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----- ॥ हर्फ़े-शोशा 14 ॥ -----

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 कहीं इशाअते-अख़बार हैं कहीं हाकिमों के तख़्ते हैं..,
शाह हम भी हैं अपने घर के क़लम हम भी रख्ते हैं.....
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बिक रहा ख़बर में हर अखबार आदमी..,  
ख़रीदे है सरकार, हो खबरदार आदमी..,
मालोमता पास है तो ही है वो असरदार..,
हो ग़रीबो-गुरबां तो है वो बेक़ार आदमी.....  
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रिन्द-ए-रास्तों की ये अज़ब दास्ताँ है
काफ़िला बर्के-रफ़्ता औ रहबर न कोई
न कोई आबे-दरिया और तिश्ने-लब है
तिरे मरहलों पे आबे-दरिया न कोई

न रहमत न रिक़्क़त न दयानत की रस्में
इल्मो-इलाही से इसके रहले हैं खाली
न ख़िलक़त के ख़ालिक़ की ही इबादत
  ख़ातिरो-ख़िदमत न कोई

रिन्द = स्वच्छंद, निरंकुश, मनमाना आचरण करने वाला
काफ़िला बर्के-रफ़्ता = द्रुत गति से जानेवाला यात्रिसमूह
रहबर = पथप्रदर्शक
तेरे मरहलों के

न मरहला ही कोई गुजरे-गह पे इसकी
न मंजिल है उसका न रहमाँ ही कोई
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सफ़हा-ए-दिल तेरे..,
दरिया की लहरों पे..,
यादों की कश्ती की.,
अजीब दास्ताँ है ये.....

सहरों और शामों के
गिरह बंद दामन से
छूटते हुवे लम्हों की
अजीब दास्ताँ है ये.....

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कोई ख़्वाहिश नहीं कोई अरमाँ नहीं..,
कभी यूं भी सफ़र हम तो करते रहे..,
और बसर का कोई पास सामाँ नहीं..,
कभी यूं भी बसर हम तो करते रहे.....

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ज़श्न औ जलवा जलसा ज़रूरत से ज्यादा..,
जिंदगी क्या है तू इस हक़ीक़त से ज्यादा.., 
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मिटा लक़ीरें औरों की खुद फ़क़ीर बन गए.., 
ऐ दुन्या वो फ़क़ीर आज लक़ीर बन गए.....  

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जिसके ज़ीस्त-ए-जहाँ में रहमो-करम के मानी..,

वो इंसा फिर इंसा है जिसकी नज़रों में पानी.....
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रख्खें ग़र ईमाने-दिल सच कह दें तो गुनाह है
ये कौन सी दुन्या है ये कौन सा जहाँ है





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