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----- ।। उत्तर-काण्ड ५६ ।। -----

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अति बिनैबत  धरत महि माथा । लषन प्रनाम करत रघुनाथा ॥ 
लखि अपलक अरु पलक न ठाढ़े । अबिलम मरुत बेगि रथ चाढ़े ॥ 

कल कीरन कर भर करषाई । सियहि आश्रमु चले अतुराई ॥ 
तेजस बदनु भावते जी के । रघुनाथ तनय अतिसय नीके ॥ 

बहोरि भर अनुराग बिसेखे । बिहँसि महर्षि ताहि पुर देखे ॥ 
कहब बछरु धरु कण्ठ कूनिका । गाउ सुठि को सुर संगीतिका ॥ 

सिउ सारद नारदहि सुहाना । रघुबरहि कृत चरित कर गाना ॥ 
गुरु अग्या करतल बर बीना । गावहि हरिगुन गान प्रबीना ॥ 

प्रगसो दानव दैत निकंदन प्रगसो हे नयनाभिराम । 
प्रगसो हे महि भारु अपहरन प्रगसो हे ललित ललाम ॥ 
कुकर्म महु लीन अति मलीन मन करे सबु मति कर बाम । 
दीन हीन सुख गुन बिहीन भए भरे हम धरे धन धाम ॥ 

प्रगसो अनाथन केरे नाथ हे प्रगसो सिया बर राम । 
तरपत परबसु पियास मरत पसु बहत सुरसरि सबु ठाम । 
तुम बिनु खल दल बल गह भए भल पूर सब साधन साम ॥ 
भगति बिमुख जग कारन चरनहि भजहिं न करहिं प्रनाम ॥ 


खलदल दवन भुवन भय भंजन प्रगसो भानुकुल भाम । 
प्रगसो भगवन दुर्दोषु दहन अपहन मोह मद काम ॥ 
भ्रष्ट अचार अस भा संसार भए सबु अलस अलाम ॥ 
जहँ तहँ बाधि बिबिध ब्याधि जग करिअति अति छति छाम ॥ 

करि करि पाप कहैं  पाप नहि किछु गहैं मुए कठिन परिनाम । 
हे कमलारमन करो अवतरन करन बिस्व बिश्राम ॥   
तव मंगल करन लाए पथ नयन सब दिनु सब रितु सब जाम ॥  
हे अवतारी अवतार गहन बरो बपुष घन स्याम ॥  

 जग संताप देइ ताप करै घोर घन घाम । 
आरत भूमि पुकारती प्रगसु हे तरुवर राम ॥ 

शनिवार, २५ फरवरी, २०१७                                                                       

कातर भूमि पाप भर भारी । धेनु रूप धरि करिअ गुहारी ॥ 
पुनि दोनहु बालक बड़भागे । हरि अवतरन कथा कहि लागे ॥ 

भाव भेद पद छंद घनेरे । पुन्यकृत चरित चितरित केरे ॥ 
धर्म धुरंधर बिधिकर साखी । भगवान भगति भाँति बहु भाखी ॥ 

भनत भनितिहि भदर भर भेसा । किए अबिरत पतिब्रत उपदेसा ॥ 
नेम बचन दृढ़ भ्रात स्नेहा । काल परे अनुहरि सब गेहा ॥ 

सुबिरति जति गुरु भगति बखाना । अनुगम अनुपम सबहि बिधाना ॥ 
दरसिहि जहँ साईँ समुहाना । सेबक नीति मूरतिमाना ॥ 

निबध निपुण नय नीति सुरीति । निगदिहि निर्मल प्रीति प्रतीति ॥ 

कलि कलुष बिभंजन जहां पापीजन निज हाथ । 
भू भय हरन पाप दमन दंड दिये रघुनाथ ॥ 

रविवार, २५ फरवरी, २०१७                                                                                       

गाएँ सुमधुर बाँध सुर दोई । मंत्र मुग्ध सब श्रुत सुखि होईं ॥ 
पर मूर्छि सिद्ध गंधर्बा । हतचित चकित सुराग सुर सर्बा ॥ 

सुनत सहित अनगन  महिपाला । होइहिं मोहित जगद कृपाला ॥ 
मोह मगन मन धीरे न धीरा । आनंद घन नयन बह नीरा ॥ 

पुनि पंचम सुर गान अधीना । प्रेम सरित  बहि होइहिं लीना ॥ 
रह अस्थमबित हिलहिं न डोलहिं । चित्र लिखित सम अबोल न बोलहिं ॥ 

पुनि महर्षि दोनहु सुत तेऊ । कृपा समेत इ बचन कहेऊ ॥ 
तुम्हरी मति अस बल सँजोई । कि नीति कुसल नहि तुअ सहुँ कोई ॥ 

अजहुँ पहिचानिहु तेहि ए पूजनिय पितु तुहार । 
जाइ करिहौ तनके प्रति, पुत्रोचित ब्यबहार ॥ 








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