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----- ॥ उत्तर-काण्ड ३६ ॥ -----

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बुधवार  ०१ जुलाई २०१५                                                                    

धूर धूसरित पद तल छाला । गौर बरन मुख भए घन काला ॥ 
सिथिल सरीर सनेह न थोरे । दरसन प्रभु लोचन पट जोरे ॥ 

कुसल पथक संगत गहि राखिहि  । चित चितबन् चित्रकूटहि लाखिहि ॥ 
जावहि भरत जलद करि छायो । अस त सुखद पथ प्रभु  नहि पायो ॥

दरसि बासि मग  मन संदेहा ।चाल सरिस सम  सील सनेहा ॥ 
बेषु न सो सँग  सिय नहि आहीं । रामु लखन हितु होंहि कि नाहीं ॥ 

इतै भरत बन  चरन  प्रबेसे । उत किरात प्रभु दिए संदेसे ।। 
लोचन नीर भरे लघुभाई । चले तहाँ  जहँ सिय रघुराई ॥ 

चले चरन भुज प्रभु पद ओरा । बरखिहि बारि पलक पट तोरा ॥ 
उठे नाथ  बहु पेम प्रसंगा । कहुँ पट कहुँ  धनु तीर निषंगा ॥ 

परे चरन  प्रिय भरत जस उर लिए कृपानिधान । 
राम भरत मिलन बरनन किन कबि जाइ बखान ॥ 

बृहस्पतिवार, ०२ जुलाई २०१५                                                           

बिनयत भाल सिय पदुम पद धरे । परनत पुनि पुनि जोहार करे ॥ 
दिए असीस सिय बारहि बारा । उमगै उरस सनेह अपारा ॥ 

नभ सराहि सुर सुमन बरसइहिं । रघुनाथ तिनहु मात  भेंटइहि  ॥ 
परन पुंट जस सुमन समेटे । गुरु गुँह सानुज सों  तस भेंटे ॥ 

गुरबर पितु सुर बास जनावा । रघुबर  ह्रदय दुसह दुःख पावा ॥ 
भूसुत बहु बिधि  ढाँढस बँधाए  । कीन्हि काज प्रभु  बेद बताए  ॥ 

बोले पुनि मुनि देत  दुहाई । भयो बहुंत बहुरौ रघुराई ॥ 
भरी सभा भित भरत निहोरे  । कहें उचित रघुबर कर जोरे ॥ 

गुरहि  दिए अग्या सिर  धारिहौं । सुर बसे पितु कही कस टारिहौं ॥ 
ही बिधि बीते बासर चारी  । बहुरन सब जन कहि कहि हारी ।। 

गुरु अग्या सिरुधार किए गहै  राम बन राज । 
पितु कही अनुहार तजे कौसल राज समाज ॥ 

शुक्रवार, ०३ जुलाई, २०१५                                                                  

सेवौं अवध पुरी अवधि लगे । देवउ प्रभो मोहि सिख सुभगे ॥ 
कहे भरत तुअ जगत भरोसो । पालन  पोषन कहिहौं को सो ॥ 

पर परिजन की गह कानन की । हमरी चिंता बिरधाजन की ।। 
मातु सचिउ मुनि सिख सिरु धरिहौ । पहुमि प्रजा के  पालन करिहौ ॥ 

देइ कहत अस प्रभु पद पाँवरि । राम नाम के जस दुइ आखरि ॥ 
किए कर संपुट धरि सिरु राखा । प्रजा प्रान जामिक जिमि लाखा ॥ 

चारि दिवस पिछु अवध पुर आए । जनक राज तहँ रहें पधराए ॥ 
सौंपि सचिव गुर भरतहि राजू । चले तिरहुत साजि सब साजू ॥ 

बसत भरत पुनि भयौ बिरागे । घटै तेजु कछु देह न लागे ॥ 
नंदिगांव कुटि करत निबासिहि  । धार मुनिपट सुख भोग उदासिहि ॥ 

मन मंदिर कर मूरति जिहा नाम सिय राम । 
नित पूजत पद पाँवरी करए प्रजा के काम ॥ 

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शनिवार ०४ जुलाई,२०१५                                                                     
भरत प्रीत प्रभु प्रियबर रूपा ।कहा जेहि निज मति  अनुरूपा ॥ 
कीन्ह प्रभु जो बन अति पावन । सुनहु चरित मुनि सो मन भावन ॥ 

सुरप सुत क बार बन कागा ।हतत चोँच सीता पद लागा ॥ 
चहे लेन सठ प्रभु बल परिखा । सींक धनु सायक दिए भल सिखा ॥ 

भरता लकहन जानकी साथा । रहत बारह  बरसि लग नाथा ।। 
बहुरि दिवस एक मन अनुमाने । चितकूट अब मोहि सब जाने ॥ 

बसे मुनिहि बन माँगि बिदाईं । अनुसर पुनि अत्रि  आश्रमु आईं ॥
किए अस्तुति बर सुन्दर बानी । भाव पूूरित भगति रस सानी ॥ 

अनसूया सिया निकट बिठाई । नारि धरम के चरन जनाई ॥ 
नदी नीर बिनु पिय बिनु नारी । पूर्ण सरूप होत पियारी ॥ 

चले बनही बन भगवन लखन जानकी संग । 
बिराध निपात आ तहँ रहै जहाँ सरभंग ॥ 

रविवार, ०५ जुलाई, २०१५                                                                  

हरि पद गह मुनि भगति बर पाए । जोग अगन जर हरि  पुर सिधाए ॥ 
पीछु लखन आगें रघुराई । मिलि चलें मुनि मनीष निकाईं ॥ 

दिए कुदरसन अस्थि पथ कूरे । पूछ मुनिन्ह नयन जल पूरे ॥ 
रहेउ रिषि जिन निसिचर भखने । करौं रहित कहि तिन तैं भुवने ॥ 

कुम्भज के एक सिष्य सुजाना । देइ ताहि  दरसन भगवाना ॥ 
गन ग्यान कर दिए बरदाने । बहुरी कुम्भज रिषि  पहिं आने ॥ 

आनै के जब कारन  कहेउ । चितब प्रभो मुनि अपलक रहेउ ॥ 
निसिचर मरन मंत्र गोसाईं । पूछेउँ मोहि मनुज के नाईं ॥ 

बसौं कहाँ अब पूछ बुझाइहि  । दंडक बन प्रभु बसन सुझाइहि ॥ 
पंचबटी बहै गोदावरी । नदीं बन ताल गिरि  छटा धरी ॥ 

खग मृग वृन्दार वृंदी गुंजि मधुप सुर बंध । 
आन बसिहि विभो अस जस सुबरन बसिहि सुगंध ॥ 

सोमवार, ०६ जुलाई, २०१५                                                          

सूपनखा दनुपति के बहनी । तामस चरनी राजस रहनी ॥ 
पंचबटी आईं एक बारा । कहै चितइ चिट लखन कुआँरा ॥ 

मम अनुरूप पुरुख जग नाही । तुअ सरूप को नर नहि आही  ॥ 
बरन  लखन जब अवसर दीन्हि । लाघवँ श्रुति नासा बिनु कीन्हि ॥ 

बिलकाहट गइ खर दूषन पाहीं । भ्रात पुरुख बल धिग धिग दाहीं ॥ 
पूछत कहनि कहि सकल सुनाए । बना सेन चढ़ि धूरि धुसराए ॥ 

निसिचर अनी आन जब जानी । भरि सायक हरि दिए चैतानी ॥ 
कहे दूत खर दूषन जाई । करे कृपा समुझए कदराई ॥ 

कहु सूल कृपान कहूँ संधान सर चाप ब्याप चले । 
नभ उरत निसाचर अनी उप रकत जिमि फुँकरत  साँप चले ॥ 
धनुष कठोर करे घोर टकोर रघुबीर डपटत दापते  । 
लगत सर चिक्करत उठत महि परत निसिचर निकर काँपते ॥ 

मारे सकल दल गंजन लेइ समर प्रभु जीत । 
चितव सीता सुर नर मुनि सब के भय गए बीत ॥ 


















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