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----- ॥ दोहा-द्वादश ५ ॥ -----

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जाति-पाति उत्पाति लखि  कबहुँ कबीरा रोएँ |   
अजाति के उत्पाति पेखत अधुनै रोना सोए || १|| 
भावार्थ : - जातिवाद के उत्पात को देखकर कभी कबीरा रोया था | रोना अब भी वही है अंतर इतनाभर है की अब उत्पात अजातिवाद की पाँति द्वारा हो रहे हैं |


गन मान धनि मानी कि ऊँची पीठ बिराजु | 
साँच जुग जग सहित सो पोषत देस समाजु || २ || 
भावार्थ : - वह गणमान्य हो, धनाढ्य हो, लब्धप्रतिष्ठित हो अथवा ऊँचे पद पर आसीन हो; सतयुग में जब सतोगुण की अधिकता होती है तब ऐसे भद्रजन संसार सहित देश व् समाज का पोषण करते हैं || 


गन मान धनि मानी कि ऊँची पीठ बिराजु | 
कलिकाल जग सहित सो सोषत देस समाजु || ३ || 
भावार्थ : - वह गणमान्य हो, धनाढ्य हो, लब्धप्रतिष्ठित हो अथवा ऊँचे पद पर आसीन हो; कलुषित काल में जब तमोगुण की अधिकता होती है तब ऐसे तथाकथित भद्रजन विश्व सहित देश व् समाज का शोषण करते हैं || 

अधुनै ऊँची पीठ अस बैसे अजाति बाद | 
दीन धर्म निरपेख जौ सुभाउ ते मनुजाद || ४ || 
भावार्थ : - विद्यमान समय में गणमान्य, धनाढ्य, लब्धप्रतिष्ठित, व् उच्च पद पर अजाति वाद विराजित हो गया है यह वर्ग संकरता ( हाइब्रिड) जनित दुर्गुणों से युक्त है |  दुर्दशाग्रस्त विश्व, देश व् समाज से खिन्न व् दया दान तप व् सत्य से उदासीन होते हुवे जो कीट भक्षी, तमचूर भक्षी, गोभक्षी, भ्रूणभक्षी, नरभक्षी स्वरूप आसुरी स्वभाव का है || 

गोपाला कही कही के माइ बजावै थाल | 
जोइ पालै गौवन कू सोइ होत गोपाल || ५ || 
भावार्थ : - 'आँखिन के आँधरे नाम नैनसुख'गोपाल' नाम रख लेने भर से कोई गोपाल नहीं हो जाता | जो वास्तव में गौवों का पालन व् पूजन करता है वही गोपाल है |  

तीली तिल भर लौ लही, लाई मन भर आग |
बिपति थोड़ जो जानिआ  वाके फूटे भाग || ६ ||
भावार्थ : - रंचमात्र लौ ग्रहण की हुई तीली भी दावानल का कारण हो सकती है | थोड़ी  विपत्ति अथवा छोटी समस्या भी महाविनाश का कारण हो सकती है जो विपत्ति को यत्किंचित  संज्ञानकर उसकी उपेक्षा करता है वह अंत में महाविनाश जनित दुर्भाग्य को प्राप्त होता है |  

बिरते की चिंतन करो कल पै करो बिचार | 
आजु की सुधि लेइ चले दूरे नही दुआर || ७ || 
भावार्थ : --  व्यतीत समय का चिंतन व् भावी समय का विचार करते हुवे यदि वर्तमान की संभाल करते चलें तब लक्ष्य की  प्राप्ति अवश्यमेव होती है | 

आगे आगे बढ़ चले भई देह बिनु प्रान  | 
पाछे चालि के पेखिए  मेलेंगे भगवान  || ८ || 
भावार्थ  : - जीवन का पंथ सीधा सरल न होकर चक्रवत है, इस पंथ पर आगे-पीछे की चाल चलनी चाहिए |  आगे आगे बढ़ चले तो शरीर प्राण विहीन होकर काल का ग्रास हो जाएगा, किंचित पीछे चलकर देखिए वहां काल नहीं अपितु श्याम व् राम के रूप में साक्षात ईश्वर से भेंट होगी  सार यह है कि सदैव आगे की बढ़नी भी कल्याणकारी नहीं होती | 


कर सेति श्रम करम करे बहोरि खावै खाद | 
धरम करतब पंथ चरे मानस  की मरयाद || ९  || 
भावार्थ : -  पशुवत स्वभाव के विपरीत मानव का यह स्वभाव होना चाहिए कि वह परिश्रम पूर्वक धनार्जन के द्वारा अपना जीवन यापन करे व् जीवनपंथ पर सत्कार्य करता चले | 


अजहुँ जग बिपरीत भया उलट भई सब कान | 
पाप करे तो मान दे धर्म करे अपमान || १०  || 
भावार्थ : - विद्यमान समय में जगत के सभी नीति नियम रीतिगत न होकर विपरीत हो चले हैं |  पाप करो तो यह सम्मानित करता है और यदि धर्म करो तो यह अपमानित करता है | 

डेढ़ लाख रूपए प्रतिमास के भाड़े पर  अपने प्रतिष्ठान में  मदिरा बेच कर जनसामान्य को व्यसनों का अभ्यस्त करें तो मुख्यमंत्री व् प्रधानमन्त्री लखपति करोड़पति कहकर ताली बजाते हैं यदि उसी प्रतिष्ठान पर गौपालन द्वारा 
गौरस के रूप में देश का वास्तविक उत्पादन करते हुवे दोचार सहस्त्र मुद्रा की आय अर्जित करें तो वह 'ऊँचे मंच'से उसे गौ रक्षा की दूकान कहकर गाली देते हैं | 

प्रीति साँची सोइ कहो होइब मीन समान | 
पिय पानि बिलगाइब जूँ छूटे तलफत प्रान || ११ || 
भावार्थ : - सच्ची प्रीत वही है जो मीन की प्रीत के समान हो | प्रियतम रूपी पानी अथवा प्रियतम का हाथ वियोजित होते ही तड़पते हुवे प्राण निष्कासित हों | 

फूल फले न छाईं दैं जे परदेसी ठूँठ | 
बिरउँ कहते मिथ्या है बिरिछ कहे सो झूठ || १२ || 
भावार्थ : - ये विदेशी ठूंठ न फूलते हैं न फलते हैं न हीं छाया देते हैं इन्हें विटप कहना मिथ्या है और वृक्ष कहना तो नीरा झूठ ही है | 









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