रविवार, ०२ नवम्बर, २०१४
दरस दुअरिआ महा रिषि आए । हरषत अगुबन प्रभो उठि धाए ॥
पालउ हरित नयन भए थारे । अँसुअन पयसन पाँउ पखारे ॥
चरण धूरि तव भवन बिराजे । आजु पबित भए हबि सह साजे ॥
कहि प्रभु मुनि मैं परम सुभागा । तब बरनन मधु रस मह पागा ।।
सुनि मुनि सीत गिरा भगवन की । भई जल मई छबि लोचन की ॥
भए ऐसेउ पेम अतिरेका । हरषे रोमन अलि प्रत्येका ॥
बोले मुनिबर हे सद्चारी । धर्म बीथि के राखनहारी ॥
सर्बथा एहु उचित मैं माना । तव जस कर बिप्रबर सम्माना ॥
अचिंतनी तपो बल इत सत्रुहन दृग दरसाए ।
जग बंदित ब्रह्म बल किए मुक्तिक कंठ बड़ाए ॥
सोमवार, ०३ नवम्बर, २०१४
अरु सत्रुहन मन ही मन सोचे । कहँ तपसी कहँ कामज पोचे ॥
एक के अंतर भयऊ सुचिता । दुज के बिषय भोग निहिता ॥
कहँ पारस मनि सम बल तापा । जासु परस हरि जग संतापा ॥
कहँ कोयर भोगी तप हीना । करे जगत जो ताप अधीना ॥
सोच मगन सत्रुहन मुनि धामा । चार घरी लग करे बिश्रामा ॥
बहत पयषिनी किए पय पाना । तुषित कंठ हरिदै सुख माना ॥
तुरंगहु पान पुनि दुह सलिला । चलेउ अगहु मग अल्क अलिला ॥
निरख जूथ निकसत घन गाछे । चले साज लए पाछहि पाछे ॥
कछु रथ सथ कछु पयादिक, कछुक तुरग अवरोहि ।
को ढाल भाल बिकराल, को कोदंड सँजोहि ॥
सत्रुहनहुँ भए अनुगामिन, सहित सेन चतुरंग ।
सत अस्व जुगित रथोपर बिराजत सुमति संग ॥
मंगलवार, ०४ नवम्बर, २०१४
दिन मुख अनीक आगिन बाढ़े । अपराह्न जब दिनकर गाढ़े ॥
अनीकिनी तहवाँ चलि आई । राजत रहे जहँ बिमलु राई ॥
रत्नातट नगरी नाउ धरे । झरी झर झर निर्झरी नियरे ॥
राउ जब सेवक सोंह श्रवने । रामानुज सैन संग अवने ॥
मेधिया तुरग बिनु अवरोधा । सजित साज सों सकल सुजोधा ॥
बाहिनी संग अस सैन सुहाए । चातुर बरन कह बरनि न जाए ॥
सुनत पैठि नृप सत्रुहन पाही । तुरग तूल गति चरन गहाही ।।
राज पाट सब आगे राखा । सौपत सरबस कातर लाखा॥
कहि न सकहि किछु प्रेम बस, जोग रहे दुहु पानि ।
बहोरि हरिअरि भाउ भरि , बोले अस मृदु बानि ॥
बुधवार, ०५ नवम्बर, २०१४
कथनत मैं काजु सोइ करिहउँ । दएँ जो आयसु सो सिरु धरिहउँ ॥
ललकि लगे कर चरन छड़ाईं । नहि नहि कहि लखमन उर लाईं ॥
मैल मलिन प्रभु पंथ बिजोगे । मोर चरन नहि तव कर जोगे ॥
राज पात पुनि सुत कर दीन्हि । नेकानेक सुभट सन कीन्हि ॥
धनुधर पुंजित सर भर भाथा । चले बिमलहु अरिहंत साथा ॥
नन्द घोष सब मुख गुंजारे । जय जय जय रघु नाथ पुकारे ॥
जोइ जोइ रायसु मग आने । यहु नन्द घोष जब दिए काने ॥
कटक कोट को रहे न बामा । मेधिआ तुरग करैं प्रनामा ॥
नाना भोजन भोग परोसएँ । मनिक रतन सत्रुहन परितोषएं ॥
आगे चले रघुबर के भाई । पहुमिहि अतिसय पंथ लमाई ॥
एहि भांति बढ़त जात एक , देखे ऊँच पहाड़ ।
भर अचरज सत्रुहन चरन , रही गयउ तहँ ठाड़ ।।
बृहस्पतिवार, ०६ नवम्बर, २०१४
चकित होत बोले मंत्रीबर । ए भूधर हैं कि हैं रजताकर ॥
सिखा सिखा सित कर अति सोही । श्रीमन कहु ए कवन के होंही ॥
यह अद्भुद सुंदर अवरेखा । श्रेनि करन अस कतहुँ न देखा ॥
अवनत होत परसइ अगासा । का इहाँ कोउ देउ निबासा ।।
करे केतु कोमल कल कांति । चितहर चितब परे मन सांति ।।
सत्रुहन मन अस जगि जिग्यासा । सरि सौमुख जस जगे पिपासा ।।
सुबुध सुमतिहु अस उतरु दावै । जस पनिहारिन तीस बुझावै ॥
निरखउ नग निभ नयनभिराम । रजताभ धर नील धरि नामा ॥
स्वेत प्रस्तर सिखा धर इहाँ रतन आगारि ।
चहुँ कोत प्रस्तरित होत, सँवरइ बर मनि बेनि ॥
शुक्रवार, ०७ नवम्बर, २०१४
सिल सिल भरि जस स्वेतांबर । एतद् लागिहि अतीउ मनोहर ।।
एहि दिरिस चित्र ते निरख न पाए । अबर तिय पर जो दीठि धराए ॥
जो हरि गुन सनमान न दीन्हि । जो तिन्ह पर भरोस न कीन्हि ॥
मह पुरुषन्ह जो पथ दरसाएँ । तासु बिमुख रचे निज रचनाएँ ॥
श्रौत स्मार्त धर्म न माने । अपनै आपहि समुझि सुजाने ॥
रहत दीठ जो दीठ न जोईं । तिन्हनि ए दिरिस दरस न होई ॥
वेदोल्लखित विचारों की अवमानना
बिपनई पन नील अरु लाहा । धरि धंधक दधिज द्विज नाहा ॥
मुकुलित मोहित मद बिहबलिता । होइ सोइ एहि दरस बंचिता ॥
जो पालक कनिआँ नहि दानें । लोभु बिबस तिनके पन ठानै ॥
कोऊ बरन होए जो कोई । तेहु ए सुभाग लहन न होई ॥
सील सती के चरित पर, मलइहि जोउ मलान ।
पसु पटतर आपहि चरए, दाए न को कर दान ॥
शनिवार, ०८ नवम्बर, २०१४
आप पकावैं आपहि खावैं । पर सम्पद कुडीठी धरावैं ॥
जो निज दहरि दुवरिआ आने । छुधा पीरित करै अपमानै ॥
जौ प्रतिहस्तक केरि प्रतीती ।घातत तिन प्रति करें कुरीती ॥
जासु दुजन के मान न भावै । दूजि सुख सम्पद न सुहावै ॥
भजन बिमुख हरि कथा न गावैं । तेहु इ दरसन दरस न पावैं ॥
प्रति प्रस्तर अति पावन होई । हरि निबास अरु सुहा सँजोईं ॥
इहँ सुरन्हि के मौलि मूर्धन् । बिनैबत होत नत परसि चरन ॥
जो सतजन के अनुचर होई । सोइ दरस जुगता संजोईं ॥
कारन जहँ पुन्यातमन्, भगवन बिराजमान ।
तासु पथ अनुगामिन जो, सोई तहँ लग आन ॥
रविवार, ०९ नवम्बर, २०१४
नेति नेति जिन बेद निरूपा । निजानन्द निरुपाधि अनूपा ॥
घन बाहन सन सुर बहुतेरे । जिनके पदुम चरन रज हेरे ॥
बाँचत महा बचन बेदंता । जिन्ह उद्बोधि बिदु सों संता ॥
महमहिमन श्रीमन गोसाईं । मह गिरी माहि बसति बसाईं ॥
जो एहि नील गिरिहि अवरोइहि। प्रभु पद नत पुन कर्मन जोइहि ॥
पूजन पर कर गहत प्रसादा । चातुर भुज सरूप सो होइहि ॥
सुनु एहि कथा पुनीत पुरानी । जिन किछु सुधिजन लोग बखानी॥
काँची पुरी नाउ एकु देसू । रत्न गींउ तहँ बसइ नरेसू ॥
सुहा सम्पद सों सम्पन, पूरब में हे तात ।
जन श्रुति संबाध संग, रहि जो जग बिख्यात ।।
सोमवार, १० नवम्बर, २०१४
रचे पचे पथ परिगत पाली । रही अतीव सुसमृद्ध साली ।।
द्विजोचित कृत करैं निरंतर । बसइ ऐसेउ तहाँ द्विजबर ॥
सकल जन जीवन के हितकारि । द्रवउ सो दसरथ अजिरु बिहारि ॥
तिनके कीर्तन हुँत उछहही । तहाँ प्रति जुधिक रजतन्तु लहहि ॥
परधन परतिय न दीठ धराएँ । रन भूमि सोंह न पीठ डिठाएँ ॥
लख भेदि लहैं रिपु सन लोहा । किए दूरापतन पर बिद्रोहा ॥
करए खेति बिपनन कनधारी ।सुभ बृत्ति सन जिअत बैपारी ॥
रखे रघुबर चरन अनुरागा । छुद्रा सेवा धर्म महि लागा ॥
सब मुख भवन जिहा पलन, किए प्रभु राम बिश्राम ।
चारि रच्छक राख रखे, दया दान सत दाम ॥
मंगलवार, ११ नवम्बर, २०१४
अधमी मनुज कि पाँवर पोचे । पाप करमन मन सो न सोचे ॥
नेम नयन सबहिं सम लाखएँ । धर्मबान जन मुख सत भाखएँ ॥
कभु दुखदाई बोल न बोले । जहँ न्याय कहुँ मिले न मोले ॥
को चितबन् धन लोभ न जोईं । निरर्थक कोप करैं न कोई ॥
जुगता अनुहर किए श्रम काजे । सील बिरध जहँ घर घर राजे ॥
लाभ लब्ध हुँत चित नहि लोभा । लसत लावनी श्री की सोभा ॥
रह जहँ फलद सुखद सब काला। लैह नीति हित लोक भुआला ।।
प्रजा तईं कर लेइ छटाँके । ता ते अतीउ कबहु न ताके ॥
पालिहि प्रीत सहित एहि भाँती । बिते समउ सह बहु सुख साँती
तिनकी पतिब्रता पतिनी के, नाउ रह बिसालाखि ।
एकु दिवस भूपति तापुर, लख अस प्रियतस भाखि ॥
बुधवार, १२ नवंबर, २०१४
सुख धन सन धनि भए सब लोगे । प्रिए तव तनुभव भयउ सुजोगे ।।
मह बिष्नु केर प्रसादु सोंही । कोउ अवसादु होहि न मोही ॥
कहत राउ अब लग हे देई । को तीरथ के भयउँ न सेई ॥
मन महुँ उपजिहि एक अभिलाखा । देउ धाम देखउँ मैं साखा ॥
धरम धाम महतम मैं जाना । जहँ लग जीवन किए कल्याना ॥
रहे जोइ निज उदर परायन । बिषयनुरत पूजै न भगवन ॥
एतदर्थ सुनौ हे कल्यानी । राज प्रसासन दे पुत पानी ॥
यहु रज प्रभुता भए अति भारी । अजहुँ कुँअरु भुज सिखरु सँभारी ॥
तीर्थाटन हुँत चलन चहिहूँ । तव सन पबित हृदय सों कहिहूँ ।।
मनोभाव अस प्रगस भुआला । धिआनस्थ भए सँधिआ काला ॥
अरध रयन भयउ मसिपन, नयन नीँद जब लेखि ।
एकु तपसी ब्रम्हात्मन्, सपनेहु माहि पेखि ॥
बृहस्पतिवार, १३ नवम्बर, २०१४
भजनन भनितत भए भिनुसारे । उठे भूप नित कर्मन कारे ॥
उताबर चरन सभा गह गयउ । बीच सिहासन बिराजित भयउ ॥
ऐतक महु दृग देइ दिखाई । एक कंथिन ब्रम्हन कृष काई ॥
बलइत बलकल कटि कउचीना । मूर्धन् जटा मंडल धीना ॥
छड़ि कमंडलु धरे एक हाथा । लसित नयन तेजसि मुख साथा ॥
तीरथ भरमन सेवन संगा । भयउ पबित पाबन अंगंगा ॥
निरखि तपसि जब रत्ना गीवाँ । रहे न हृदै हर्ष के सीवाँ ॥
नत मस्तक कर जोग जुहारी । दुर्बा पयसन पाँउ पखारी ॥
आतिथेय अतिथि ब्रम्हन सादरासन दीन्हि ।
भए श्रम प्रसम परिचय लिए , सप्रसय प्रश्न कीन्हि ॥
शुक्रवार, १४ नवंबर, २०१४
मुनिरु दरस रह रोग न पीरा । पाप रहित भए दरसि सरीरा ॥
बसि जिन्ह बसति दीन दुखारे । रच्छा हुँत तहँ आप पधारेँ ॥
अजहुँ मैं बयोगत बिरध भया । महत्मन करउ मोहि पर दया ॥
तुम बिद्वज्जन कहु समझाऊ । धरम धाम को मोहि सुझाऊ ॥
गर्भ बास तन पीर सँजोई । ताहि हरन समरथ जो होई ॥
तुम तपोबिरध सिद्ध समाधी । सर्वज्ञात तुम परम उपाधी ॥
ब्रम्हं पुनि अस बोल बताईं । तुहरी सेवा बहु सुखदाई ॥
राजन मन जूँ जगि जिग्यासा । करे साँत मुनि बहुंत सुपासा ॥
अतिथिजन के सतकर्ता हे महनिअ महिपाल ।
हरे पीर सो सुरति एक, रघूद्वेह दयाल ॥
शनिवार, १५ नवम्बर, २०१४
देखिहुँ मैं नग नदी अनेका । पातक हरनिहि पुरी प्रबेका ॥
अनेकानेक जनपद में देखा । प्रानथ पथ गत चित अवरेखा ॥
तापी सरजू नगरि अजोधा । हरि दुआरि अवन्ती बिबोधा ॥
बिमला काँची पुर मैं पेखा । सागर गमनि नर्बदा देखा ॥
तिनके दरसन पाप नसावें । किए मनोरथ सो पूर पावैं ॥
जो कोउ हाटक तीरथ करे । कोटि हनन के सो पाप हरे ॥
मल्लिक मंदरु जग बिख्याता । पाप नसाउब मुकुति प्रदाता ॥
सेबित देबासुर दुहु साखा । सोइ दुआरवती मैं लाखा ॥
धरे नूपुर चरन गौर बरन जहँ परम पाउनी गउमती ॥
जासु जल साखी कंजनी लाखी गहि गगनागना गती ।।
सय जो साई लए कहलाईं मुकुत दाई जिन श्रुति कहे ।
पुन प्रत्यास इहाँ जोइ निबासे कलि प्रभाउ बिनु रहे ॥
बन गोचर का गगन चर का कृमि कीट पतंग ।
पाहनहु चक्रक चिन्हिते, तहँ के मानस संग ॥
दरस दुअरिआ महा रिषि आए । हरषत अगुबन प्रभो उठि धाए ॥
पालउ हरित नयन भए थारे । अँसुअन पयसन पाँउ पखारे ॥
चरण धूरि तव भवन बिराजे । आजु पबित भए हबि सह साजे ॥
कहि प्रभु मुनि मैं परम सुभागा । तब बरनन मधु रस मह पागा ।।
सुनि मुनि सीत गिरा भगवन की । भई जल मई छबि लोचन की ॥
भए ऐसेउ पेम अतिरेका । हरषे रोमन अलि प्रत्येका ॥
बोले मुनिबर हे सद्चारी । धर्म बीथि के राखनहारी ॥
सर्बथा एहु उचित मैं माना । तव जस कर बिप्रबर सम्माना ॥
अचिंतनी तपो बल इत सत्रुहन दृग दरसाए ।
जग बंदित ब्रह्म बल किए मुक्तिक कंठ बड़ाए ॥
सोमवार, ०३ नवम्बर, २०१४
अरु सत्रुहन मन ही मन सोचे । कहँ तपसी कहँ कामज पोचे ॥
एक के अंतर भयऊ सुचिता । दुज के बिषय भोग निहिता ॥
कहँ पारस मनि सम बल तापा । जासु परस हरि जग संतापा ॥
कहँ कोयर भोगी तप हीना । करे जगत जो ताप अधीना ॥
सोच मगन सत्रुहन मुनि धामा । चार घरी लग करे बिश्रामा ॥
बहत पयषिनी किए पय पाना । तुषित कंठ हरिदै सुख माना ॥
तुरंगहु पान पुनि दुह सलिला । चलेउ अगहु मग अल्क अलिला ॥
निरख जूथ निकसत घन गाछे । चले साज लए पाछहि पाछे ॥
कछु रथ सथ कछु पयादिक, कछुक तुरग अवरोहि ।
को ढाल भाल बिकराल, को कोदंड सँजोहि ॥
सत्रुहनहुँ भए अनुगामिन, सहित सेन चतुरंग ।
सत अस्व जुगित रथोपर बिराजत सुमति संग ॥
मंगलवार, ०४ नवम्बर, २०१४
दिन मुख अनीक आगिन बाढ़े । अपराह्न जब दिनकर गाढ़े ॥
अनीकिनी तहवाँ चलि आई । राजत रहे जहँ बिमलु राई ॥
रत्नातट नगरी नाउ धरे । झरी झर झर निर्झरी नियरे ॥
राउ जब सेवक सोंह श्रवने । रामानुज सैन संग अवने ॥
मेधिया तुरग बिनु अवरोधा । सजित साज सों सकल सुजोधा ॥
बाहिनी संग अस सैन सुहाए । चातुर बरन कह बरनि न जाए ॥
सुनत पैठि नृप सत्रुहन पाही । तुरग तूल गति चरन गहाही ।।
राज पाट सब आगे राखा । सौपत सरबस कातर लाखा॥
कहि न सकहि किछु प्रेम बस, जोग रहे दुहु पानि ।
बहोरि हरिअरि भाउ भरि , बोले अस मृदु बानि ॥
बुधवार, ०५ नवम्बर, २०१४
कथनत मैं काजु सोइ करिहउँ । दएँ जो आयसु सो सिरु धरिहउँ ॥
ललकि लगे कर चरन छड़ाईं । नहि नहि कहि लखमन उर लाईं ॥
मैल मलिन प्रभु पंथ बिजोगे । मोर चरन नहि तव कर जोगे ॥
राज पात पुनि सुत कर दीन्हि । नेकानेक सुभट सन कीन्हि ॥
धनुधर पुंजित सर भर भाथा । चले बिमलहु अरिहंत साथा ॥
नन्द घोष सब मुख गुंजारे । जय जय जय रघु नाथ पुकारे ॥
जोइ जोइ रायसु मग आने । यहु नन्द घोष जब दिए काने ॥
कटक कोट को रहे न बामा । मेधिआ तुरग करैं प्रनामा ॥
नाना भोजन भोग परोसएँ । मनिक रतन सत्रुहन परितोषएं ॥
आगे चले रघुबर के भाई । पहुमिहि अतिसय पंथ लमाई ॥
एहि भांति बढ़त जात एक , देखे ऊँच पहाड़ ।
भर अचरज सत्रुहन चरन , रही गयउ तहँ ठाड़ ।।
बृहस्पतिवार, ०६ नवम्बर, २०१४
चकित होत बोले मंत्रीबर । ए भूधर हैं कि हैं रजताकर ॥
सिखा सिखा सित कर अति सोही । श्रीमन कहु ए कवन के होंही ॥
यह अद्भुद सुंदर अवरेखा । श्रेनि करन अस कतहुँ न देखा ॥
अवनत होत परसइ अगासा । का इहाँ कोउ देउ निबासा ।।
करे केतु कोमल कल कांति । चितहर चितब परे मन सांति ।।
सत्रुहन मन अस जगि जिग्यासा । सरि सौमुख जस जगे पिपासा ।।
सुबुध सुमतिहु अस उतरु दावै । जस पनिहारिन तीस बुझावै ॥
निरखउ नग निभ नयनभिराम । रजताभ धर नील धरि नामा ॥
स्वेत प्रस्तर सिखा धर इहाँ रतन आगारि ।
चहुँ कोत प्रस्तरित होत, सँवरइ बर मनि बेनि ॥
शुक्रवार, ०७ नवम्बर, २०१४
सिल सिल भरि जस स्वेतांबर । एतद् लागिहि अतीउ मनोहर ।।
एहि दिरिस चित्र ते निरख न पाए । अबर तिय पर जो दीठि धराए ॥
जो हरि गुन सनमान न दीन्हि । जो तिन्ह पर भरोस न कीन्हि ॥
मह पुरुषन्ह जो पथ दरसाएँ । तासु बिमुख रचे निज रचनाएँ ॥
श्रौत स्मार्त धर्म न माने । अपनै आपहि समुझि सुजाने ॥
रहत दीठ जो दीठ न जोईं । तिन्हनि ए दिरिस दरस न होई ॥
वेदोल्लखित विचारों की अवमानना
बिपनई पन नील अरु लाहा । धरि धंधक दधिज द्विज नाहा ॥
मुकुलित मोहित मद बिहबलिता । होइ सोइ एहि दरस बंचिता ॥
जो पालक कनिआँ नहि दानें । लोभु बिबस तिनके पन ठानै ॥
कोऊ बरन होए जो कोई । तेहु ए सुभाग लहन न होई ॥
सील सती के चरित पर, मलइहि जोउ मलान ।
पसु पटतर आपहि चरए, दाए न को कर दान ॥
शनिवार, ०८ नवम्बर, २०१४
आप पकावैं आपहि खावैं । पर सम्पद कुडीठी धरावैं ॥
जो निज दहरि दुवरिआ आने । छुधा पीरित करै अपमानै ॥
जौ प्रतिहस्तक केरि प्रतीती ।घातत तिन प्रति करें कुरीती ॥
जासु दुजन के मान न भावै । दूजि सुख सम्पद न सुहावै ॥
भजन बिमुख हरि कथा न गावैं । तेहु इ दरसन दरस न पावैं ॥
प्रति प्रस्तर अति पावन होई । हरि निबास अरु सुहा सँजोईं ॥
इहँ सुरन्हि के मौलि मूर्धन् । बिनैबत होत नत परसि चरन ॥
जो सतजन के अनुचर होई । सोइ दरस जुगता संजोईं ॥
कारन जहँ पुन्यातमन्, भगवन बिराजमान ।
तासु पथ अनुगामिन जो, सोई तहँ लग आन ॥
रविवार, ०९ नवम्बर, २०१४
नेति नेति जिन बेद निरूपा । निजानन्द निरुपाधि अनूपा ॥
घन बाहन सन सुर बहुतेरे । जिनके पदुम चरन रज हेरे ॥
बाँचत महा बचन बेदंता । जिन्ह उद्बोधि बिदु सों संता ॥
महमहिमन श्रीमन गोसाईं । मह गिरी माहि बसति बसाईं ॥
जो एहि नील गिरिहि अवरोइहि। प्रभु पद नत पुन कर्मन जोइहि ॥
पूजन पर कर गहत प्रसादा । चातुर भुज सरूप सो होइहि ॥
सुनु एहि कथा पुनीत पुरानी । जिन किछु सुधिजन लोग बखानी॥
काँची पुरी नाउ एकु देसू । रत्न गींउ तहँ बसइ नरेसू ॥
सुहा सम्पद सों सम्पन, पूरब में हे तात ।
जन श्रुति संबाध संग, रहि जो जग बिख्यात ।।
सोमवार, १० नवम्बर, २०१४
रचे पचे पथ परिगत पाली । रही अतीव सुसमृद्ध साली ।।
द्विजोचित कृत करैं निरंतर । बसइ ऐसेउ तहाँ द्विजबर ॥
सकल जन जीवन के हितकारि । द्रवउ सो दसरथ अजिरु बिहारि ॥
तिनके कीर्तन हुँत उछहही । तहाँ प्रति जुधिक रजतन्तु लहहि ॥
परधन परतिय न दीठ धराएँ । रन भूमि सोंह न पीठ डिठाएँ ॥
लख भेदि लहैं रिपु सन लोहा । किए दूरापतन पर बिद्रोहा ॥
करए खेति बिपनन कनधारी ।सुभ बृत्ति सन जिअत बैपारी ॥
रखे रघुबर चरन अनुरागा । छुद्रा सेवा धर्म महि लागा ॥
सब मुख भवन जिहा पलन, किए प्रभु राम बिश्राम ।
चारि रच्छक राख रखे, दया दान सत दाम ॥
मंगलवार, ११ नवम्बर, २०१४
अधमी मनुज कि पाँवर पोचे । पाप करमन मन सो न सोचे ॥
नेम नयन सबहिं सम लाखएँ । धर्मबान जन मुख सत भाखएँ ॥
कभु दुखदाई बोल न बोले । जहँ न्याय कहुँ मिले न मोले ॥
को चितबन् धन लोभ न जोईं । निरर्थक कोप करैं न कोई ॥
जुगता अनुहर किए श्रम काजे । सील बिरध जहँ घर घर राजे ॥
लाभ लब्ध हुँत चित नहि लोभा । लसत लावनी श्री की सोभा ॥
रह जहँ फलद सुखद सब काला। लैह नीति हित लोक भुआला ।।
प्रजा तईं कर लेइ छटाँके । ता ते अतीउ कबहु न ताके ॥
पालिहि प्रीत सहित एहि भाँती । बिते समउ सह बहु सुख साँती
तिनकी पतिब्रता पतिनी के, नाउ रह बिसालाखि ।
एकु दिवस भूपति तापुर, लख अस प्रियतस भाखि ॥
बुधवार, १२ नवंबर, २०१४
सुख धन सन धनि भए सब लोगे । प्रिए तव तनुभव भयउ सुजोगे ।।
मह बिष्नु केर प्रसादु सोंही । कोउ अवसादु होहि न मोही ॥
कहत राउ अब लग हे देई । को तीरथ के भयउँ न सेई ॥
मन महुँ उपजिहि एक अभिलाखा । देउ धाम देखउँ मैं साखा ॥
धरम धाम महतम मैं जाना । जहँ लग जीवन किए कल्याना ॥
रहे जोइ निज उदर परायन । बिषयनुरत पूजै न भगवन ॥
एतदर्थ सुनौ हे कल्यानी । राज प्रसासन दे पुत पानी ॥
यहु रज प्रभुता भए अति भारी । अजहुँ कुँअरु भुज सिखरु सँभारी ॥
तीर्थाटन हुँत चलन चहिहूँ । तव सन पबित हृदय सों कहिहूँ ।।
मनोभाव अस प्रगस भुआला । धिआनस्थ भए सँधिआ काला ॥
अरध रयन भयउ मसिपन, नयन नीँद जब लेखि ।
एकु तपसी ब्रम्हात्मन्, सपनेहु माहि पेखि ॥
बृहस्पतिवार, १३ नवम्बर, २०१४
भजनन भनितत भए भिनुसारे । उठे भूप नित कर्मन कारे ॥
उताबर चरन सभा गह गयउ । बीच सिहासन बिराजित भयउ ॥
ऐतक महु दृग देइ दिखाई । एक कंथिन ब्रम्हन कृष काई ॥
बलइत बलकल कटि कउचीना । मूर्धन् जटा मंडल धीना ॥
छड़ि कमंडलु धरे एक हाथा । लसित नयन तेजसि मुख साथा ॥
तीरथ भरमन सेवन संगा । भयउ पबित पाबन अंगंगा ॥
निरखि तपसि जब रत्ना गीवाँ । रहे न हृदै हर्ष के सीवाँ ॥
नत मस्तक कर जोग जुहारी । दुर्बा पयसन पाँउ पखारी ॥
आतिथेय अतिथि ब्रम्हन सादरासन दीन्हि ।
भए श्रम प्रसम परिचय लिए , सप्रसय प्रश्न कीन्हि ॥
शुक्रवार, १४ नवंबर, २०१४
मुनिरु दरस रह रोग न पीरा । पाप रहित भए दरसि सरीरा ॥
बसि जिन्ह बसति दीन दुखारे । रच्छा हुँत तहँ आप पधारेँ ॥
अजहुँ मैं बयोगत बिरध भया । महत्मन करउ मोहि पर दया ॥
तुम बिद्वज्जन कहु समझाऊ । धरम धाम को मोहि सुझाऊ ॥
गर्भ बास तन पीर सँजोई । ताहि हरन समरथ जो होई ॥
तुम तपोबिरध सिद्ध समाधी । सर्वज्ञात तुम परम उपाधी ॥
ब्रम्हं पुनि अस बोल बताईं । तुहरी सेवा बहु सुखदाई ॥
राजन मन जूँ जगि जिग्यासा । करे साँत मुनि बहुंत सुपासा ॥
अतिथिजन के सतकर्ता हे महनिअ महिपाल ।
हरे पीर सो सुरति एक, रघूद्वेह दयाल ॥
शनिवार, १५ नवम्बर, २०१४
देखिहुँ मैं नग नदी अनेका । पातक हरनिहि पुरी प्रबेका ॥
अनेकानेक जनपद में देखा । प्रानथ पथ गत चित अवरेखा ॥
तापी सरजू नगरि अजोधा । हरि दुआरि अवन्ती बिबोधा ॥
बिमला काँची पुर मैं पेखा । सागर गमनि नर्बदा देखा ॥
तिनके दरसन पाप नसावें । किए मनोरथ सो पूर पावैं ॥
जो कोउ हाटक तीरथ करे । कोटि हनन के सो पाप हरे ॥
मल्लिक मंदरु जग बिख्याता । पाप नसाउब मुकुति प्रदाता ॥
सेबित देबासुर दुहु साखा । सोइ दुआरवती मैं लाखा ॥
धरे नूपुर चरन गौर बरन जहँ परम पाउनी गउमती ॥
जासु जल साखी कंजनी लाखी गहि गगनागना गती ।।
सय जो साई लए कहलाईं मुकुत दाई जिन श्रुति कहे ।
पुन प्रत्यास इहाँ जोइ निबासे कलि प्रभाउ बिनु रहे ॥
बन गोचर का गगन चर का कृमि कीट पतंग ।
पाहनहु चक्रक चिन्हिते, तहँ के मानस संग ॥