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-----।। उत्तर- काण्ड ११ ॥ -----

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रविवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

अब सोइ आप लिए दल गाजे । सुबरन मई रथ पर बिराजे ॥ 
लरन भिरन ते पौर पयाने । जहँ बिचित्र बीर लव रन ठाने ॥ 
अब वे स्वयम् ही स्वर्णमयी रथ पर विराजित होकर श्रेष्ठ वीरों को साथ लिये युद्ध हेतु उस ड्योढ़ी की और प्रस्थान किए जहाँ वह विस्मयी कारक वीर बालक लव युद्ध छेड़े हुवे था ॥ 

लोकत लव तँह पलक पसारे । सत्रुहन मन बहु अचरज कारे ॥ 
जिनके कहान दिए न ध्याना । साँच रहि सोइ सुभट बखाना ॥ 
वहाँ लव को देखते ही शत्रुध्न की पलकें आश्चर्य से प्रस्तारित हो गई और उनका मन बहुंत ही आश्चर्य करने लगा ॥ जिनके कथनों पर शत्रुधन ने ध्यान नहीं दिया वे वीर सैनिक सत्य ही कह रहे थे ॥ 

स्याम गात अवगुंफित रुपा । येह बालक श्री राम सरूपा ॥ 
नीलकमलदल कल प्रत्यंगा । बदन मनोहर माथ नयंगा ॥ 
श्याम शरीर, सांचे में ढला हुवा रूप,यह बालक तो वास्तव में श्री रामचन्द्रजी का ही स्वरुप है ॥ नीलकमलदल के सदृश्य सुहावने प्रत्यंग ऐसा मनोहारी मुखाकृति औए\और माथे पर का यह चिन्ह ॥ 

एहि बीर सपुत अहहैं को के । ऐ मति धारत तिन्ह बिलोकें ॥ 
पूछत ए तुम कौन  हो बतसर । जोइ मारे हमरे बीर बर ॥  
यह वीर सुपुत्र  किसका है ? ऐसा विचार करते एवं उस बालक को ध्यान पूर्वक देखते हुवे शत्रुध्न ने पूछा : -- हे वत्स  ! तुम कौन हो ? कौन हो जो तुमने हमारे सारे वीर सैनिकों को मार दिया ॥ 

सोमवार, १८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

जानउँ ना मैं कछु तव ताईं । पुनि लव ऐसेइ उतरु दाईं ॥ 
बीरबर मम पितु जोइ होई । मम श्री जननी हो जो कोई ॥ 
मैं तुम्हारे निमित्त कुछ भी नहीं जानता । फिर लव ने इस प्रकार से उत्तर दिया कि हे वीरवार ! मेरे पिटा जो भी हों, मेरी माता जो कोई हों ॥ 

आगिन औरु न कहहु कहानी । एहि बय सोचहु आप बिहानी ॥ 
सुरतत निज कुल जन के नामा ।धरौ आजुध करौ संग्रामा ॥ 
अब आगे और कहानियाँ न बनाओ । इस समय अपने अंत का सोचो ॥ और अपने कुल जनों का स्मरण करते हुवे आयुध धारण कर मुझसे संग्राम करो ॥ 

तुहरे भुजदल जदि बल धारहिं । बरियात निज बाजि परिहारहि ॥ 
किए लव बाण संधान अनेका । तेजस तिख मुख एक ते ऐका ॥ 
यदि तुम्हारी भुजाएँ ने बल धारण किया हुवा है तो वे बलपूर्वक अपने अश्व को मुक्त कर लें ॥ ऐसा कहकर लव ने अनेकों बाण का संधान किया जो एक से एक दिव्य एवं तीक्ष्ण थे 

लिए धनु गुन दिए चंदु अकारे । भयउ क्रुद्ध धनबन प्रस्तारे ॥ 
को पद को भुज परस निकासे । को सत्रुहनके मस्तक त्रासे ॥ 
और धनुष उठा कर उसके गुण को चंद्राकार कर कुपित होते हुवे उनहन गगन में बिखेर दिया ॥ जिनमें कोई बाण चरण तो कोई भुजा स्पर्श करते हुवे निकला  , कोई शत्रुधन के मस्तक को भेद कर उन्हें त्रस्त का गया  ॥ 

रिसत सत्रुहन छबिछन सों, देइ धनुर टंकार । 
हहरनत रन आँगन के, कन कन किए झंकार ॥ 
( ऐसा दृश्य दखाकर ) शत्रुध्न फिर अत्यधिक क्रुद्ध होकर कड़कती बिजली के समान धनुस की प्रत्यंचा अको टंकार किया । इस ध्वनी से कम्पायमान होकर रन क्षेत्र का कण कण झंकृत हो उठा ॥ 

मंगलवार, १९ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                   

बर धनुधर सिरुमनि बलबाना । अवतारे गुन अनगन बाना ॥ 
बालक लव तूली कर तिनके । खरपत सम  काटै गिन गिन के ॥ 
बलवानों के शिरोमणि एवं श्रेष्ठ धनुर्धर शत्रुध्न ने फिर अपनई प्रत्यंचा से अनगिनत बाण उतारे । किन्तु बालक लव ने उन्हें तृण-तुल्य कर उन्हें खरपतवार के जैसे गिन गिन कर काट कर हटा दिया ॥ 

ता पर तिन कर अस सर छाँड़े । अचिर द्युति जस घनरस बाढ़े ॥ 
सत्रुहन नयन अलोकत अंबा । बिचित्र कहत किए बहुस अचंभा ॥ 
उसके पश्चात उसके हाथ ने ऐसे बाण चलाए जैसे चमकती हुई बिजली से युक्त घनी घटा से जल की बुँदे चली आती हैं ॥ शत्रुध्न के नयनों ने अम्बर में जब उनका अवलोकन किया तब 'विचित्र ' ऐसा कह कर वे बहुंत ही अचम्भा किये ॥ 

अचिरत बरतत पुनि चतुराई । तेइ सकल काटि निबेराईं ॥ 
निरखत निबरत लव निज सायक । किए दुर्घोष हृदय भय दायक ॥ 
और फिर शीघ्रता पूर्वक रन कौशलता बरतते हुवे उन्हें काट कर हटा दिया ॥ जब लव ने अपने बाणों को लक्ष्य विहीन पाया तब उसने कर्कश घोष किया जो हृदय में भय उत्पन्न करने वाला था ॥ 

दमक उद्भट देवत प्रतिमुखे । किए दुइ खंडित वाके धनुखे ॥ 
अचिर द्युति गति कर सिय नंदन । सुबरन मई रथहु किए खन खन ॥ 
तब उत्तर देते हुवे उद्भट सिया नंदन लव ने शत्रुध्न के  धनुष को दो खण्डों में विभाजित कर दिया ॥ और बिजली के जैसे तीव्र गति से स्वरमयी रथ को भी खंड खंड करते हुवे नष्ट कर दिया ॥ 

धनु कहुँ रथ कहुँ कहुँ सुत बहिही । सत्रुहन गति परिहास लहिही ॥ 
लोकत अमर्ष अस मसि मूखे । मेघ घटा जस जोत मयूखे ॥ 
धनुष कहीं था, रथ कहीं था, उसका सारथी कहीं था और उसके घोड़े कहीं थे । उस समय शत्रुध्न की दशा परिहास को प्राप्त थी ॥ उनके मलिन मुख पर आक्रोश ऐसे दर्श रहा था, जैसे घने मेघों में बिजलियाँ चमक रही हों ॥ 

रथ सुत धनुर हिन् सत्रुहन, धारे पुनि दूसरौह । 
बलपूरबक दृढ़ सरूप, ठाढ़ रहि लव सोंह ॥ 
 तब रथ, सारथी धनुष हिन् शत्रुध्न ने फिर दुसरा रथ दुसरा सारथी एवं धनुष धरा और वे बलपूर्वक, अत्यधिक दृढ़ता से लव के सम्मुख डटे रहे ॥ 




रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

पुनर लव कर सर धनुर धरिते । लख़त लोचन लख भेद लहिते ॥ 
एक पुर लव एक पुर पितु षदना । सेन रसन जस बसि मध् रदना ॥ 

महरथी समर संग्राम, सूर बीर भरि सैन । 
एक सन एक रन बांकुर, सह रथ बड़ धनु बैन ॥  

सोमवार,३० सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                      


नाम राम रघु नायक धारी । नानायुध रथ बाहि सँवारी ॥ 
तेइ सेन तब हाहाकारी । सौंतुख परि जब दुइ सुत भारी ॥ 

दोइ दृग दीठ रहि सर जूथा । तिलक तेज तिन सूल बरूथा ॥ 
एक बार जेइ दिसा निहारे । डरपत सुभट कवच कर धारे ॥ 

उरस उदर जब लागन भागे । समर सूर तब भागन लागें ॥ 
पूँख पर बट सुभट घर बूझे । का कहि तिन्ह कछु नाहि सूझे ॥ 

कहित पवन सन पूछ बुझाईं । पवन लछन सुत तिन पद नाईं ॥ 
रन कारन आँगन बैसे । देखु दुइ पुर एके कुल कैसे ॥ 

दिग कुंजर सर पुँज पलक, दिसा सिखर बर सूल । 
चारि चरन चर कुञ्ज घर, धरे मात पद धूल ॥    



 





  




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