवन समाए ॥ 








सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥ 
हमहु अधीन न अंगीकारी  । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥ 
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु लव ने ऐसा कहते हुवे  फटकारते हुवे चिंघाड़ कर कहा कि  पराधीनता स्वप्न में भी सुख नहीं देती ( तुम तो प्रकट स्वरुप ) हमें अधीनता  स्वीकार्य नहीं है ॥ 

संग्राम सूर लव बलबाने । गहत धनुर सर गुन संधाने । 
प्रथम जनि पुनि सूरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥ 
फिर संग्राम में ऐसी वीरता प्रकट करने वाले बलवान लव ने धनुष धारण कर उसकी प्रत्यंचा में बाण चढ़ाया और सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि  का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥ 

लगे छाँड़ेसि तेज तेजनक । कोटि क्रमबर करुख मुख सृंगक ॥ 
काल घटा सम सर छाए गगन । करएँ छनिक मह जो जीवन हन ॥ 
और फिर क्रमबद्ध स्वरुप में सिंग के समान तीक्षण नोक वाले दिव्य वाणों का प्रहार करना प्राम्भ कर दिया ॥ 
वे बाण जो तत्काल शत्रु के प्राण हरने वाले थे, वे काली घटा के सदृश्य आकाश  में व्याप्त हो गए ॥ 

तमकि ताकि तिन धारिहि पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥ 
दरसत नभ गुन चाप चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥ 
उन्हें देख कर सेना पति कालजित बहुंत कुपित हुवे  और क्रोध में ही अपने अधरों को भींचते हुवे उनकी आँखों में अरुणाई लिये  गगन की ओर  देखते हुवे अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई  और अपने रन कौशलता का परिचय देते हुवे : -- 

कास करन लग बान प्रहारे । किए तिन तिन खन काट बिँधारे ।। 
पुनि छन गगन गुन चढ़ि चढ़ि धाए । बेगि लव के उर मुख पर आए ॥ 
फिर कान तक खिंच के बाणों का प्रहार करते हुवे लव के दिव्य बाणों को तिन तीन खण्डों में काट के सुधार दिए ॥ फिर प्रत्यंचा पर चढ़ कर बाण गगन में दौड़ने लगे और तीव्रता पूर्वक लव के ह्रदय भवन एवं मुख पर आने लगे ॥ 

आतुर लव तिन छरपन षंडे । करेसि एक एक के सत खंडे । 
बहुरि भयउ रन घमासाना । छाडेसि लउ धनुर अस बाना ॥ 
लव ने शीघ्रता पूर्वक उन बाण समूह के एक एक बाण को सौ सौ खण्डों में विभाजित कर दिया ॥ लव के धनुष से ऐसे बाण निकले कि फिर उस तपोवन में घमासान युद्ध छिड़ गया  ॥ 

अरु सिय नंदन, लव दल गंजन, कास मुठिका लस्तके । 
बानाष्टकी ,लसे लस्तकी , दलपत अरि तमक तके ॥ 
बहुरि स्यंदन कियो बिभंजन, कुठार प्रहार । 
बिचलित दलपत, छत हतचेतत, गिरयो भूमि आरते ॥  
और सीता पुत्र महावीर लव ने धनुष की मूठ को मुष्टिका कसी । धनुष पर अष्टक बाण दिखाई दे रहे थे और वह अपने शत्रु दलपति काल जित को क्रोध पूर्वक देख रहा था फिर उसनेअष्टक बाणों का तेज प्रहार करते हुवे शत्रु के रथ को छिन्न-भिन्न कर दिया ,जिससे दल पति काल जित अस्थिर होकर  घायल और व्याकुल अवस्था में घबड़ाहट के साथ रन भूमि पर गिर गया ॥ 

स्यंदन के भंजन होत, निज बाँकुर के लाए । 
कुंजर सोइ बिराज पुनि ,रन कारन उठि आए ।। 
रथ के नष्ट होते ही वह अपने सैनिकों के लाए हाथी पर विराजित होकर फिर से रण करने हेतु उठ खड़ा हुवा ॥ 














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                                      ----- ॥ सोहर ॥ -----

सखि गाओ री सोहर जी भइने सुअवसर 
कुँअर मनोहर जी सुनु अति सुन्दर दूल्हा बनइयो जी हो, 
                                                    रामा दूल्हा बनइयो जी हो..... 
करधन करधर पाटली परिकर अरु बर बर बसन बसइयो जी हो, 
                                                     रामा बसन बसइयो जी हो.....

कल किरीट कपाला कंकनि माला अरु मनिहर रतन सजइयो जी हो 
                                                     रामा रतन सजइयो जी हो.....

चारु चँवर हलरई सिरु छतर दसई के अरु हरियर तिलक लगइयो जी हो, 
                                                      रामा लगन करइयो जी हो..... 


झीनी झीनी रतिया ओरी चारू चंदनिया,
हरी भरी मनिया अरु धौरी धौरी मुतिया में मनहर पुरट पुरइयो जी हो 
                                                                रामा पुरट पुरइयो जी हो.....
सो बंदन वारी बांध दुअरिया देहर देहर रचइयो जी हो 
                                        रामा  देहर रचइयो जी हो.....

हरिया चन्देरी अहिबेलि घेरी  निज पटतर पट पहरियों जी हो 
                                         रामा पट पहरइयो जी हो..... 

ताराबरी झलहरी झालरिया जननी के भवन ओरमइयो जी हो 
                                            रामा भवन ओरमइयो जी हो.....


कोई लुटावे लकोहरनु कोई रुपइया 

बाबा भइया ओ मइया अरु बहिनी भुजइया तूम धेनु गैय्यानु लुटइयो जी हो  
                                               रामा धेनु गैय्यानु लुटइयो जी हो.....  

ढोलु हनि पावत मुख संख पुरावत ऐ री मुरलिया बधावा बजइयो जी हो 
                                              रामा मुरलिया बधावा बजइयो जी हो.....

ललना चिरंजीउ हो ललना जुंग जुग जियो कहि कहि हिय हिलगइयो जी हो 
                                                                   रामा हिय हिलगइयो जी हो..... 

चरन जुहारी जो करिहि कुँवर त गोदिया भर घोड़िया चढ़इयों जी हो,   
                                                            रामा घोड़िया चढ़इयों जी हो.....   





हरि हरि कुँअरि पौढ़इयो जी करि पनित पलन में, 
ऐ री हरताल न फेरइयो जी करि पनित पलन में, 

 बिढ़बन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो जी करि पनित पलन में..... 
      



                                         

----- ॥ गीतिका ॥ -----

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----- ॥ गीतिका ॥ -----
हरिहरि हरिअ पौढ़इयो, जो मोरे ललना को पालन में.,
अरु हरुबरि हलरइयो, जी मोरे ललना को पालन में., 

बिढ़वन मंजुल मंजि मंजीरी, 
कुञ्ज निकुंजनु जइयो, जइयो जी मधुकरी केरे बन में..... 

बल बल बौरि घवरि बल्लीरी,
सुठि सुठि सँटियाँ लगइयो लगइयो जी छरहरी रसियन में.....

 पालन में परि पटिया पटीरी, 
बल बल बेलिया बनइयो बनइयो जी मोरे ललना के पालन में..... 

दए दए उहारन ओ री अहीरी, 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी मोरे ललना के पालन में.....


हरिहरि हरिअ  = धीरे से 
हरुबरि = मंद-मंद 
बिढ़बन = संचय करने 
मंजि-मंजीरी = पुष्प गुच्छ, कोपलें पत्र इत्यादि 
मधुकरी केरे बन = भौंरो के वन में- मधुवन 
बल बल बौरि घवरि बल्लीरी =  आम के बौर से युक्त लतिकाएं । बढ़िया से गुम्फित कर 
पटिया पटीरी =चन्दन की पटनियाँ 
बल बल बेलिया = घुमावदार बेलियां 
उहारन = आच्छादन 
अहीरी = ग्वालन 

हरिहरि हरि तर अइयो कौसल्या के अजिरन में 
अजहुँ न बेर लगइयो कौसल्या के अजिरन में 

दए दए उहारन  दए दए बहीरी  , 
सुरभित गंध बसइयो बसइयो जी कौसल्या के अजिरन में.....

बहीरी = बुहारना 

----- ।। उत्तर-काण्ड ५० ।। -----

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लागि कटक दल भुज हिन् कैसे । कटे साख को द्रुमदल जैसे ॥ 
 कांत मुख भए मंद मलीना । जस को बालक केलि बिहीना ॥ 
( ऐसा कहते )परकटी सेना कैसे प्रतीत हुई  जैसे वह कटी हुई शाखा वाले वृक्ष का समूह हों ॥ और उनके कालिमा से युक्त मुरझाए हुवे मुख इस प्रकार दर्श रहे थे जैसे भुजा न हुई किसी बालक के खिलौने हो गए और वे किसी ने छीन लिए हों ॥ 

त्राहि कहत कहरत कटकाई । बल न अरु बली भेस बनाई  ॥ 
रिपुहन हरिदै दहए अतीवा । कुठार पन के रहे न सींवाँ ॥

सुनि पुनि  बालक हरिहि तुरंगा । ज्वाल नयन जरइ सब अंगा ॥ 
कहत धरनि धर सुनु हे मुनि बर ।  भंग भुजा केरे दरसन कर ॥ 

नाचत बदन अगन कन चमकहिं । अस जस धनवन दामिनि दमकहिं ॥ 
सकल कटक अस थर थर काँपिहि । भूमि कम्प जस भवन ब्यापिहि  ॥  
इस प्रकार भगवान शेष जी कहते हैं हे मुनिवर ! अपनी सेना को ऐसी भग्न बाहु की अवस्था में देख कर । शत्रुहन के मुख पर क्रोध की चंगारी ऐसे नृत्य करने लगी जैसे आकाश में चंचला नृत्य करती हो ॥ 


पीसत दंत गरजत हँकारे । पचार लवन्हि बदन पसारे ॥  

दिए रदन गन अधर दल चीन्हि । कोपु बिबस चिन्हारी दीन्हि  ॥ 

बहु रिसिहाईं  पूछ बुझाईं  दरस कटक बाहु कटे । 
कवन बीर कर काटे भुज धर ते मोर सौमुख डटे ॥ 
कहत पुनि सोइ  बाल बलबन्हि रच्छिहैं किन देवहीं । 
गह बल केते बाँच न पाइँहि जो मोरे हस्त गहीं  ॥ 
अपने सैनिकों की कटी हुई भुजाएँ देख कर बहुंत ही रोष पूर्वक प्रश्न करने लगे किस वीर के हाथों ने ये भुजाएं काटी है । वो मेरे सम्मुख तो आए फिर शत्रुधन ने कहा वह बलवान चाहे देवताओं ही रक्षित क्यों न हो उसने कितना ही बल ग्रहण क्यों न किया हो पर मेरे हाथ से नहीं बच पाएगा ॥ 

सुनि सैन सत्रुहन बचनन, किए अचरज भरि खेद । 
एक बालक श्री राम रुप, कहत बाँधि है मेद ।। 
सैनिकों ने शत्रुध्न के वचन को सुनकर आश्चर्य युक्त खेद व्यक्त कर बोले : -- एक बाल किशोर है जो श्री राम के स्वरुप ही है उसी ने उस गठीले अश्व को बांधा है ॥ 

शुक्रवार, ०८ अप्रेल , २०१६                                                                                 
सुनि एकु बालक हरिहि तुरंगा । छोभअगन किए नयन सुरंगा ॥ 
बोलि बिमूढ़  हठि बालक एहू । करन चहसि सठ जमपुर गेहू ॥ 

तब रिपुहन बिहरत निज आपा । कसेउ ताल कठिन कर चापा ॥ 
दहन तपन हरिदै न  समाहू । संग्राम हेतु होत उछाहू ॥ 

सेनाधिप काल जित बुलायो । नीति बनाउन आयसु दायो ॥
 कहि दलपति अग्या यह मोरे । सब रन साजु सँजोइल जोरें ॥ 

रचिहु अदम दुर्भेद ब्यूहा । जुगावत सबहि जेय समूहा ॥ 
अहहैं रिपु एकु बीर जयंता । बिपुल तेज बल अति बुधवन्ता ॥ 

हमरे तुरग हरिहि जो कोई । सो बालक सधारन न होई ॥ 
एहि अवसर सुनु करन चढ़ाई । चौरंगीनि लेउ बनाई ॥ 

द्युतिसमन दरपन सहुँ दै आसन सकल प्रसाधन निहार के । 
सब साज सुसाजित करिहु समाजित चातुरंग सिँगार के ॥ 
राम प्रतिरूप रूप न थोड़े सो बीरबर सुकुमार के ।  
सुनु लागत लगन समर सदन पुनि करिहु सम्मुख सँभार के ॥ 

द्योतिसमन दरपन सहुँ चातुरंग सम्भार । 
समर साज प्रसाधन सों करि सुठि सब सिंगार ॥ 

अरिहन अग्या सेन पत सकलत अदम समूह । 
सब रन साज सजाइ  के रचिहि अभेद ब्यूह ॥ 

आनि लेइ रिपुहन समुहाई । निरखत सजी धजी कटकाई ॥ 
हरनहार जहँ बालक पायो । तहाँ पयावन कहि समझायो ॥ 

इत चतुरंगिनि आगिन बाढ़िहि । पंथ जुहारत लव उत ठाढ़िहि ॥ 
दरसत बालक रूप अनूपा । कहि दलपत अह  राम सरूपा ॥ 

कहत कुँअरु हे पलक न पारे । परिहरु देउ तुरंग हमारे॥ 
अवध पति जिन्ह के गोसाईं । तिन्हके  बिकम बरनि न जाई ॥ 

गहेउ तपसि राम सम चेले । ताहि सरूप रूप तव मेले ॥ 
दरस तोहि मैं भयउँ दयालू  । कारन तव छबि सोंह कृपालू ॥ 

जिअ बिसुरत निज सुध बुध भूला । होइ चहु तुम्ह तूलमतूला ॥ 
अब लग जग जिअ हारि न काहू । तासु हृदय तुम जीतन चाहू ॥ 

सुनहु हे बीरबर कुँअर मानिहु बात न मोरि । 
रोपिहु हठ एहि अवसर त होहि राख कस तोरि ॥ 

शनिवार, ०९ अप्रेल, २०१६                                                                                      

लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि  बाहा ।  
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु ।  निज जीवन  बिरथा बिनसानिहु ॥ 

मैं बहु बिरधा तूम  एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥ 
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥ 

मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥ 
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥ 

हृदय तरंग माल उमगाईं । एकु  तरि आईं एकु तरि जाईं ॥ 
एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥ 

जे तुम मानिहु हार, मैं तुरग परिहर करिहउँ । 
कहिहु ए समाचार, राम सों भग्न दूत बन ॥ 
हे सेना पति काल जित, यदि तुम अपनी हार मान लो तो मैं इस घोड़े को छोड़ दूँगा । और  श्रीराम चन्द्र जी के सम्मुख युद्ध में हार का सन्देश देने वाले दूत बनकर सारा समाचार कहो ॥ 

लव मुख दर्पण छबि निज नाहा ॥ बिलखत अपलक बोलहि  बाहा ।  
जो तुम्ह मोर कहि नहि मानिहु ।  निज जीवन  बिरथा बिनसानिहु ॥ 

मैं बहु बिरधा तूम  एक बालक । कारन तुम पदचर में एक पालक ॥ 
सुनु हे रघुबर कर प्रतिरूपा । देउ परिहर सौंपि सो भूपा ॥ 

मोरी छबि अवधेश समाना । होइ चकित लव सुनि जब काना ॥ 
जबु दलपत कहि बत गुँजराँई। कछु हँसि हंस अधर तरियाँईं ॥ 

एक छन अधरन दिए अलगानी । बोलि गिरा पुनि मधुरस सानी ॥
नाउ धर केहि नाउ न होही । होत कीरत करनि कृत सोई ॥ 

कहत चकित तब काल जित जनमिहु तुम कुल केहि । 
कहौ बिदित सो नाउ निज तोहि पुकारसि जेहि ॥ 

रविवार, १० अप्रेल, २०१६                                                                                          

सीस जटा जुट बिबरन चाहीं  । करिहहु रन धुनि मुनि तुम नाही ॥ 
तन जति बसन बिचरहु बन एही । बसिहउ गाँव नगर कहु केही ॥ 

कहहु बीर तव नृप को होंही । तुहरी दसा जनाउ न मोही ॥ 
राज लच्छन सब अंग सुहाए । में रथि अरु तुम  पयादहि पाएँ ॥  

तुमहि कहौ दुर्दम में ऐसे । अधर्मतस तोहि जितौं कैसे ॥ 
कहत सियसुत नगर कुल नाउ । कहौ तो लेन दसा ते काउ ॥ 


सेनापति बहु कह समुझाईं । पराधीन सपनेहु सुख नाहीं ॥ 
हमहु अधीन न अंगीकारी  । कहत एहि मुख करक चिंघारी ॥ 
सेनापति कालजीत ने लव को बहुंत समझाया किन्तु पराधीनता स्वपन में भी सुख नहीं देती लव ने  फिर यह उद्दीप्त होकर कहा  हमें अधीनता  स्वीकार्य नहीं है ॥ 

में लव अहिहउँ अरु लव माही । जितिहउँ समर बीर सब काहीं ॥ 
सकुचउ न मोहि जान पयादहि । बिनहि रथि करि देउँ में तुम्हहि ॥ 
में लव हूँ और लव का अर्थ  निमेष होता है में निमेष मात्र में ही सभी शूर वीरों  को जीत लूँगा । तुम मुझे प्यादा जानकर संकोच न करो लो मैं तुम्हें भी प्यादे में परिणित कर देता हूँ  ॥ 

असि बत कहि कह सो बलवाना । चढ़ा पनच कोदण्ड बिताना ॥ 
प्रथम जनि पुनि सुरत गुरु नामा । मन ही मन कर तिन्ह प्रनामा ॥ 
सर्वप्रथम अपनी माता और फिर अपने गुरु वाल्मीकि  का नाम स्मरण करते हुवे मन ही मन उन्हें प्रणाम किया ॥ 
लगे बरखावन घन घन बान बिकट बिकराल । 
रिपुगन के जो काल बन प्रान लेइ तत्काल ॥ 


बिकट बिसिख गन बरखन लागे । घानत घन रिपु जीउ  त्यागें ॥ 
तमकि ताकि पताकिनी पाला । भींच अधर किए लोचन लाला ॥ 

 दहत बदन गह अगन प्रचंडा । करषत कसत कठिन कोदंडा ॥ 
निरखत नभ गच पनच चढ़ाईं । देत परच निज रन चतुराई ॥ 

छूटत सरगन गगन घन छाए । लगे जो जिय सो जीव न पाए ॥ 
लपकत ताहिं बीर बरबंडा । किए एक एक के सत सत  खंडा ॥ 

घमासान रन भयउ बिहाना  । छाडसि लसतकि कसि कसि बाना ॥ 
अष्टबान पुनि प्रतिहत मारे । निपत नीच दलपत भू पारे ।। 

चढ़े घात भए रथहु बिभंगा । दुहु पयादिक भयउ ता संगा ॥ 
तुरत तमीचर  करि लय आईं  । सपत धार मददान रिसाईं ॥ 

चढ़ बैठें पति छन ताऊपर ।  रन दुर्मद चलिअ अति बेगिकर॥ 
गजारूढ़  भूआलहिं देखा ।  रिपु जयंत सो बीर बिसेखा ॥ 

मारि बिहस कुल बान दस दरस दरस  दल राय । 
झपटि भीतत बिंध दियो हरिदै भवन समाए ॥ 

बृहस्पतिवार १४ अप्रेल, २०१६                                                                               

  अस बल स रन कौसल भारी । अधिपत अबरु न कतहुँ निहारीं ॥ 
बहुरि भयंकर परिघ प्रहारी । लगत तुरए जो जिअ अपहारीं ॥ 

चढ़त अगास चिक्करत धायो । चरत चपल लव काटि गिरायो ॥ 
लिए करबीर करतरी पासा ।  दुर्मद हस्ती किए बिनु नासा ॥ 

तजत सकल कल केतु समूहा । कुलत करिहि सो कुंजर कूहा ॥ 
कूदि ततछन धरिअ पद दन्ता । सीस भवन पुनि चढ़े तुरंता ॥ 

भेंट अधिपत बीर बरबंडा । मौलि मुकुट कीन्हि सत खण्डा ॥ 
गाताबरन सहस खन करिहीं । हनत मुठिका केस कर धरिहीं  ॥ 

खैंच ताहि महि देइ गिरायो । दुंदभ कोप दहन मुख छायो ॥ 
अधिपति मुख  बल निपतत भूहा ।  भेद गही निर्भेद ब्यूहा ॥ 

धारा बिष करताल गहत घात लहरात पुनि । 
भर जुग नयन ज्वाल लवनहि बधन अगुसर भए ॥ 

 चलि जल जल जोलाहल जोई । सौंट सरट कोलाहल होई ॥  
पत कर गहि कर बीर बिसेखा । लव जब नियरै आगत देखा ॥ 
और उसने ज्वाल संयोगित कृपाण धारण कर ॥ 

काटि माँझि दाहिन भुज ताहीं । खडग सहित छन गिरि महि माहीं ॥ 
देखि कर तरबारि महि पारी ।   उमगिहि कोप दहन अति भारी ॥ 

बाम भुज गरु गदाल गहावा । हतोद्यम लवनहि पुर आवा ॥ 
तीछ  तीर तैं ऐतक माही । तमकत काटि दियो लव ताहीं ॥ 

कतहुँ त मुग्दल करतल पूरा । गिरि कतहुँ कर कलित केयूरा ॥ 
धधकत धारा बिष धरंता । मुनिबर पुनि बालक बलवंता ॥ 


टूट परेउ काल के नाईं । मुकुट मंडित माथ बिलगाईं ॥ 
परे रन भुइँ बहुरि निरजूहा । भयऊ  जुगत रहित सब जूहा ॥ 

खेत होइ सेनाधिपत प्रसरित भए चहुँ ओर । 
चिक्करत बिकल करिहि सकल  कोलाहल घन घोर ॥  

मंगलवार, १७ अप्रेल २०१६                                                                                          
सकल चमुचर छोभ भरि आवा । लवनन्हि बधन चरन बढ़ावा ॥ 
होत क्रुद्ध अति  होइ अगौहाँ । सियसुत तुरत आए ता सौंहा ॥ 

रजु कसि पुनि असि मारिउ बाना । सबन्हि पाछिन देइ पराना ॥ 
चलिअ  बान  जिमि पवन अधीर । गिरहि बीर जिमी तरु नद तीरा ॥ 

लगइँ ढेरि केतक भट केरी । केतन केत चलिअ मुख फेरी ॥ 
एहि बिधि छतवत सबहिं जुझारू । अगहुँ तेउ पुनि भए पिछबारू ॥ 

भर बर लव रन भूषन भेसा । कटकु माझ बहु मुदित प्रबेसा ॥ 
चरन केहि के केहि कर बाहु । काटेउ करन नासिका काहु ॥ 

कोउ बदन भै नयन बिहीना । कोउ कवच को कुंडल हीना ॥ 
एहि बिधि सेनापति गै मारे । होइ भयंकर सैन सँहारे ॥ 

सबहि जीउ सिराए गए जिअत रहे नहि कोइ । 

चतुरंगिनि हिय जीत लव बिजै कलस कर जोइ ॥ 

एहि बिधि हतवत रिपु समुदाई । बिनु पत परवत गयउ सिराई ॥

होइ पराजय ए अनकनी  के । आए न जाईं कोउ अनीके ॥ 
परवत् = असहाय होकर 
मानस मन यह संसय जागे । लव रन पंथ जुहारन लागे ॥
रहइ सचेत नयन पथ लाईं ।   अपर अनीक करन अगवाईं ॥ 
औ फिर वह सावधान होकर पथ पर आखें लगाए और दूसरे सैनिकों के आने की बाट जोहने लगे ॥ 

सुभाग बस को को रजतंती । जोवत जीय रहे जीवंती ॥ 
पाहि पाहि कह सकल पराने । पाछु फनिस सम सायक आने ॥ 

पराबरत गत रिपुहन पाहीं । समाचार सब कहत सुनाईं ॥ 
काल सरिबर करनि एकु बाला । लहिअ काल जित मरनि अकाला ॥ 

तासु बिचित्र  रन करम बखाना । सुनि सत्रुहन बहु अचरजु माना ॥  



चितबहि चितबत  कहत तिन सोहु  ॥  भरम जाल बस  कहा तुम होहु 

कहु तो घेर घारि को माया । करहु मम सिरु कपट की छाया  ॥ 
वह स्तब्ध हुवे सैनिक से बोले कया तुम्हारी बुद्धि विभ्रमित हो गई है कहो तो छल कपट की प्रतिछाया कर इसे किसी मोह कारिणी शक्ति ने घेर लिया है ? 

बिकल त अहहि न चित्त तिहारे । काल जित अह गयउ कस मारे॥ 
सोइ मरनासन्न कस होई । जम तेहु दुर्धर्ष जो होई ॥ 

दुर्दमनिअ बल पौरुष जासू । अरु एकु बालक जीतिहि तासू  ॥ 
कहौ ताहि को जीतिहि  कैसे । जो आपही  काल कर जैसे ॥ 
वह मरणासन्न कैसे हो सकता है जो यम के द्वारा भी दुर्धर्ष हो ॥ उसे एक ही बा किशोर ने कैसे पराजित कर दिया ? जो सवमेव में ही काल स्वरुप है ॥ 

सुनिहि बीर सत्रुहन के भाषन । रक्ताम्बरी करिहि निवेदन ॥  
ना हमको को माया घेरी । ना हम किन्ही के उत्प्रेरी ।। 
शत्रुधन का ऐसा भाषण सुनकर रुधिर से सने लाल कनेर से दर्शित होते  उन वीर सैनिकों ने फिर ऐसा कहा : -- हे राजन ! न तो हमें किसी मोह कारिणी शक्ति ने ही घेरा है, और न ही हैम किसी के उत्प्रेरित ही हैं ॥ 


गहिहिं घात अघात जुधिक देह रुधिर लपटानि । 
कहिहिं  नीतिगत बचन पुनि सत्रुहन सहुँ जुग पानि ॥ 

हे राउ अहहै हम पर, तव प्रतीत की सौंह । 
जोउ दरसे जेइ नयन, कहे जोंह के तोंह ॥ 

हे राजन ! हमको तुम्हारे विश्वास की सौगंध है इन आँखों ने जो कुछ भी देखा, वह हमने यथावत कह सुनाया ॥  

बुध/ | बृहस्पति  २० / २१ अप्रेल, २०१६                                                                                     

करहिं न हम छल कपट न खेला । किया एकै सो हम पर हेला ॥ 
कालजित कर मरनि गोसाईँ । भई बीर सो बालक ताईं ॥ 

 एतक अपूरब रन कुसलाई । तासों सकल कटकु मथना ई ॥ 
 होइ जोइ अब तासु बहोरी । करहु सोइ जस मति कहि तोरी ॥ 

जिन्हनि जुझावन हुँत पठाहू । होइ चाहिब सो बली बाहू ॥ 
भट निवेदित बचन दए काना । तब रामानुज परम सुजाना ॥ 

करम नीति महुँ अति निपुनाई ।  मंत्रीबर तैं पूछ बुझाईं ॥ 
महोदय तुमहि जनाउब एही । हरिअ लियो हय बालक केही ॥ 

सरितपति सिंधु सरिस मम सकल चमूचर आहिं । 
तपन काल के ताल तुल पलक सोष बिनसाहि ॥ 


गींव भयउ गहबर के नाईं । महमन सुमति बोलि गोसाईं ॥ 
बाल्मीकि केरे आश्रमु एहि । रिषि मुनि अबरु ए निवास  न केहि ॥ 

हरनहार सुरपति त न होईं । आन तुरग हरि सके न कोई ॥ 
कै संकर भरि बालक भेसा । अरु हरनि नहि कतहुँ को देसा ॥ 

सोच बिचार मम मति अस कहहि । एहि औुसर जैहौ तहँ तुम्हहि ॥ 
लेइ संग निज सैन बिसाला । चारिहुँ पुर बल सकल भुआला ॥ 

जाए तहां अब तुम अरिहंता । बाँध  लियो छन ताहि जियन्ता ॥ 
रिपु कर करतब करत न हारे । कौतुक प्रिय रघुनाथ हमारे ॥ 

बाँध कसि ले जैहौं तहँ हार परन मैं ताहि । 
करिअ सम्मुख देखइहौं रघुबर सों सब काहि ॥ 

मेघ माल सम सप्तक घेरे । भए मोचित गए सबहिं निबेरे ॥
सरद काल कल नभ बरन बिछोही । सियसत पूरन सस सम सोंहीं ॥

गहए पीर तन बान पबारे।  नेकानेक बीर महि पारे ॥
बिहरति बिकल सकल कटकाई । हतबत बिनु पति चलिअ पराई ॥

धावत जब निज दल अबलोके ।  केही भाँति लव गयउ न रोके ॥
तब बलबन पुष्कल ता सोहें । छतज नयन करि होइ अगौहैं ॥

ठा ड़ रहउ कह बारहि बारा । नियरावत यहु कहत पचारा ॥
बर बर तुरंग संग सुसोही । देउँ पदचर बीर मैं तोही ॥

मैं रथि अरु तुम प्यादहि अहहि पाएं  बिनु त्रान । 
कहौ मैं केहि बिधि तोहि जितौं बीर बलबान ॥ 





































































----- ।। उत्तर-काण्ड ५१ ।। -----

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शुक्रवार,२२ अप्रेल, २०१६                                                                                 

प्रथम तुम रथारोहित होहू । तव सों पुनि लेहउँ में लोहू ॥ 
तुहरे दिए रथ गहत बीरबर । रन करिअन जो चढिहउँ तापर ॥ 

त लगिहिं बहुतक पातक मोही । बिजय सिद्धि मम सिद्ध न होहीं ॥ 
जद्यपि जति मुनि सम ममभेसा ।जूट जटालु जटिल कृत केसा ॥ 

तथापि छतरिय धर्म हमारा । करैं सदा हित सत्कृत कारा ॥ 
हम स्वयमही निसदिन दाहैँ । दिया लेइँ सो बम्हन नाहैं ॥ 

मोर दसा कर करिहु न चिंता । तुहरे रथ करि देउँ भंजिता ॥ 
होहिहु तुम्हहि पयादित पाएँ । भयो जस तव पुरबल दल राए ॥ 

पुनि रन हेतु पचारिहु मोही । ताते भल कहु बत का होही ॥ 
धर्मतस लव केरे बखाना । धीर जुगत कहिबत दे काना ॥ 

पुष्कल तब बहु बेर लग चितबत चितवहि ताहि । 
करिए कहा क कहा समुझ परे कछु नाहि ॥ 

चेतत धरि कर चापु उठाना । पनच चढ़ावत पुनि  दर्साना ॥ 
कोपत लवहु बानु अस मारे । किए छन दोउ खण्ड महि डारे ॥ 

गहे धनुष अपरंच बहोरी । औरु लगे जबु  करषन डोरी ॥ 
तब लगि उदयत सो बलवाना । करिहि भंजि तृन समतुल जाना ॥ 

धनुष हस्त कटि कसत निषंगा । हँसत हँसत किए रथहु बिभंगा ॥ 
भए धनु छिनु महु छीती छाना । भिरिहि  परस्पर दोउ बिहाना ॥ 

कबहुँ त  लव बढ़ बढ़ सर छाँड़े । कबहुँक पुष्कल अगहन बाढ़े ॥ 
नयन भवन ज्वाल कन जागे ।  अतीव बेगि जुझावनु लागे ॥ 

बहोरि लव लवलेस महुँ तीरत बान निषंग । 
दरसिहि दंतारि अस जस, को बिषधारि भुयंग ॥ 

शनिवार, २३ अप्रेल, २०१६                                                                                        

बान रूप सो बिषधरि नागा  । फुंकरत जूँ धनु  रसन त्यागा ॥ 
फुकरत फन लहरात परावा । धँसे भरत सुत उर दए घावा ॥ 

बीर सिरोमनि मुरुछा गहयउ । पीर परे मुख महि गिरि गयऊ ॥ 
हत चेतस गिरि दिए देखाई । पवन तनय तुर लेइ उठाईं ॥ 

करभर बाहु सिखर धर ताहीं । आयउ पुनि रामानुज पाहीं ॥ 
पितिया सोंह न गयउ बिलोका । करिहि प्रलाप चित्त गह सोका ॥ 

नयन गगन दुःख घन गहरायो । पल्किन झलझल जल झलरायो ॥ 
जगिहि कोप बिजुरी बिकराला । दमक दमक मुख जगइँ ज्वाला ॥ 

बहुरि आयसु दत्त कहइँ महा बीर हनुमंत  । 
समर भूमि अब आपहीं  जाएँ लेउ लव प्रान ॥ 

मंगलवार, २६ अप्रेल, २०१६                                                                                      

जिनके ग्यान  अमित अनंता । मरुति नंदन दास हनुमंता ॥ 
रिपुहन अग्या सो गुनवंता । कोपत रन भुइँ गयउ तुरंता ॥

पैस तहाँ बल पौरुष जागिहि  । बेगि लवहि सैं जूझैं लागिहि ॥ 
सीध बाँध सिरु माथ निहारिहि । लच्छ भेद एकु बिटप प्रहारिहि ॥ 

भँभरत निज पर आवत देखा । छाँड़ेसि सोउ बान बिसेखा ॥ 
बज्र घोष इब गरज अपारा  । मुख भरि सतक टूक करि डारा ॥ 

गहि गहि गरुबर भूधर खण्डा । झपटत झट सिरु मारि प्रचंडा ॥ 
देइ गिरि खन घाउ पर घावा । लह लस्तकि लव हस्त उठावा ॥ 

बान बृष्टि कृत रज रज कीन्हि । उठैं धूरि कछु दरस न दीन्हि ॥ 
धुर ऊपर घन धूसर छायो । रन रंगन तब अति घहरायो ॥ 

जुलुम केस बलि लाँगुली पुनि लमनात । 
अहि निदरित कुंडली कृत सियसुत लेइ लपेटि ॥ 

चरन सरोज जनि जानकी के । सुमिरत मन मन मारि मुठीके ॥ 
बाँधेउ लवहि कुंडलित पूँछी । मुकुत तासु कास बल सहुँ छूँछी ॥ 

छूटत बहुरि बीर बलवाना । तमक ताकि तकि तकि हनुमाना ॥ 
बान बूंद सम बरखन लागे  । बोलि धार बन प्रान त्यागें ॥ 

बनावरी लव केरि चलाई । देत पीर भा बहु दुखदाई ॥ 
सकल बीरबर केर निहारे । हनुमत मुरुछा गहि महि पारे ॥ 

लव सम बान  त्याजन माही । तहँ अबरु को दरसहि नाही ॥
चरत सो ऐसेउ चहुँ  दीसा ।  लगे बधन बधछम अवनीसा ॥ 

हनुमत मुरुछित भए  मुने समाचार जब अाहि । 
कहत सेष अरिहंत तब सोक सिंधु अवगाहि ॥ 

बृहसपतिवार, २८ अप्रेल, २०१६                                                                          

रुर रुर नूपुर चरनन पूरे ।  स्याम मनिसर रतनन कूरे ॥ 
हिरन मई रथ रसन मनोहर । बहुरि रिपुहन बैस ता ऊपर ॥ 

चले आपहि बीर सन जोरे । सहुँ बलि समबल रंग न थोरे ॥ 
जहँ अति निपुन बीर बर बंका । आए गए तहँ बजा रन डंका ॥ 

मुनि दरसिहि पुनि दिरिस अनूपा । एकु सुकुँअरु रघुबर समरूपा ॥ 
सीस जटा जुट सोहहिं कैसे । रघुनंदन बन होहहिं जैसे ॥ 

चरन त्रान बिनु जति जस भेसा । होत नरेस न अहहि नरेसा ॥ 
सिलीमुखाकर करधन कस्यो । मनोहरायत उरसिज लस्यो ॥ 

तिलक माथ तेजस बदन नयन अरुन अभिराम । 
कल केयूर कलित कर धनु दाहिन सर बाम ॥ 

नील कमल सैम स्यामल देहि । अहा मनोहर सुकुँअर कस एहि ॥ 
रघुकुल मनि सम धरे सरूपा । न त यहु भूसुर नहि यह भूपा ॥ 

बहुरि कवन सो बलबन आहीं । कहि रिपुहंत सोच मन माही ॥ 
रे मम बच्छर कवन तु होहू । लेंन तुले हमरे सन  लोहू ॥ 

नगन उत्कट भट मारि गिराए । केत न केत गए खेत पराए ॥ 
तोहि कवन जनि जनक जनावा । तव सों सुभग सील न पावा ॥ 

एही चरनतुम  भयउ जयंता । सुनु मम बचन बीर बलवंता ॥ 
जगत बिदित का नाउ तिहारे । जन चहैं सब जानन हारे ॥ 

भरि नयन अचरजु रिपुहन पूछि प्रसन एहि भाँति । 
उतरु देत लवनहि बदन गहे गहन कल काँति ॥ 


















----- ।। उत्तर-काण्ड ५२ ।। -----

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सोमवार, ०९ मई, २०१६                                                                                      

माई तुहरे राज दुलारा । लरत लरत मुरुछित महि  पारा ॥ 
एकु हय तज निज मग बन आईं । छाँडिसि जिन्ह केहि महराई ॥ 

पढ़ि पतिया ता सिरु संवराईं । रिसत पुनि बाँधेउ बरिआई ॥ 
गहे रसन हरन  करि लीन्हा । भले घर जनि बायन दीन्हा ॥ 

गहि चतुरंगिनि सेन बिसाला । धरिअ नाउ निज जगद कृपाला ॥ 
कहहि पाति सो नृप जग जाना । गरुत मान बहुतहि सनमाना ॥ 

 बरजत हठि गहि रहइ तुरंगा । भय भयंकर समर ता संगा ॥ 
जोग बान  धनु रसन बिताना । काँपी भूमि सेष  अकुलाना ॥ 

सम्मुख रिपुदल गंजन भारी । जीतिहि जग तापर महतारी ॥ 
तोर तनुज ऐसेउ जुझायो । करत पराजित मारि गिरायो ॥ 

तदनन्तर ते उठि धाइ लरिहि बहोरि बहोरि । 
लागि नयन परसिहि करन धुनुरु रसन सर जोरि ॥ 

बुधवार, ११ मई, २०१६                                                                                           

चढ़ि चढ़ि रिपुदल करिहि प्रहारा । जीतिहि पुनि पुनि तनुज तिहारा ॥ 
आएँ जोइ को ता समुहाई । गिरी महि परि न त गयउ पराई ॥ 

दलनायक नृप मुरुछा देऊ  । बिहनई बिजै कलस गहेऊ ॥ 
परे भूमि कछु कल बिहाई । महिपत मुरुछा गयउ दुराई । 

 करि करि केहरि नाद पचारा । करष पनच भर नयन अँगारा ॥ 
बधि लवनासुर सो सर जोरा । छाँड़त भयउ रवन घन घोरा  ॥ 

गयउ गगन गहि अगन अपारा । मेलि पवन भू चरन उतारा ॥ 
चरत बेगि पुनि हरिदै घाता । तव सुत पुकारेसि हा भ्राता ॥ 

सबल दल बादल अह भिरिहि एकल बाल बीर बलवान ते । 
पैसि हरिदै पुर बधि लवनासुर दिए मुरुछा तेहि बान ते ॥ 
कातर निहार महि गिरति बार जोग पानि जनि जनि जपयो । 
जुगत जगत महि  महतिमहिपत धर्म बिरुद्ध संग्राम कियो ॥ 

नीरज नीरज नयन में मन मंदिर में राम । 
अनुरनन चारु चरन में मुखरित नूपुर दाम ॥ 

शुक्रवार, १३ मई, २०१६                                                                                          

निर्मल जल कल कंठ पुराई । गइ नदि कूल कलस भरि लाई ॥ 
परन कुटी गन अजिरन सींचे ।  बैसि जगज जनि तरु बर नीचे ॥ 

गहबर गुहा बिटप घन घोरा । कंकर कंटक कठिन कठोरा ॥ 
बसि बट छाँह भई बनबासी । चातक पलक पिय प्रेम पियासी ॥ 

तापस तिय  तन भेस बिराजा । मन अनुरक्त चरन रघुराजा ॥ 
लिखिहि बिधाता जोग बिजोगा । बसिहि महबन तजे सब भोगा ॥ 

लसत तहाँ मुनि मंडल कैसे । बिकसि महजल पदुमदल जैसे ॥ 
सीस नवहि जनि सोहति कैसे । सोहहि लख्मी मूरति जैसे ॥ 

करि केहरि बृक निकर कपिंदा । खग मृग घिरि तप मगन मुनिंदा ॥ 
सब साथहि एकु नाथ न साथा । सोइ साँथरि सोए बन गाथा । 

चित्त लीन पिय चरन में मृग लोचन आकास । 
राम अवध सिया बन में साँस साँस उछबास ॥ 

रविवार, १५ मई, २०१६                                                                                          

 बिथरित दिनु राति जेहि भाँती । मातु बिरह गति कहि किंमि जाती ॥ 
बिहरत नभ जब नयन बिहंगा । भारभूत भए जलज प्रसंगा ॥ 

बटुक कहन रत कहरत बानी । घनकत श्रवन रंध्र महुँ आनी ॥ 
पलक पाँखि भू चरन उतारिहि । बालकन्हि हहरात निहारिहि ॥ 

जगज जननी जानकी माता । धर धीरजु सुनि सब कहि बाता ॥ 
बिषाद बस भरि मनस ग्लानी । बोलि  नेहमय मंजुल बानी ॥ 

आहु निरदय कवन सो राई । करि यह करतन दया न आई ॥ 
दल बिनु निर्बल बालक जोधा । निज बल मद ता संग बिरोधा ॥ 

 अधरम के कर मति मलिनाई । मम लरिका सों जाइ जुझाईं ॥ 
साँच असाँच न खलभल देखा । दलबादल बल पाए बिसेखा ॥ 

धिंगई धरासाई किए भेद हृदय दय बान । 
मदोद्धत बस आपुनो मन महुँ बहु बड़ जान ॥ 

मम सुत प्रमथित मारि गिरइहीं । कहहु सो नृप अजहुँ कहँ जइहीं ॥ 
यह प्रभुता अरु यहु मनुसाई । प्रमदित छात्र करम बिसराई ॥ 

एही बिधि सती जानकी माता । मुनि बालक सहुँ कहि रहि बाता ॥ 
बीर कुसहु तहँ ऐतक माही । महरिसि सहित कुटी पद दाहीं ॥ 

निरख ब्याकुल मुख्य जननी के । द्र्वन् दीठ दारुन दुःख जी के ॥ 
तापस नयन गगन घन घारिहि । पाहन बदन नीर निर्झारिहि ॥ 

करष गिरा करि बचन  कठोरा । बोलहि चितइ जननि की ओरा ॥ 
मोरे रहत तोहि पर ऐसे । आन परे विपदा कहु कैसे ॥ 

संग्राम सूर बीरबर रिपु मर्दन लघु भ्रात । 
दरसि न मोहि कतहुँ कहा भाँवरही हे मात ॥ 

मंगलवार, १७ मई, २०१६                                                                                     

करुनामय मन धीर धराईं । बोलहि सोक सनेहिल माई ॥ 
रे सुत जहँ लग मोहि जनाया । त्यागिहि मेधि तुरग एकु राया ॥ 

भँवर भूमि यहँ आ निकसाहीं । लव बरियात बांधेउ ताहीं ॥ 
रन कृत बिजित सबै संसारा । पिछु पिछु सो नृपु आन पधारा ॥ 

 स्याम करन हरन जब जाना । तुहरे भ्रात संग रन ठाना ॥ 
बहोरि ता सहुँ आयउ जोई । जूझत मार् गिरायउ सोई ॥ 

मरियो जब रच्छक बहुतेरे । सबल दल बादल एकल घेरे ॥ 
नृपकर मुरुछित भयउ बिहाना । बाँधनि परियो उर गह बाना ॥ 

मुनि बालक आएं बहोरि जोइ गयउ ता संग । 
तहँ जस दरसिहि तस मोहि कहि सो सकल प्रसंग ॥ 

बुधवार, १८ मई,२०१६                                                                                                   

जोग समउ रे सुत तुम आयउ । ता सों मम उर कछु हरुयायउ ॥ 
बलवन बीर कवन सो नाहू । लए बालक तहँ जाइ जनाहू ॥ 

रिपुहु दमन रन भूमि पौढ़इउ । बरियात निज भ्रात छँड़ाइहउ ॥ 
कुस बीरोचित उत्तरु देबा । जननी जान अजहुँ तुम लेबा ॥ 

तोरे सों तहँ मोर गयंदू । बंधन मोचित भए मम बंधू ॥ 
बोहित सैन होकि महि पाला । साधिहुँ तापर धनुष कराला ॥ 

आवैं अमर देउ जो कोई । ता पुनि साखि रुद्र किन होई ॥ 
तीछ बान  बरु  मारिहुँ ओही । अजहुँ रोध न सकहिं को मोही ॥ 

समर भुइँ पौढ़ाए दहौं , करत ब्याकुल ताहि । 
भ्रात लवहि छड़ाए लहौं, रुदन करौ तुम नाहि ॥   

 बृहस्पतिवार, ९ मई , २०१६                                                                                 

जो को सूर बीर रन रंगा | भिरिहि अबिचल सबल दल संगा || 
गहत मुरुछा गिरैं जब कोई |सोइ जगत कीरति कर होई || 

होइ बिमुख जो समर पराना | तिन्ह कर  हुँत कलंक न आना || 
खत सेष श्रुत कुस के बचना | भई मुदित मुनि बर सुभ लछना || 

नाना आयुध दय  उर लायो | बिजै हेतु निज आसिर दायो || 
कहि पुनि समर खेत सुत जाहू | मुरुछित लवनहि लेइ छँड़ाहू || 

जननी कर अनुसासन पायो |  तन कल कुंडल कवच चढायो  || 
सँवरत बाहु सिखर धनु बाना | परस चरन बहु बेगि पयाना || 

नयन अगन अँगार धरत चरत पयादहि सोए  | 
समर काम संग्राम भू , द्रुत गत उपनत होए ||  

रविवार, २२ मई, २०१६                                                                                      

पैसत तहँ लव देइ दिखाई । तब लगि मुरुछा गयउ बिहाई ॥ 
जूझत जिन्ह रिपुहन्हि दाया । रसरि बस रथ रहेउ बँधाया ॥ 

देखि रन भू भ्रात कुस आयो । प्रमुदित भए मन बदन लसायो ॥ 
पाए पवन जिमि दहन दहाईं । दरसि सहोदर तसहि सहाई ॥ 

रथ सो आपनु आप छँड़ावा । संग्राम हेतु छूटत धावा ॥ 
रिपु समूह रहि चहुँ दिसि ठाढ़े । करात बिकल लव साहस गाढ़े ॥ 

प्राग दिसा ते कुस बढ़ि आगे । सकल बीरन्हि मारन लागे ॥ 
कोपत लव पाछिन दिसि तेईं । हनत सबहि उत्पीरन देईं ॥ 

एक पुर लव कर सिली मुख, दुज सों कुस के बान ॥ 

सबल सैन सही न सकीं साँसत में भए प्रान ॥ 

बर बर आयुध ढार प्रहारिहि । सबु बीरबर समर हिय हारिहि ॥ 
गहबर गरुअ पलक हरुआई । दरसिहि बिनु पत तरु के नाई ॥ 

तोय निधि जूँ तरंग उताला । तासम भयउ कटकु बिसाला ॥ 
हॉट छुभित रन भँवर समाईं । छतवत आईटी उत गयउ पराई ॥ 

कोउ समर हुँत ठाढ़ न होईं । अकाल मरन चहत नहि कोई ॥ 
तेहि समउ रिपुगन दमनंता । समर जीत संताप दयंता ॥ 

जाकर रूप लवहि सम लागिल । तासु जुझावनु हुँत बढ़ि आगिल ॥ 
चितइ चितब ता सम्मुख आवा । गयउ निकट स पूछ बुझावा ॥ 

लरिहु स कहु कवन तुम्ह हे रे मह बलवान ।
रूप रंग माहि अहहू निज लघु  भ्रात समान ॥ 

मंगलवार, २४ मई, २०१६                                                                                                 

गहिहउ सुत बल बाहु अपारा । कवन गाँउ क का नाउ तिहारा ॥ 
कवन जननि को जनिमन दाता । कहहु स्याम मनोहर गाता ॥ 

पाति ब्रता धर्म अनुपाला । जनक सुता सिय के हम बाला ॥ 
बाल्मीकि मुनि पाल्यो ताता। पूजौं तासु चरन दिनु राता ॥ 

दुःख पर हमहि जन्म जो देबा । करत  सदा सो जनि कर सेबा ॥ 
घन बन गोचर हम बनबासी । मुनिबर कुटिया रहए सुपासी ॥ 

सब बिधि बिद्या माहि प्रबीना । बाल्मीकि गुरुकर दीना ॥ 
तासु नाउ लव कुस मम नाऊ । अब तुम निज परचन दौ राऊ ॥ 

लगिहु समर स्लाघा धर बीर सरिस तुम मोहि । 
गहिहु चौरंगी सेन पुनि हय हस्ती रथ रोहि ॥ 


















 

    




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